अपने लिये ही चुनौती बनते शिवराजसिंह

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मनोज कुमार
मध्यप्रदेश की राजनीति में विपक्ष के लिए कोई बड़ा स्पेस नहीं था. जनता पार्टी शासनकाल में भी सरकारें आती-जाती रहीं लेकिन स्थायित्व की कोई परिभाषा नहीं बन पायी. 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनायी थी लेकिन एक के बाद एक कर उमा भारती और बाबूलाल गौर की रवानगी के बाद लगा था कि भाजपा अपने पहला पांच साल पूरा नहीं कर पायेगी लेकिन तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान ने सत्ता सम्हाली तो सारे भ्रम और संशय ध्वस्त हो गए. विपक्ष के लिए शिवराजसिंह चौहान मुसीबत के सबब थे तो स्वयं की पार्टी में भी वे अलहदा हो गए. एक के बाद एक चार कार्यकाल के बाद उनकी कामयाबी के गीत गाये जा रहे हैं. यह सच भी है लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि चौथे कार्यकाल में शिवराजसिंह चौहान स्वयं के लिए चुनौती बन चुके हंै. यह बहुत कम होता है लेकिन हो रहा है. चार बार मुख्यमंत्री हो जाना ना केवल इस बात का प्रमाण है कि प्रदेश की जनता को सारी आशा, सारी उम्मीद शिवराजसिंह पर टिकी है अपितु पार्टी को भी इसी एक चेहरे पर भरोसा है. ऐसे में आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए शिवराजसिंह चौहान स्वयं के लिए चुनौती बन रहे हैं.
साल 2003 से साल 2022 अर्थात एक कम 20 वर्ष का समय होता है. इस बीस वर्ष में कोई 18 महीने के लिए कांग्रेस की सत्ता में वापसी होती है लेकिन जल्द ही कांग्रेस विपक्ष में बैठ जाती है और शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा सरकार की वापसी होती है. मध्यप्रदेश की राजनीति में साल 2003 एक ऐसा मोड़ था जिसने पूरे राज्य में राजनीति का एक नया ककहरा गढ़ा. उमा भारती की लीडरशिप में भाजपा ने जरूर सरकार बनायी लेकिन इस सरकार को कायम रखने से कीर्तिमान गढऩे तक का श्रेय शिवराजसिंह चौहान को जाता है. 2005 में जब शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी होती है तो उन्हें बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया. तब राजनीति के बड़े पंडितों को भी इस बात का अहसास नहीं था कि बेहद सहज और कद-काठी में मामूली सा दिखने वाले शिवराजसिंह चौहान कीर्तिमान गढऩे आये हैं.
उमा भारती के नेतृत्व में भारी बहुमत से जीत के बाद यह लगने लगा था कि अब ऐसी जीत मुश्किल होगी लेकिन लगातार भारी बहुमत के साथ भाजपा जीतती रही और इस हर जीत के शिल्पी शिवराजसिंह चौहान थे. शिवराजसिंह चौहान का कद बढ़ता गया और उनका विकल्प ढूंढना नामुमकिन ना सही, मुश्किल तो जरूर है. चौथी बार सत्ता की ताजपोशी के बाद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान खुद के लिए चुनौती बन गये. अपने पिछले कार्यकाल में आम आदमी के भीतर बेहतर और बेहतर परिणाम देने वाली योजनाओं को जो आकार-प्रकार दिया, उससे कहीं अधिक की उम्मीद की जाने लगी. यह स्वाभाविक भी था. दुनिया के पहले कानून लोक सेवा गारंटी से लेकर लाडली लक्ष्मी, बेटी बचाओ और तीर्थ दर्शन योजना सहित दर्जनों ऐसी योजनाओं को जमीनी आकार दिया कि कई सामाजिक रूढिय़ा टूटने लगी. लाडली लक्ष्मी और बेटी बचाओ योजना ने तो बाल विवाह जैसी कुरीतियों का नाश कर दिया तो दस साल पहले जो लिंगानुपात बिगड़ गया था, आज वह पटरी पर आ गया है. लोक सेवा गारंटी ने अफसरशाही को जिम्मेदार बनाया है तो तीर्थ दर्शन योजना ने उम्रदराज लोगों के बीच एक उम्मीद जगायी है. किसानों को मुआवजा देने का मसला हो या केन्द्र सरकार की योजनाओं का मामला, सबकुछ बेहतर ढंग से क्रियान्वित किये जाने का सिलसिला चल पड़ा है. हालांकि समीक्षा करने वाले कमियों को तो गिनाते हुए थकते नहीं हैं लेकिन इसका असर कितना हुआ, इस पर कोई चर्चा नहीं करते हैं. इस बात से भी इंकार करना मुश्किल है कि सबकुछ भला भला सा हुआ है, कुछेक कमियां भी हैं जिन्हें दुरूस्त किया जाता रहा है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का पूरा जोर महिला, बच्चों, किसान और दलित आदिवासी के कल्याण पर रहा. उनके द्वारा गढ़ी गयी योजनायें फलीभूत भी हुईं तो पांव-पांव वाले भैया से मामा शिवराजसिंह सबके चहेते बन गए. सबके प्रिय बन जाने के पीछे यही एक कारण नहीं था बल्कि उनकी सादगी थी. शिवराजसिंह चौहान पर मुख्यमंत्री कभी सवार नहीं हो सके. वे मामा, भइया और दोस्त के रूप में सबके बीच रहे. अपने पहले कार्यकाल में जिस तरह समाज के हर वर्गों के लिए मुख्यमंत्री निवास के दरवाजे खोल दिये थे, वैसा ही उनका दिल हर व्यक्ति के लिए खुला है जो उनके सहज होने से लोगों को कनेक्ट करता है. चार बार के मुख्यमंत्री होने पर किसी को भी दंभ हो सकता है लेकिन शिवराजसिंह के कार्य व्यवहार में लगता है कि वे पहली बार मुख्यमंत्री बने हुए हैं. इस बात से इंकार किया जाना मुश्किल है कि मध्यप्रदेश में वे इकलौते नेता हैं जिन्हें गांव-गलियों में लोग पहचानते हैं. कभी किसी के कंधे पर हाथ रखकर अपनापन जताना तो किसी के देहरी में जाकर चाय पी आना. भरी भीड़ से नाम लेकर बुलाने की अदा से शिवराजसिंह चौहान ने मोहित कर रखा है.
आम आदमी से अलग जब वे मुख्यमंत्री के तौर पर प्रशासनिक अधिकारियों से रूबरू होते हैं तो उनका अलग ही अंदाज होता है. आज जब वे योजनाओं की समीक्षा करने अफसरों के साथ बैठते हैं तो अफसरशाही का पसीना छूट जाता है. कभी आंकड़ों के जाल में भुल-भुलैय्या पैदा करने वाले अफसरों को होमवर्क करके जाना होता है. उन्हें इस बात का इल्म हो चुका है कि योजना, उपलब्धि और गांव-गांव के हितग्राहियों के नाम तक मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पता है. प्रशासनिक कसावट और परिणाममूलक योजनाओं ने शिवराजसिंह चौहान की एक अलग इमेज क्रिएट की है. प्रशासनिक हलकों में लेकर इस बात की घबराहट फैल चुकी है कि पता नहीं कब सीएम क्लास ले लें. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान परिणाम नहीं देने वाले अधिकारियों के प्रति सख्त हैं तो बेहतर काम देने वालों के लिए दरियादिल भी.
मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान के समक्ष हमेशा चुनौतियां रही हैं. राजनीतिक तौर पर विपक्ष से चुनौती मिलना स्वाभाविक है लेकिन अपने ही लोगों से उन्हें चुनौती मिलती रही है. शिवराजसिंह चौहान जैसे ही चौथी दफा मुख्यमंत्री बने तो एकाध पखवाड़े में खबर आने लगी कि सत्ता परिवर्तन निकट है. कौन राजनेता किससे मिल रहा है, कौन कब दिल्ली दरबार जा रहा है, जैसी खबरें तैरने लगती थी लेकिन पानी के बुलबुले की तरह थोड़े समय में शांत हो जाती थी. इन खबरों से बेखबर शिवराजसिंह अपने में मस्त थे. विरोधियों के सत्ता परिवर्तन के सपने बनते और बिगड़ते रहे और शिवराजसिंह मजबूत होते रहे. उन्हें यह मजबूती उनके पिछले कार्य के कारण आम आदमी से मिली. चौथे कार्यकाल में कोविड की चुनौती उनके समक्ष थी लेकिन गांधीजी के रास्ते पर चलकर उपवास कर लोगों में चेतना जागृत करने की कोशिश की. अपनी परवाह किये बिना वे लोगों के बीच में गए, ढाढस बंधाया और स्थितियों को नियंत्रण में किया. शिवराजसिंह ने बिना रूके, बिना थमे उम्मीदों का आसमान इतना ऊंचा कर दिया है कि आम आदमी के जेहन में शिवराजसिंह के अलावा कोई नहीं दिखता है. यह कपोल कल्पना भी नहीं है. शिवराजसिंह के कार्यकाल की विवेचना करते समय आपको निरपेक्ष रहना होगा. कोई यह कहे कि सब कुछ गुलाबी गुलाबी है तो यह संभव नहीं है और हो भी नहीं सकता है.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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