सामाजिक समरसता : राष्ट्र निर्माण का आधार

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  • पवन‌ शुक्ला (अधिवक्ता)

महात्मा गांधी ने कहा था—“हमारी एकता हमारी विविधता में ही है; जब तक हम मिलकर नहीं रहेंगे, तब तक भारत सशक्त नहीं हो सकता।” यह वाक्य केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि भविष्य का संकल्प भी है। भारत की असली ताक़त उसकी गंगा-यमुनी संस्कृति में है, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ, भाषाएँ और परंपराएँ मिलकर जीवन की धारा को प्रवाहित करती हैं।

आज तकनीक और सोशल मीडिया के युग में यह एकता और भी अनिवार्य हो गई है। एक क्लिक से संदेश करोड़ों तक पहुँचता है, विचार वायुमंडल में तीर की तरह उड़ते हैं। यह शक्ति हमें जोड़ भी सकती है और बाँट भी सकती है। शब्द अमृत भी बन सकते हैं और विष भी। ऐसे समय में सामाजिक समरसता केवल आदर्श नहीं, बल्कि वह धड़कन है जो राष्ट्र के हृदय को जीवित रखती है।

कबीर ने कहा था—“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।” यह पंक्ति बताती है कि मनुष्य की पहचान उसकी जाति या धर्म से नहीं, बल्कि उसकी चेतना और कर्म से होती है। यही विचार सामाजिक समरसता का मूल है। यदि समाज इस दृष्टि को अपनाए, तो कोई भी दीवार स्थायी नहीं रह सकती और कोई भी विभाजन मनुष्यता को बाँट नहीं सकता।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस विविधता को भारत की आत्मा कहा। वे लिखते हैं—“यदि हम विविधता को दबाएँगे, तो राष्ट्र की आत्मा क्षीण हो जाएगी।” टैगोर की दृष्टि में भारत एक बगीचा है, जिसमें असंख्य फूल हैं; कोई लाल, कोई नीला, कोई सफ़ेद—सब मिलकर ही बगीचे की शोभा बढ़ाते हैं।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस सत्य को और गहराई दी। उन्होंने कहा—“राजनीतिक समानता व्यर्थ है यदि सामाजिक और आर्थिक समानता न हो।” संविधान ने हमें अधिकार दिए, परंतु उन अधिकारों को जीवंत करने का कार्य सामाजिक समरसता ही कर सकती है। यदि समाज का कोई भी हिस्सा हाशिये पर रह जाए, तो पूरा राष्ट्र कमजोर हो जाता है।

इसीलिए कहा जा सकता है—
“सच्ची ताक़त उस समाज की होती है, जो अपनी विविधताओं को बोझ नहीं, बल्कि पूँजी समझता है।”

आज की राजनीति कभी-कभी विभाजन की दीवारें खड़ी करने का प्रयास करती है। पर हमें इतिहास से सीखना चाहिए। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस और मौलाना आज़ाद—सभी अलग-अलग राहों पर चले, परंतु उनके हृदय में एक ही अग्नि जल रही थी—भारत की स्वतंत्रता। उनकी समरसता ही हमारे संघर्ष की सच्ची विजय थी।

समरसता राष्ट्र निर्माण की तीन सीढ़ियाँ बनाती है—
पहली, यह विश्वास का दीप जलाती है।
दूसरी, यह सहयोग का सेतु बनाती है।
तीसरी, यह शांति का आकाश रचती है।
और इन तीनों के बिना कोई भी राष्ट्र दीर्घकाल तक टिक नहीं सकता।

सोशल मीडिया को भी इसी दिशा में साधन बनाया जा सकता है। यदि नफरत की एक चिंगारी लाखों को जला सकती है, तो प्रेम की एक किरण लाखों को रोशन भी कर सकती है। युवा पीढ़ी के पास यह शक्ति है कि वह तकनीक को जोड़ने का माध्यम बनाए और भविष्य को सुनहरी रोशनी से भर दे।

लोकतंत्र भी तभी सशक्त होगा जब वह समरसता पर खड़ा होगा। लोकतंत्र केवल मतपेटियों तक सीमित नहीं है; यह वह पुल है जो दिलों को जोड़ता है। नेताओं का धर्म है कि वे दीवारें नहीं, पुल बनाएँ। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे संदेह नहीं, विश्वास बोएँ।

“समरसता कोई आदर्श नहीं, बल्कि वह श्वास है जिसके बिना समाज जीवित नहीं रह सकता।”
यह श्वास यदि थम जाए, तो राष्ट्र भी थम जाएगा। और यदि यह श्वास निरंतर बहे, तो राष्ट्र प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रहेगा।

यही कारण है कि आज का भारत समरसता को अपने विकास का सबसे बड़ा मंत्र बनाए। विविधताओं को धरोहर मानकर ही यह राष्ट्र सशक्त और स्थायी रह सकता है। तकनीक यदि संवाद और सहयोग का सेतु बने, राजनीति यदि सेवा और सहजीवन का मार्ग बने, तो समाज में न केवल विश्वास और समानता का वातावरण पनपेगा, बल्कि राष्ट्र की आत्मा भी प्राणवंत होगी।

भारत की नियति यही है कि वह अपनी बहुरंगी संस्कृति और सामूहिक चेतना के सहारे विश्व को राह दिखाए। जब हर नागरिक स्वयं को सम्मानित और आवश्यक अनुभव करेगा, तब भारत केवल एक भूगोल नहीं रहेगा—वह एक जीवंत आत्मा बनकर जगत को यह सन्देश देगा कि सच्चा विकास साथ चलने में है और सशक्त राष्ट्र की नींव सामाजिक समरसता में है।

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