आधुनिक युग में सोशल मीडिया मानव जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज का समाज सोशल मीडिया के बिना अपनी दैनिक गतिविधियों की कल्पना भी नहीं कर सकता। यू-ट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और एक्स (पूर्व ट्विटर) जैसे प्लेटफॉर्म ने सूचनाओं के आदान-प्रदान को अत्यंत सरल और त्वरित बना दिया है। जहाँ एक ओर सोशल मीडिया ज्ञान, संवाद, रोजगार और जागरूकता का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, वहीं दूसरी ओर इसके दुष्परिणाम भी उतने ही गंभीर और भयावह होते जा रहे हैं। यही कारण है कि सोशल मीडिया आज वरदान कम और अभिशाप अधिक सिद्ध होता प्रतीत हो रहा है।
आज वृद्ध, युवा और बालक—सभी वर्गों के लोग अपने समय का बड़ा हिस्सा मोबाइल स्क्रीन पर बिताने लगे हैं। पारिवारिक संवाद, सामाजिक मेल-जोल और वास्तविक जीवन की संवेदनाएँ धीरे-धीरे आभासी दुनिया में सिमटती जा रही हैं। बच्चों के हाथों में खिलौनों की जगह मोबाइल फोन आ गए हैं और युवा वर्ग रील्स व लाइक्स की दुनिया में स्वयं को खोता जा रहा है। यह स्थिति समाज के मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत चिंताजनक है।
सोशल मीडिया वास्तव में एक महासागर के समान है—यदि इसमें विवेक और संयम के साथ मंथन किया जाए तो अमृत प्राप्त किया जा सकता है, किंतु यदि विवेक का अभाव हो तो यही महासागर विष भी उगल सकता है। दुर्भाग्यवश आज इस महासागर से अमृत की अपेक्षा विष अधिक निकल रहा है। अश्लीलता की सभी सीमाएँ सोशल मीडिया ने पार कर दी हैं। खुलेआम आपत्तिजनक सामग्री परोसी जा रही है, जिसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव किशोरों और युवाओं के मन-मस्तिष्क पर पड़ रहा है। नैतिक मूल्यों का क्षरण और मानसिक विकृति इसी का प्रत्यक्ष परिणाम है।
इतना ही नहीं, सोशल मीडिया आज मिथ्या, भ्रामक और फेक समाचारों का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है। बिना किसी पुष्टि के झूठी खबरें फैलाना एक सामान्य प्रवृत्ति बन गई है। इससे समाज में भ्रम, अविश्वास और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो रही है। कई बार यह फेक समाचार साम्प्रदायिक सौहार्द को भी नुकसान पहुँचाते हैं और सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करते हैं।
चिंता का विषय यह भी है कि देश-विरोधी गतिविधियाँ और राष्ट्र की एकता-अखंडता को चुनौती देने वाली सामग्री सोशल मीडिया के माध्यम से बड़े सुनियोजित ढंग से प्रसारित की जा रही है। मनगढ़ंत इतिहास, विकृत तथ्यों और भ्रामक विचारधाराओं को युवाओं के समक्ष प्रस्तुत कर उनके मन में देश और संस्कृति के प्रति नकारात्मक भाव पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। यह एक प्रकार का बौद्धिक आतंकवाद है, जो चुपचाप समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है।
यदि समय रहते सोशल मीडिया पर प्रभावी नियंत्रण और सेंसरशिप नहीं लागू की गई, तो आने वाला भविष्य अत्यंत भयावह हो सकता है। वह दिन दूर नहीं जब समाज दिशाहीन, मूल्यविहीन और वैचारिक रूप से विभाजित हो जाएगा। इसकी कल्पना मात्र से ही मन सिहर उठता है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सोशल मीडिया पर कड़ी निगरानी रखे और स्पष्ट व प्रभावी नियम बनाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता की अनुमति नहीं दी जा सकती। फेक न्यूज, अश्लीलता और देश-विरोधी सामग्री पर कठोर कार्रवाई अनिवार्य है। साथ ही अभिभावकों और शिक्षण संस्थानों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, ताकि बच्चों और युवाओं को सोशल मीडिया के सकारात्मक उपयोग की दिशा में मार्गदर्शन मिल सके।
निष्कर्षतः, सोशल मीडिया न तो पूर्णतः बुरा है और न ही पूर्णतः अच्छा। यह हमारे उपयोग और नियंत्रण पर निर्भर करता है। यदि समय रहते विवेकपूर्ण निर्णय नहीं लिए गए, तो यह वरदान कब अभिशाप बन जाएगा—पता ही नहीं चलेगा। अब भी समय है, चेतने का और संभलने का।
-सुरेश गोयल धूप वाला