आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। संपर्क, जानकारी और अभिव्यक्ति के कई सकारात्मक अवसर यह माध्यम प्रदान करता है, लेकिन बच्चों के लिए यही साधन गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं का कारण भी बन रहा है। यह तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है कि मोबाइल व इंटरनेट ने बच्चों की दिनचर्या, सोच, भावनाओं और व्यवहार पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है। इसी वैश्विक चिंता को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया सरकार द्वारा 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने का प्रस्ताव निश्चित ही साहसिक और अनुकरणीय कदम कहा जाएगा।
भारत भी इस चुनौती से अछूता नहीं है। यहाँ स्थिति और भी जटिल है क्योंकि डिजिटल उपकरणों की पहुँच अब गांव-गांव तक हो चुकी है। बच्चे जिस उम्र में खेलकूद, मित्रता, रचनात्मकता और अध्ययन में रमना चाहिए, वह समय अब अनियंत्रित स्क्रीन टाइम की भेंट चढ़ रहा है। मोबाइल फोन आज बच्चों का मनोरंजन साधन नहीं, बल्कि दिनचर्या का प्रमुख हिस्सा बन गया है। कई घरों में शिशुओं को शांत रखने के लिए ही मां-बाप उन्हें मोबाइल थमा देते हैं, यह सोचकर कि इससे बच्चा व्यस्त रहेगा। लेकिन इस अनजाने व्यवहार से बच्चे की एकाग्रता, भावनात्मक स्थिरता और सामाजिक कौशल पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
सोशल मीडिया कंपनियों के अल्गोरिद्म विशेष रूप से इस प्रकार तैयार किए जाते हैं कि यूज़र अधिक से अधिक समय तक प्लेटफॉर्म पर बना रहे। बच्चों का मस्तिष्क स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु और प्रभावग्राही होता है; ऐसे में चमकती स्क्रीन, आकर्षक वीडियो और लगातार मिलने वाले नोटिफिकेशन उन्हें डिजिटल जाल में जकड़ लेते हैं। परिणामस्वरूप उनकी वास्तविक दुनिया से दूरी बढ़ती है। कई अध्ययनों में यह बात उजागर हुई है कि अत्यधिक ऑनलाइन समय बच्चों में चिड़चिड़ापन, आक्रामकता, अकेलापन, आत्मविश्वास में कमी और अवसाद जैसे लक्षणों को जन्म देता है। प्रतिभाशाली व होनहार बच्चे भी अक्सर पढ़ाई से पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनकी ऊर्जा और ध्यान सोशल मीडिया पर व्यर्थ हो जाता है।
माता-पिता की भूमिका इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है, लेकिन केवल अभिभावकीय सतर्कता काफी नहीं। बच्चों की सुरक्षा के लिए सरकारी नीति और डिजिटल प्लेटफॉर्म की जवाबदेही दोनों अनिवार्य हैं। वर्तमान में भारत में सोशल मीडिया उपयोग को लेकर कोई स्पष्ट आयु-सीमा आधारित नियंत्रण व्यवस्था नहीं है। केवल कंपनियों के शर्त-पत्र में ’13 वर्ष से ऊपर’ का सामान्य उल्लेख है, जिसे कोई भी बच्चा आसानी से पार कर लेता है। ऐसे में आवश्यक है कि भारत भी विकसित देशों की तर्ज पर कठोर और व्यवहारिक कानून बनाए, जिनमें आयु सत्यापन, स्क्रीन टाइम सीमा, बच्चों से संबंधित डेटा की सुरक्षा और उनके लिए विज्ञापनों पर प्रतिबंध जैसी प्रावधान शामिल हों।
स्कूलों में डिजिटल साक्षरता को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। बच्चों को यह समझाना बेहद जरूरी है कि इंटरनेट केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जोखिमों से भरी दुनिया भी है। सुरक्षित ऑनलाइन व्यवहार, साइबर बुलिंग, डेटा गोपनीयता और जिम्मेदार डिजिटल पहचान पर काम करना समय की मांग है। अभिभावकों को भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों के इंटरनेट उपयोग की निगरानी किस प्रकार संतुलित और संवेदनशील तरीके से करें।
सोशल मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारी सबसे महत्त्वपूर्ण है। उन्हें बच्चों के डेटा का उपयोग विज्ञापन या प्रोफाइलिंग के लिए पूरी तरह बंद करना चाहिए। ऐसा न करने पर कड़े दंड और दायित्व तय होने चाहिए। साथ ही, बच्चों के लिए अलग, सुरक्षित और सीमित वर्ज़न विकसित किए जाएँ, जिनमें हानिकारक सामग्री तक पहुंच असंभव हो।
आज का बच्चा कल का नागरिक है। यदि इस पीढ़ी को डिजिटल व्यसनों से मुक्त नहीं रखा गया, तो उसका बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास गंभीर खतरे में पड़ सकता है। यह केवल सरकार का विषय नहीं, बल्कि हर परिवार, हर स्कूल और पूरे समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है। सोशल मीडिया कोई शत्रु नहीं, लेकिन उसका अनियंत्रित दखल बच्चों के भविष्य को अवरुद्ध अवश्य कर सकता है।
समय की मांग है कि भारत इस मुद्दे पर जागरूक और सक्रिय बने, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी एक संतुलित, सुरक्षित और स्वस्थ डिजिटल वातावरण में पनप सके।
— सुरेश गोयल ‘धूप वाला’