डॉ. रमेश ठाकुर
अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस, विश्व भर के दिव्यांगजनों को सम्मान देने और उनके वैश्विक स्वास्थ्य सेवा के लिए समर्पित माना जाता है। शुरुआत सन्-1992 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा की गई थी। आज 33वां संस्करण समूचे संसार में मनाया जा रहा है। हर साल 3 दिसंबर को विभिन्न वैश्विक और स्थानीय संगठन, समाज के हर स्तर पर विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों, सम्मान और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक मंच पर जुटते हैं। भारत सरकार द्वारा अक्षमों को दिव्यांग कहा जाता है। उनको स्वावलंबी बनाने के लिए तमाम तरह की कल्याणकारी योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। साथ ही प्रत्येक सरकारी विभाग में उनके लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी केंद्र सरकार की ओर से सुनिश्चित किया हुआ है।
वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस का महत्व पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। यह न केवल दिव्यांग व्यक्तियों के योगदान को मान्यता देने का अवसर है, बल्कि समाज और सरकार को उनकी समस्याओं, जरूरतों और अधिकारों के प्रति सजग करने का भी माध्यम है। भारत में यह दिवस विशेष महत्व रखता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति और दिव्यांग अधिकार अधिनियम जैसे कानून दिव्यांग व्यक्तियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में बराबरी सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं। इतिहास में, दिव्यांग व्यक्ति अक्सर शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में समान अवसरों से वंचित रहे हैं। इसके मद्देनजर, अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस का महत्व केवल जागरूकता फैलाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नीतिगत बदलावों और कानूनों को लागू करने की दिशा में भी एक प्रेरक शक्ति बन गया है।
भारत में कई राष्ट्रीयकृत बैंक और वित्तीय संस्थान विकलांग व्यक्तियों को ऋण देते हैं। ये ऋण मुख्य रूप से राष्ट्रीय विकलांग वित्त एवं विकास निगम की योजनाओं के तहत दिए जाते हैं और कुछ बैंकों की अपनी विशेष योजनाएं भी हैं जैसे कि बैंक ऑफ इंडिया की स्टार मित्र पर्सनल लोन योजना। भारत में करीब 45 फीसदी दिव्यांगजन लोन लेकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक हिंदुस्तान में करीब 2. 68 करोड़ दिव्यांगजनों की संख्या बताई गई थी जिनमें 1.50 करोड़ पुरुष और 1.18 करोड़ महिलाएं थीं। इनमें अधिकांश करीब एक तिहाई आबादी गांवों में बताई गई। गनीमन ये रही सफल ‘पल्स पोलियो अभियान’ के बाद दिव्यांगों की संख्या एकदम रूक गई। बीते दो दषकों में भारत में सिंगल केस भी सामने नहीं आया। इसे हुकूमत की बड़ी सफलतासओं में गिना जाना चाहिए। वर्ष 2016 से भारत में अक्षम लोगों को नया नाम दिया गया था दिव्यांग।
दिव्यांग दिवस अक्षमों विकलांग के अधिकारों और उनके कल्याण को बढ़ावा देने के अलावा उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों के विषय में जागरूकता बढ़ाता है। 1976 में हुई संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने मिलकर विकलांगजनों के लिए आज का खास दिन मुकर्रर किया था। 2016 में भारत के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने विकलांग शब्द को हटाकर उसकी जगह दिव्यांग कहना प्रचलित करवाया था। तभी से बोलचाल की भाषा में अक्षमों को दिव्यांग कहना शुरू किया गया। वह इसलिए कि इस शब्द में सम्मान का भाव झलकता है। विश्व की बात करें तो विकलांगों की संख्या मामले में लातविया अभी भी अव्वल पायदान पर काबिज है 41.2 आबादी दिव्यांगों की वहां वास करती है। वहीं, दूसरे स्थान फ़िनलैंड हैं जहां 34.9 दिव्यांग रहते हैं। आज का दिन दिव्यांगों के अधिकार, समानता और सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित करने के अलावा समाज में समावेशिता और भेदभाव समाप्त करने की ललक भी पैदा करता है।
देश हो, चाहे विदेश, सरकार केंद्र की हो या राज्यों की सभी को सामुहिक रूप से दिव्यांगों के प्रति लाचारी नहीं, बल्कि उनके मुकम्मल हकों के लिए लड़ना चाहिए। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईराक जैसे मुल्कों में दिव्यांगों के हालात अभी भी बदतर हैं, इसलिए दिव्यांगों के लिए अभी और समावेशी लड़ाई लड़ने की जरूरत है। हालांकि, सरकारी सुविधाओं के मिलने के बाद भारत के ज्यादातर दिव्यांगजन साहस, संकल्प के बूते सफलता के नए आयाम गढ़ रहे हैं। खेलों के विभिन्न मंचों पर पैराआंलंपिक खिलाड़ी वैश्विक स्तर पर स्वर्ण अक्षरों में नया इतिहास लिख रहे हैं।ं प्रसिद्ध दिव्यांग व्यक्तियों में वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग और अल्बर्ट आइंस्टीन, पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंक्लिन डी. रूज़वेल्ट, और भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी इरा सिंघल की कहानी दूसरे दिव्यांगजनों को प्रत्योसाहित करती हैं। इन्होंने अपनी विकलांगताओं पर विजय प्राप्त कर अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण सफलता प्राप्त करके दूसरों को संबल दिया हैं।
डॉ. रमेश ठाकुर