व्यंग्य

बिंदिया के बहाने, कुछ अनकहे अफसाने

मोहन मंगलम

जन्म के साथ ही चलने की क्रिया शुरू हो जाती है। सबसे पहले साँसें चलनी शुरू होती हैं जिसकी सूचना जन्म के साथ ही नवजात के रुदन से उसके अपनों को प्राप्त होती है। फिर शिशु जैसे-जैसे बड़ा होता है, सबसे पहले दोनों हाथों और दोनों पैरों के सहारे धीरे-धीरे घिसट-घिसट कर चलना शुरू करता है। इसके कुछ दिनों बाद वह डग भरने की कोशिश करता है, फिर नाजुक पैरों में दम भरने के साथ ही वह परिवार के बड़े सदस्यों के साथ कदमताल शुरू कर देता है। उम्र और हैसियत के हिसाब से जीवन का सफर साइकिल से लेकर मोटरसाइकिल, कार से होता हुआ हवाई जहाज तक ही नहीं, अंतरिक्ष यान और अब तो चंद्रमा तक भी पहुंच सकता है।

हालांकि जीवन के सफर में सब कुछ मनचाहा कहां हो पाता है? नियति ने जिस प्राणी के प्रारब्ध में जो लिख दिया है, उसे भोगना ही पड़ता है। ऐसे क्षणों में बड़े-बुजुर्गों की कही यह बात बरबस ही याद आती है कि सफर चाहे जीवन का हो या बस या ट्रेन का, जब लय बिगड़ जाती है तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। 

आज बात अभी हाल ही की गई रेल यात्रा की। रेल यात्रा के दौरान खिड़की के बाहर  जहां तरह-तरह के नजारे हमारी आंखों को सम्मोहित करते चलते हैं, वहीं कोच के अंदर हर पल होने वाला अनुभव हमारे जीवन को अपनी तासीर से समृद्ध करता जाता है। तो इस बार भाग्य कहें या संयोग, मोबाइल से आरक्षण कराते समय जब लोअर बर्थ अलॉट हुई तो सफर में अपेक्षाकृत कम परेशानी की उम्मीद जगी मगर निर्धारित तिथि पर जब यात्रा पर रवाना होने के लिए तड़के सुबह ट्रेन में दाखिल हुआ तो मिडिल बर्थ पर अब तक सो रहे सहयात्री की बैठने की इच्छा बलवती हो गई। ऐसे में मुझे नींद से बोझिल अपनी आंखों को समझाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा।  

अस्तु, थोड़ी देर बाद देखा कि मेरी पसंदीदा साइड लोअर बर्थ वाले सहयात्री भी नींद से जगकर बैठ गये हैं तो उनकी इजाजत लेकर मैं भी उनका बगलगीर बन बैठा। इससे मेरे कई स्वार्थ एक साथ सध गये। प्रातः की अरुणिमा धीरे-धीरे अपनी आभा बिखेरने लगी थी, ऐसे में खुली खिड़की से बाहर प्रकृति को निहारने का सुख सहज ही मिलने लगा। मेरे मोबाइल की सांसें भी टूटने ही वाली थीं। यह भी क्या संयोग है कि मोबाइल फोन की कीमत जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, चार्जिंग वाला तार उसी अनुपात में छोटा होता जा रहा है। ऐसे में लोअर बर्थ पर लगे पावर प्वाइंट से मोबाइल चार्ज करना मुश्किल हो जाता। साइड लोअर बर्थ पर आने से यह समस्या भी सहज ही हल हो गई। 

एक दिल, हजार परेशानियां। ट्रेन करीब बारह घंटे लेट हो गई थी, इसके बावजूद मुझे ट्रेन के लेट होने की उतनी चिंता नहीं थी जितनी ट्रेन से उतरने के बाद अनजानी डगर पर होने वाले सफर की फिक्र सता रही थी। मन इसी उहापोह में खोया हुआ था कि अचानक खिड़की की कांच पर चिपकी बिंदिया पर नजर चली गई। अपनी परेशानियों से बेखबर बरबस ही सोचने लगा उस बिंदिया के बारे में। तरह-तरह की कल्पनाएं कुलबुलाने लगीं मन में… न जाने किसी रूपसी ने सास-जेठानी-पति की हजार मन्नतें करके पहले तो हाट-मेला-बाजार जाने की परमिशन ली होगी और फिर कितने जतन से सैकड़ों पत्तों में से छांटकर इस बिंदिया के पत्ते को खरीदा होगा। फिर कितने दिनों की लंबी प्रतीक्षा के बाद इस बिंदिया को चंद्रवदनी ललना के ललाट पर सजने का सौभाग्य मिल पाया हो। या ऐसा भी तो हो सकता है कि किसी आशिक ने अपने दिल में बसी माशूका के चेहरे पर चार चांद लगाने के लिए सबकी नजरें बचाकर यह बिंदिया खरीदी हो और फिर हजार बार इधर-उधर देखने के बाद बिंदिया का यह पत्ता उसे गिफ्ट किया हो। 

यूं तो रामचरितमानस में तुलसी बाबा लिख गये हैं – “मोह न नारि नारी के रूपा” – मगर अपवादस्वरूप पुरुष के प्रेम से अलग महिलाओं का आपस में भी तो प्रेम-संबंध होता है। ऐसे में यह भी संभव है कि किसी भाभी ने दुलारी ननद के लिए बिंदिया खरीदी हो या फिर ननद ने ही अपनी प्यारी भाभी के लिए इसे पसंद किया हो। यह भी संभव है कि कोई सासू मां कभी गंगास्नान के लिए गई हो या फिर किसी तीर्थयात्रा पर तो वहां से प्रसाद के रूप में सौभाग्य के प्रतीक इस बिंदिया को अपनी बहू के लिए खरीदा हो।

इस बिंदिया पुराण में खोया हुआ मैं यह सोचता रहा कि दुकान से निकलने और किसी सुंदरी के माथे पर सजने के बाद आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि वह बिंदिया एक बार फिर ट्रेन के कोच में कांच पर चिपकने के हतभाग्य को प्राप्त हो गई। इसकी वजह खोज पाने में नाकाम रहने के बाद आप पाठकों पर ही यह दायित्व छोड़ रहा हूं।

मोहन मंगलम