भारत में खेलों को लंबे समय तक एक ‘विवेकाधीन क्षेत्र’ के रूप में देखा गया है — यानी एक ऐसी गतिविधि जिसे चाहें तो करें, चाहें तो छोड़ दें। परंतु बदलते वैश्विक परिदृश्य में खेल अब सिर्फ मैदान की बात नहीं रहे। यह स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, सामाजिक एकता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा — सभी से सीधे जुड़े हैं। खेलों को राष्ट्रीय विकासात्मक प्राथमिकता के रूप में मान्यता देना केवल खिलाड़ियों के हित में नहीं, बल्कि राष्ट्र की समग्र प्रगति की शर्त है। अब समय है कि नीति, शासन और समाज — तीनों मिलकर इस परिवर्तन को संस्थागत रूप दें।
— डॉ सत्यवान सौरभ
भारत जैसे विशाल और युवा देश में खेलों की भूमिका केवल मनोरंजन या अवकाश तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। खेल अनुशासन, आत्मविश्वास और सामूहिकता के ऐसे मूल्यों को जन्म देता है जो किसी भी समाज की प्रगति के लिए आवश्यक हैं। दुर्भाग्य से, भारत में खेलों को आज भी “वैकल्पिक” समझा जाता है। बजट में उनका हिस्सा सीमित है, शिक्षा में उनका स्थान गौण है और सरकारी तंत्र में वे अक्सर प्रशासनिक औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। यही कारण है कि खेलों का समग्र विकास एक सशक्त संस्थागत ढाँचे के अभाव में अधूरा रह जाता है।
खेलों को राष्ट्रीय विकासात्मक प्राथमिकता के रूप में मान्यता देने की आवश्यकता केवल पदक जीतने के लिए नहीं, बल्कि उस समग्र मानव विकास के लिए है, जो स्वस्थ, अनुशासित और आत्मनिर्भर समाज की नींव रखता है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में खेलों को प्राथमिकता देने के कई ठोस कारण हैं। सबसे पहले, यह जनस्वास्थ्य और उत्पादकता से जुड़ा है। जीवनशैली-जनित बीमारियाँ जैसे मधुमेह, मोटापा और हृदय रोग आज लाखों लोगों को प्रभावित कर रही हैं। इन पर होने वाला सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय देश की विकास दर को प्रभावित करता है। यदि खेल संस्कृति को प्राथमिकता दी जाए तो नागरिकों की जीवनशैली सुधरेगी, स्वास्थ्य व्यय घटेगा और कार्यक्षमता बढ़ेगी। स्वस्थ जनसंख्या अपने आप में आर्थिक पूंजी होती है।
दूसरा कारण सामाजिक समावेशन और समानता का है। खेल समाज के हर वर्ग को जोड़ने का माध्यम है। जब एक ग्रामीण खिलाड़ी ओलंपिक में पदक जीतता है, तो वह केवल व्यक्तिगत सफलता नहीं बल्कि सामाजिक गतिशीलता का प्रतीक बनता है। खेल जाति, वर्ग, धर्म और भाषा के भेद मिटाकर एक साझा राष्ट्रीय पहचान गढ़ते हैं। यही समावेशी चरित्र उन्हें राष्ट्र निर्माण का उपकरण बनाता है।
तीसरा कारण आर्थिक है। खेल अब एक उद्योग है। कोचिंग, उपकरण निर्माण, आयोजन, मीडिया, टूरिज़्म और फिटनेस जैसे क्षेत्रों में लाखों रोजगार सृजित हो सकते हैं। भारत में खेल उद्योग की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 8–10 प्रतिशत आंकी गई है। यदि इसे प्राथमिकता दी जाए तो यह ‘स्पोर्ट्स इकॉनमी’ राष्ट्रीय सकल उत्पाद (GDP) का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकती है।
खेलों को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाने का चौथा पहलू अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और कूटनीति से जुड़ा है। जब कोई राष्ट्र खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करता है, तो वह न केवल अपने झंडे को ऊँचा करता है बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी सॉफ्ट पावर भी स्थापित करता है। खेल राष्ट्रों के बीच सांस्कृतिक संवाद का माध्यम हैं, और “ओलंपिक डिप्लोमेसी” जैसी अवधारणाएँ इसका सशक्त उदाहरण हैं।
खेलों को विकासात्मक प्राथमिकता में शामिल करने के लिए केवल इरादा पर्याप्त नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार आवश्यक हैं। सबसे पहले, शासन संरचना का पुनर्गठन जरूरी है। राष्ट्रीय खेल नीति को शिक्षा और स्वास्थ्य नीति से जोड़ा जाना चाहिए ताकि खेल एक समग्र मानव विकास नीति का अंग बन सके। एक “नेशनल स्पोर्ट्स मिशन” जैसी संस्था बनाई जा सकती है जो सभी मंत्रालयों — शिक्षा, स्वास्थ्य, युवा एवं खेल, ग्रामीण विकास — के बीच समन्वय स्थापित करे।
दूसरा, वित्तीय प्राथमिकता सुनिश्चित करनी होगी। वर्तमान में खेल बजट GDP का बहुत छोटा हिस्सा है। इसे कम से कम 1 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा जा सकता है। साथ ही, सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से निजी निवेश को आकर्षित करने की आवश्यकता है। कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) के तहत खेलों को अनिवार्य क्षेत्र घोषित किया जाए ताकि निजी क्षेत्र भी खेल विकास में सक्रिय रूप से जुड़ सके।
तीसरा सुधार शिक्षा से जुड़ा होना चाहिए। स्कूल स्तर से ही खेलों को परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन का हिस्सा बनाना चाहिए। प्रत्येक विद्यालय में न्यूनतम खेल सुविधाएँ अनिवार्य हों और खिलाड़ियों को शैक्षणिक अंकों में खेल प्रदर्शन का समुचित मूल्य मिले। प्रशिक्षित खेल शिक्षकों की नियुक्ति और नियमित प्रतियोगिताओं की प्रणाली बनाई जानी चाहिए।
चौथा, प्रतिभा पहचान और प्रशिक्षण की प्रक्रिया को स्थायी बनाया जाए। ‘खेलो इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों को केवल इवेंट तक सीमित न रखकर तकनीक आधारित प्रतिभा पहचान प्रणाली में परिवर्तित करना होगा। प्रत्येक जिले में “स्पोर्ट्स डेवलपमेंट सेंटर” स्थापित किए जाएँ, जहाँ प्रतिभाओं की पहचान, प्रशिक्षण, पोषण और मनोवैज्ञानिक सहायता एक ही स्थान पर उपलब्ध हो। डेटा एनालिटिक्स और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के माध्यम से खिलाड़ियों के प्रदर्शन को ट्रैक किया जा सकता है।
पाँचवाँ, खेल प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही स्थापित करनी होगी। राष्ट्रीय खेल महासंघों और ओलंपिक संघों में राजनीति और पक्षपात की जगह पेशेवर प्रबंधन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। चयन प्रक्रिया पारदर्शी हो, फंड आवंटन की जानकारी सार्वजनिक हो, और खिलाड़ियों को नीति निर्माण में भागीदारी मिले।
छठा, खिलाड़ियों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है। खेलों को करियर के रूप में अपनाने वालों के लिए पेंशन, बीमा और पुनर्वास नीति अनिवार्य होनी चाहिए। खिलाड़ी केवल तब तक सम्मानित नहीं रहें जब तक वे सक्रिय हैं, बल्कि उनके बाद के जीवन के लिए भी सुरक्षित और सम्मानजनक व्यवस्था हो।
सातवाँ, स्थानीय स्तर पर खेल संस्कृति का विकास आवश्यक है। हर पंचायत स्तर पर “खेल विकास निधि” बनाई जाए और पारंपरिक खेलों को संरक्षण दिया जाए। स्थानीय खेल न केवल संस्कृति की धरोहर हैं बल्कि वे ग्रामीण युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं।
आठवाँ, मॉनिटरिंग और मूल्यांकन प्रणाली को मजबूत बनाना होगा। खेल नीति की सफलता को मापने के लिए स्पष्ट मापदंड तय किए जाएँ — जैसे प्रति व्यक्ति खेल भागीदारी दर, फिटनेस इंडेक्स, और अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन में सुधार। यह डेटा सार्वजनिक होना चाहिए ताकि जवाबदेही बनी रहे और नीतियों में समयानुकूल सुधार हो सके।
सबसे बड़ी चुनौती नीति नहीं, दृष्टिकोण की है। जब तक समाज में खेल को “समय की बर्बादी” नहीं बल्कि “जीवन की तैयारी” के रूप में नहीं देखा जाएगा, तब तक परिवर्तन अधूरा रहेगा। माता-पिता, शिक्षकों, मीडिया और नीति निर्माताओं — सभी को यह समझना होगा कि खेल किसी भी बच्चे की संपूर्ण शिक्षा का अभिन्न अंग है। खेल अनुशासन सिखाते हैं, असफलता से जूझना सिखाते हैं, नेतृत्व सिखाते हैं — और ये सभी गुण एक सशक्त नागरिक और सक्षम राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।
भारत ने विज्ञान, अंतरिक्ष और अर्थव्यवस्था में जिस तरह दुनिया में अपनी पहचान बनाई है, अब समय है कि खेलों को भी उसी राष्ट्रीय प्राथमिकता के स्तर पर लाया जाए। यह केवल पदक की दौड़ नहीं, बल्कि देश के भविष्य का निवेश है। खेलों में निवेश का अर्थ है स्वस्थ नागरिक, अनुशासित समाज, समावेशी अर्थव्यवस्था और सम्मानित राष्ट्र। जब नीति, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और समाज — सभी खेलों को विकास की धारा में जोड़ लेंगे, तब “खेलो इंडिया” नारा नहीं रहेगा, बल्कि विकसित भारत का वास्तविक प्रतीक बनेगा।