बंद करो वोट बैंक की राजनीति…..बुद्धिजीवियों जागो

elect1t_fix-1_1220295485_mभारत के संविधान के अनुच्छेद 14 ‘समता के अधिकार’ में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति लिंग, भेद, जाति, धर्म और स्थान के नाम पर किसी व्यक्ति से भेदभाव नहीं रखेगा। बावजूद इसके वर्तमान समय का परिदृश्य सबके सामने है।

भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान दिया गया है किन्तु अलग-अलग स्थानों पर रहने वाले लोग अलग भाषाओं को महत्व देते हैं। असम के बारे में अगर कहे तो पिछले वर्ष उत्तर भारतीयों को वहां से निकाले जाने का मामला प्रकाश में आया था। खासतौर पर बिहार के नाम पर वहां जितने भी बिहारी थे सभी को प्रताड़ित किया जाने लगा ताकि वह स्वयं से असम छोड़ कर चले जाए। अगर इस बात पर ध्यान दे तो एक बात निकल कर सामने आयी कि वहां के स्थानीय यह चाहते थे कि उत्तर भारतीय असम छोड़ कर चले जाए या राजनितिक स्तर पर अगर इसे देखा जाए तो स्थानीय लोगों के वोट बैंक पाने के लिए राजनेताओं द्वार किया गया एक प्रयोग भी कहा जा सकता है। इसी प्रकार से हाल में ही महाराष्ट्र से उत्तर भारतीयों को निकाला जाने लगा था, जिसमें न जाने कितने मासूमों की जाने गयी और जाने कितने घरों में चिराग जलाने वाला ही नहीं बचा। कई घरों की तो यह स्थिति थी कि उनके घर में एक ही कमाने वाला था जिसे भी इस आग में जला कर मार दिया गया और अब उन घरों की स्थिति यह है कि न ही उनके पास खाने को रोटी है और न ही पूरे तन ढ़कने को कपड़े। आतंकवादियों द्वारा की गयी दरिन्दगी तो समझ में आती है कि उनको यही शिक्षा -दीक्षा मिलती है लेकिन भारत में रहने वाले लोग आपस में ही एक दूसरे के प्रति यह व्यवहार अपनाते है समझ से परे है। इस प्रकार से क्षेत्रवाद की बढ़ती जड़ें हमारे देश के अस्तित्व को खतरे में डालती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण बुद्धिजीवियों का अपने घरों से बाहर न आना है। वोट बैंक की इतनी गंदी राजनीति मैंने अपने अब तक के जीवन में नहीं देखा। यह गंदी राजनीति इस देश के लिए आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है क्योंकि कहा जाता है कि ‘घर फुटे तो गवांर लुटे’। जब हम अपना घर ही सुरक्षित नहीं रख पाएंगे तो बाहरी की ताक झाक को कहां से देख पाएंगे।

संविधान निर्माताओं ने बड़े अथक प्रयासों के बाद संविधान के एक एक प्रावधानों को लिखा है लेकिन उनका पालन किस स्तर पर किया जा रहा है वो तो सबके सामने है। राजनीति नामक गंदगी में वोट बैंक नाम का कीड़ा इस देश की जड़ों को अन्दर ही अन्दर खोखला करता जा रहा है और इसका सबसे बड़ा शिकार आम इंसान होता है। इस देश में धर्म और जाति के नाम पर की जाने वाली राजनीति चरम सीमा पर है और इसका सबसे बड़ा कारण बुद्धिजीवियों का शांत हो जाना है। हर बुद्धिजीवी वर्ग अपने ऑखों के सामने सब गलत और सही होते देख रहा है पर वह खामोश है क्योंकि उसे लगता कि वह अकेला क्या कर सकता है? पर शायद वह लोग यह भूल गये है कि इसी तरह एक आदमी ने अकेले ड़ंडे के सहारे इस देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी दिलाने निकल पड़ा था और बाद में पीछे-पीछे उसके सारा देश चल पड़ा था।

मुम्बई में जब बम धमाके हुए तो एक भी युवा घर से निकलकर बाहर नहीं आया और जब अपने ही उत्तर भारतीय भाईयों को महाराष्ट्र से बाहर निकालना था तो युवाओं में काफी जोश भर आया था। हिन्दुत्व की बात करने वाले राजनितिक पार्टियों को भी शायद यह नहीं ज्ञात कि जब मुम्बई से उत्तर भारतीयों को निकाला जा रहा था तो उस समय सबसे अधिक प्रभावित होने वाले उनके ही भाई बन्धु थे। एक तरफ तो यह राजनीतिक पार्टियां जाति और धर्म की बात करती है और दूसरी ओर अपना वोट बैंक बनाने के लिए अपने ही भाई बन्धुओं के खून से होली खेलने में भी संकोच नहीं करते है।

अंत मै बस इतना ही कहना चाहूंगा कि अब भी समय है मेरे युवा भाइयों अब भी चेत जाओ, वरना इस तरह एक दूसरे का खून ही बहता रहेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि यह देश पूरी तरह से खोखला बन जाएंगा। मैं उन बुद्धिजीवीयों को भी यह आग्रह करना चाहूंगा कि अभी भी खामोशी की दीवार तोड़ बाहर आए और अपने विचारों से देश के लिए एक नयी दिशा व मार्ग प्रशस्त करें।

-अमल कुमार श्रीवास्तव

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