खूँटी पर टंगी ज़िन्दगी

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टांग दी जाती हैं

ज़िन्दगियाँ

खूटियों पर

जो गड़ी हैं

भीतर तक

भीत पर।

मुँह अंधेरे ही

निकाल ली जाती हैं

इनके भीतर की मशीनें

और लगा दी जाती हैं

बर्तन मांजने, झाड़ू पोछा

घर आँगन, सहन

लीपने-पोतने में।

मशीनें न आवाज करती हैं

न हँसती हैं

न ही मुस्कराती हैं

चलता रहता है सिलसिला

अन्दर भी, बाहर भी।

इन पर अधिकृत होता है

घर-परिवार की मर्यादा का

भीष्म-प्रतिज्ञा-पेटेन्ट।

खारे समुन्दर सी

अतल गहराइयों वाले दिनों में

घिसते रहते हैं

इनके पुर्जे।

ज्योंहि दिन

बन्द होने को होता है

गूंगी, बहरी, अंधी मशीन

लौट आती है

खेत-खलिहान से।

कायम होता है

रूटीन

रोटियाँ पाथने सेंकने

फुलाने का।

बगल में

चलते हैं संस्कारों के प्रवचन,

उपदेशों के भजन।

रात का

अनिवार्य सन्नाटा

जब लौटता है

दरबे में

मशीनें ठमक जाती हैं

और टुकुर-टुकुर

ताकती हैं

खूँटियों को

जहाँ

जिन्दगी दुबक कर

सांस लेती है।

कभी-कभी

इन्हें उतार लिया जाता है

खूँटियों से।

जब किसी को

गर्म होने

आकार-प्रकार मथने

और भूगोल को

हाथों से मसलने की

जरूरत होती है

जिन्दा हवा के

एक-एक रेशे को

पराजित करने की

तमन्ना होती है।

तब खूँटी से उतर

यदा-कदा

रच लेती हैं

खामोश मातृत्व के

शाश्वत सपने।

और जब

इनका सृजन

पुरुष को पुरुष

दे देता है

फिर इन्हें

टाँग दिया जाता है

खूँटियों पर।

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