सर्जिकल स्ट्राइक, सरकार और सेना

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modiवीरेन्द्र सिंह परिहार

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार 29 सितंबर को भारतीय सेना ने एल.ओ.सी पार कर सर्जिकल स्ट्राइक की, जिसमें पचासों पाकिस्तानी आतंकी मारे गए। बड़ी बात यह है कि सर्जिकल स्ट्राइक पर जानेवाली भारतीय सेना की टुकड़ी बगैर किसी क्षति के भारतीय सीमा पर लौट आई। वस्तुतः जबसे पाकिस्तान ने भारत में आतंकवादियों को भेजकर छद्म युद्ध शुरू किया, तभी से कहीं न कहीं भारतीय जनमानस यह अपेक्शा कर रहा था कि भारतीय सैनिकों को एल.ओ.सी पर कर इन आतंकवादी अड्डों को समाप्त कर देना चाहिए। वर्ष 2002 में भारतीय संसद पर हमलों के वक्त एवं 2008 में मुम्बई में 26/11 के घटना के वक्त यह अपेक्शा बहुत तीव्र हो गई थी। बावजूद इसके तब भी सरकार पाकिस्तान के परमाणु बम से सम्पन्न होने एवं अन्तराष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी। बाद में 16 सितंबर को आतंकी हमले में जब 18 भारतीय सैनिकों की जान चली गई, तब भारत सरकार पर कोई ठोस कार्यवाही के लिए बहुत दबाव ब में आ गया कि पाकिस्तान जैसे गुंडा देश का इलाज न तो कोई बातचीत है, और न कोई सद्भावना का प्रयास ही सार्थक हो सकता है। भारतीय पंरपरा के तहत मोदी सरकार इस दिशा में पर्याप्त प्रयास कर चुकी थी। इस बीच प्रधान मंत्री मोदी पर पर्याप्त निजी हमले भी किए गए। उनके 56 इंच सीने के जुमले को लेकर कहा गया कि, ’’कहाँ गया 56 इंच का सीना’’।
खैर जब उपरोक्त ऐतिहासिक सर्जिकल स्ट्राइक हो गई, जिसके चलते पूरा देश एक नए किस्म के गौरव और मनोबल से भर गया। औसत भारतीय को यह सोचकर बड़ा शुकून मिला कि अब वह मात्र चोट खाने वाला नहीं बल्कि बड़ी चोट पहुॅचाने में सक्षम है महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय सेना के प्रवक्ता ने यह भी कहा कि यह अंतिम नहीं बल्कि शुरूआत है। इससे भारतीय जन मानस को यह आस बंध चली कि अब तक आतंकवाद ने चाहे जितने लाखों-लाख भारतीयों की बलि ली हो, पर वह दिन दूर नहीं कि जब हमारी सेना एन.ओ.सी के पार पीओके स्थित आतंकवादी कैम्पों को पूरी तरह नष्ट कर आतंकवाद से देश को मुक्ति दिला सकेगी।
यह सब तो अपनी जगह पर है निःसंदेश इस घटना का आरम्भ में तो सभी विपक्षी दलों ने स्वागत किया या यों कहें कि स्वागत के लिए बाध्य होना पड़ा। पर शीघ्र ही कुछ दलों को यह समझ में आया कि इससे प्रधानमंत्री का कद बढ़ सकता है, जिससे आने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में फायदा भा.ज.पा. को मिल सकता है। फलतः आप पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल पाकिस्तान पर हुए सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत माॅगने लगे। काॅग्रेस के बड़बोले नेता संजय निरूपम ने तो यहाॅ तक कह दिया कि सियासी फायदे के लिए सर्जिकल स्ट्राइक ठीक नहीं। पूर्व गृह मंत्री चिदम्बरम् ने तो यहाॅ तक कहा कि काॅग्रेस सरकार ने भी सर्जिकल स्ट्राइक की थी, लेकिन इसका प्रचार नहीं किया था। काॅग्रेस पार्टी के युवराज जिन्हें एक बार चिदम्बरम् ने ही महान दार्षनिक घोषित कर दिया था, उन्होंने तो इसको लेकर मोदी पर सैनिकों के खून की दलाली का आरोप लगा दिया।
अब जैसा कि सभी को पता है कि सेना स्वतः इस सर्जिकल स्ट्राइक की सी.डी. सरकार को सौंप चुकी है, पर वह स्वतः इसे प्रगट किए जाने के पक्ष मंे नहीं है, क्यांेकि इससे क्षत्रु को हमारी रणनीति और विषेषताओं का पता चल जाएगा। वेसे भी जहाॅ तक राष्ट्र की सुरक्शा का प्रष्न है, वहाॅ बहुत चीजें प्रगट नहीं की जाती है। जहाॅ तक सियासी फायदे के लिए सर्जिकल स्ट्राइक करने का सवाल है तो संजय निरूपम से यह पूछा जा सकता है कि क्या 1971 में बांग्ला देश का मुक्ति संग्राम उस समय की इंदिरा सरकार द्वारा सियासी फायदे के लिए किया गया था? क्या संजय निरूपम जैसे व्यक्ति यह चाहते है कि देशहित में जरूरी से जरूरी कृत्य भी मोदी सरकार को नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे इसे सियासी फायदा मिल सकता है। पर शायद काॅग्रेस पार्टी का कहना यह है कि ऐसे कदम उठाए तो जाए, पर उसको पता किसी को नहीं लगना चाहिए। जैसे वह अपने सरकार के कार्यकाल मंे तीन सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रही है, पर यह स्पष्ट हो गया है कि वह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं बल्कि आपरेषन थे, जिसका पता उस समय के प्रधान मंत्री तक को नहीं था और यह कार्य सेना के स्तर पर किए गए थे।
ये बाते तो अपनी जगह पर है, विरोधी दलों का ये भी कहना है कि यदि ऐसी कोई सर्जिकल स्ट्राइक हुई है तो इसका श्रेय सरकार को नहीं, बल्कि सेना को जाना चाहिए और सरकार व्यर्थ में ही इसका श्रेय ले रही है। सरकार ने ऐसा कभी कहा भी नहीं कि सर्जिकल स्ट्राइक का श्रेय मात्र सरकार को है, सेना को नहीं। यद्यपि इस विषय में जब बात ज्यादा बुठलाने के साथ क्षुुद्र किस्म की राजनीति का भी परिचायक है।

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