विविधा

जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन्हा तेसी…

-आलोक कुमार-
Swami-Swaroopanand-Saraswati

हाल के दिनों में स्वरूपानन्द जी जैसे आडंबरी धर्माचार्य जैसे बेतुके और द्वेषपूर्ण बयान दे रहे हैं उसे देख कर लगता है कि “फतवे” जारी करने की एक नई परम्परा की शुरुआत हो रही है! आस्था और श्रद्धा तो हमारी संस्कृति और धर्म के मूल में है। हमारे यहां तो कण-कण में भगवान की बात कही गई है, जिसे जिस रूप में भगवान दिखाई देता है उसे उसी रूप में पूजने के लिए वो स्वतन्त्र है। साई पर विवाद अनावश्यक और पूर्वाग्रह से प्रेरित ही प्रतीत होता है, हमारा इतिहास साक्षी है कि हमारे यहां संतों को ‘नारायण’ का दर्जा दिया गया है, पूजा गया है और आज भी पूजा जा रहा है। एक उदाहरण की काफी है… रामकृष्ण परमहंस के लिए समस्त बंगाल व पूर्वी भारत में ‘ठाकुर’ का ही सम्बोधन है। चैतन्य को ‘महाप्रभु चैतन्य’ कहा गया, रविदास को ‘भगवान रविदास’ कहा गया और इन सबसे इतर महान सेनानी बिरसा मुंडा को “भगवान बिरसा मुंडा’ कहा और पूजा गया। हमारे धर्म में जड़ व संकुचित सोच का कोई स्थान नहीं है। इसका सबसे जीवंत उदाहरण अजमेर की सूफी दरगाह पर हिन्दु धर्मानुयाइयों की अटूट श्रद्धा में देखने को मिलता है, असंख्य हिन्दु धर्मावलम्बियों के लिए अजमेर का दर्जा किसी भी पावन हिन्दु तीर्थ से कम नहीं है।

आधुनिक भारत में स्वामी विवेकानन्द से ना तो कोई बड़ा ज्ञानी हुआ ना ही उनके जैसा ‘ओज-तेज” किसी में था और ना ही है, जब उनके जैसे युग-पुरुष ने भी अपने गुरु (रामकृष्ण परमहंस) व अपनी गुरुमाता (मां शारदा) को ‘नारायण’ और “मां सरस्वती” का साक्षात-स्वरूप मान कर पूजा तो अगर भक्त शिरडी के साई में भगवान देख रहा है तो स्वरूपानन्द जी के पेट में बल क्यूं पड़ रहे हैं ? महान संतों की बात तो छोड़ दीजिए हमारे यहां तो जीव-जन्तुओं, प्राकृतिक-स्वरूपों को पूजने की परंपरा और प्रथा रही है और वो आज भी कायम है। हमारे धर्म-ग्रन्थों में तो कुत्ते को भी ‘भैरव (महादेव के शरीर से उत्पन्न अंश)” माना गया है और ऐसी भी मान्यता है कि अगर आप कुत्ते को कुछ खिला रहे हैं तो वो ‘महादेव’ ही ग्रहण कर रहे हैं। अगर आप ‘मछली’ को भोजन दे रहे हैं तो वो ‘विष्णु’ ग्रहण कर रहे हैं। तात्पर्य ये है कि जिस धर्म का स्वरूप इतना विस्तृत व सहिष्णु हो उस के किसी धर्माचार्य, जिसके खुद का आचरण अनेक अवसरों पर धर्म के विपरीत ही रहा हो, का किसी संत की पूजा पर अपने धर्म की मूल -भावना को भूलकर अमर्यादित बयान देना कहीं से भी धर्मोचित नहीं है। अगर किसी को शिर्डी के संत में भगवान दिखता है तो उनका विरोध कर रहे धर्म, आस्था और श्रद्धा की विकृत विवेचना करने वालों को पहले खुद का आत्म-मंथन कर लेना चाहिए। हमारे यहां तो भगवान के लिए शबरी पूज्य हैं और वो उनकी भी वंदना कर उनके जूठे किए हुए बैर खाते हैं, सुदामा की चावल की पोटली देखकर भगवान भाव-विह्वल होते हैं और नंगे पांव दौड़ पड़ते हैं… तात्पर्य ये है कि “जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन्हे तेसी…”