कविता

तड़ी

दिन तो अब लगता नैराश्य
सांझ लग रहा तम सा
खुद की खताओ ने एहसास कराया
सब ख्वाबों को राख कर बिछाया
उर की स्वर बताती मेरे बिसात को
के ,
तुम्हारा वजूद एक राख सा
गुजर गया ओ दौर
जब लगता पल लाख सा
खुद को ढूंढता मैं निकला,
गांव, गली , शहर
सिर्फ़ तड़प, फरेब, हर पहर
अब तो तुम भी मुझे भ्रमित कर रही
मेरे वजूद को दीमक सा खा रही
के ,
कुछ तो रहम करो , मैं खत्म हो जाऊ
उससे पहले तब्दील हो जाओ मुझ फ़कीर में,
और भर दो मेरे जख्मों को, मेरे यातना को
वक्त, मनुष्य , कब तब्दील हो जाए
खुद के स्वार्थ के लिए ये भी एक घड़ी है
ऐसा भी होगा माजरा कौन जानता ?
के , सत्य है , असत्य है , फरेब है ?
ये समय भी लगता एक तड़ी है ,