कविता खानाबदोश October 19, 2014 by एम. अफसर खां सागर | 1 Comment on खानाबदोश सड़क के किनारे, छोटे-छोटे घरौंदों में टिमटिमाती रोशनी के सहारे जीते हैं खानाबदोश न समाज का फिक्र न ही सभ्यता की चाह फकत दो वक़्त की रोटी है इनके जीने की चाह दिन का उजाला हो या रात की तारीकी सब दिन बराबर है इनकी जिन्दगी कहीं संगतराशी तो कहीं बांस की […] Read more » खानाबदोश