कविता मेरी परछाईं ! March 14, 2013 / March 14, 2013 by विजय निकोर | Leave a Comment लगता है यूँ कभी मेरी परिमूढ़ परछाईं मेरी सतही ज़िन्दगी के साथ रह कर अब बहुत तंग आ चुकी है। अनगिन प्रश्न-मुद्राएँ मेरी सिकुड़ कर, सिमट कर पल-पल मेरी परछाईं को आकार देती किसी न किसी बहाने कब से उसको अपने कुहरीले फैलाव में बंदी किए रहती हैं जिसके धुँधलके में वह अब अपना अस्तित्व […] Read more » मेरी परछाईं !