कविता
बिकती वफ़ादारी, लहूलुहान वतन
/ by डॉ. सत्यवान सौरभ
किसने बेची थी, ये हवाओं की खुशबू,किसने कांपती जड़ों में, जहर घोला था,किसने गिरवी रखी थी, मिट्टी की सुगंध,किसने अपने ही आंगन को, लहूलुहान बोला था। तब तलवारें चुप रहीं,घोड़ों ने रासें छोड़ दीं,दरवाजों ने रोशनी सेनज़रें मोड़ लीं। जब जयचंदों ने रिश्तों की ज़मीन बेच दी,मीर जाफरों ने गंगा की लहरें गिरवी रख दीं,तब […]
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