राजनीति

आतंकवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकतावाद: इनके निदान एवं समाधान में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भूमिका

indian_cultural_nationalismविगत कुछ वर्षों में आतंकवादियों ने जिस बड़े पैमाने पर दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, राजस्थान, हैदराबाद, असम और उत्तरप्रदेश में आतंक को अंजाम दिया उससे राष्ट्र के नागरिकों के प्रति सरकार और राजनैतिक दलों की प्रतिबद्वता पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा खौफनाक हमला तो आजादी के तुरंत बाद कश्मीर में कबायली आक्रमण के रूप में हुआ था। विगत कुछ सालों में भारत के विभिन्न शहरों को जिस तरीके से रौंदा है उसने हमारे खुफिया तंत्र, सुरक्षा एजेसियों, और प्रशासननिक प्रबंधों की धज्जियां उड़ा दी हैं। यह दहशत भरा माहौल पूंजीनिवेश के प्रवाह को बाधित करने के साथ-साथ पर्यटन व्यवसाय पर भी बुरा असर डाल सकता है इसका असर तो अभी से नजर आ रहा है। यह सरकार के आतंकवाद से निबटने की इच्छाशक्ति के नाकारेपन को दर्शाता आज तक देश में जितने भी आतंकवादी हमले को अंजाम दिया गया है उसमें स्थानीय सहयोग का प्रभावशाली रूप भी सामने आया है। सवाल आतंकवाद नहीं, उससे लड़ने में सरकारी और राजनीतिक संकल्प के अभाव का है। दो महीने पूर्व बुलाई गई प्रधानमंत्री राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक के एजेंड़ा जो, सभी राज्यों के मुख्यमंत्रीयों को भेजा गया था, में आतंकवाद से लड़ने का उल्लेख तक नहीं था। जब इस पर सरकारी नीयत पर सवाल उठा और काफी हंगामा हुआ तब जाकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसमें संशोधन किया। तमाम मुस्लिम देशों में आतंकवादियों को चौराहे पर लटकाकर फाँसी की सजा दी जाती है तो क्यो अफजल के मामले में कुछ राजनैतिक पार्टियों को वोटबैंक नजर आ रहा है। 13 दिसम्बर 2001 को भारतीय लोकतंत्र की शीर्ष संस्था संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकियों को मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के तहत कार्यवाई नहीं करने का दुष्परिणाम आज हमारे समक्ष है। राष्ट्र की रक्षा में शहीद हुए प्रहरियों का बलिदान ,दलगत राजनीति, क्षेत्रीय व वोटबैंक के क्षुद्र स्वार्थ के भेंट चढ़ गया है, इससे ज्यादा राष्ट्रीय शर्म की बात और क्या हो सकती है।

अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारतवर्ष को पाकिस्तान, अफगानिस्तान, कीनिया, कांगो और सूडान जैसे विफल आतंकग्रस्त राष्ट्रों की श्रेणी मे गिना जाएगा। 

लोकतंत्र की एक बड़ी ही सरल परिभाषा है, जनता (नागरिकों) का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन। यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ आतंकवाद को सख्ती से निबटने के बजाय सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ मजहबी आस्था और घरेलू प्रतिबद्वताओं को ज्यादा महत्व दे रही हैं। आए दिन देश के नागरिकों के खून से धरती माता का सीना छलनी किया जा रहा है तथा सुरक्षाकर्मियों की शहादत को अपमानित किया जा रहा है। सुरक्षाकर्मियों के परिजनों को क्षुब्ध होकर वीरता के अलंकरण लौटाने पर विवश होना पड़ रहा है।

आज राष्ट्र एक मुश्किल मोड़ पर खड़ा है तथा विधटन की आग कोने-कोने में लगी है। जात-पात, क्षेत्रवाद तथा साम्प्रदाय के नाम पर चन्द मुठ्ठी भर तथाकथित राजनेताओं के द्वारा सद्भावना और सौहार्द भरे सम्पूर्ण भारतीय समाज को तोड़ने की साजिश यत्र-तत्र की जा रही है। 

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने गहन अध्ययन एवं मनन् के पष्चात् चार सिद्धांतों – न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बन्धुता – की संरचना की जो हमारे संविधान के आधारभूत स्तंभ हैं। आज ये स्तंभ ही हिलते दिख रहे हैं। बिहारियों का महाराष्ट्र एवं आसाम में दुर्दशा, तथा गुज्जर एवं मीणा जाति का वर्ग विरोध इसके ज्वंलत उदाहरण हैं।

‘समता’ एवं ‘बन्धुता’ जो संविधान के दो अलग-अलग आधारभूत स्तंभ है, आज ध्वस्त हो चुके हैं। समता के अभाव में आज बुध्दिजीवी भारतीय विवश होकर देश से पलायन कर विदेषो की प्रगति में चार चाँद लगा रहे हैं। आज अमेरिका, ब्रिटेन,यूरोप आदि विकसित देषों में उच्च पदो पर तकनीषियन,अर्थशास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों की संख्या में भारतीयों की संख्या अधिकाय है जो भारत में उचित अवसरों एवं सम्मान के अभाव में दूसरे देषों में पलायन कर चुके है। ऐसी अपनी ही दक्षता का उपयोग करने से हमारे राष्ट्र भारत को न जाने क्यों वंचित रखा जा रहा है ? बंधुता या भाईचारा तो पूर्णत: नष्ट हो चुकी है। समाज में वर्ग विभेद की ऐसी आंधी चली है कि लोग एक दूसरे के दुष्मन बन कर खड़े हैं।

सामाजिक न्याय, संप्रदाय एवं क्षेत्र के नाम पर देश की जनता को जात-पात, वर्ग, संप्रदाय एवं क्षेत्र मे विभाजित किया जा रहा है तथा वोट लेने के लिए जनता के इन्हीं वर्गों के बीच आर्थिक एवं राजनैतिक रुप से सम्पन्न व्यक्ति उससे खेल रहे हैं। आज साठ वर्षों मे आरक्षण देने के बावजूद इन वर्गों का उत्थान एवं उपेक्षित प्रगति न के बराबर है। साठ साल पूर्व इन वर्गो के गरीबों का जो प्रतिशत था, वह आज भी उतना ही है।

राष्ट्र समान्यत: राज्य या देश से समझा जाता है। राष्ट्र का एक शाश्वत अथवा जीवंत अर्थ है ‘एक राज्य में बसने वाले समस्त जनसमूह।’ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी शाश्वत अर्थ को दर्शाता है। राष्ट्रवाद राष्ट्र हितों के प्रति समर्पित विचार है, जो एकता, महत्ता और कल्याण का समर्थक है, समस्त भारतीय समुदाय को समता एवं समानता के सिध्दान्तों पर एकीकरण करने का एक सतत् प्रयास है। राष्ट्रवाद समस्त नागरिकों के प्रति समर्पित विचार है जिसमें सवर्ण, दलित, पिछड़े, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब सम्मिलित हैं। नागरिकों को एकता के सूत्र में बाँधने एवं एक दूसरे के प्रति सच्ची श्रद्धा समर्पण ही राष्ट्रवाद है।

राष्ट्रवाद का सीधा संबंध विकास से है जो किसी राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के विकास से परिलक्षित होता है।

विष्व के आठ बड़े विकसित देषों के समूह जी-8 का विचार करे तो इनमें दो ऐसी आर्थिक शक्तियाँ हैं, जिनको भारतवर्ष के साथ ही लगभग स्वतंत्रता मिली (तानाशाहो से)। जापान और जर्मनी ये दोनों देश द्वितीय विश्वयुद्ध में बुरी तरह तबाह हो गये थे। काम करने वाले स्वस्थ लोग कम ही बचे थे, आर्थिक एवं राजनैतिक दबाव से ग्रसीत थे तथा कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। इन राष्ट्रों में एक समानता थी, इन प्रदेशों की जनता में राष्ट्रवाद की भावना कूट- कूट कर भरी हुई थी। मैं जापान का उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहूँगा। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से जापान और भारतवर्ष में काफी समानताएँ हैं तथा जापान नें पौराणिक काल में हिन्दू जीवनदर्षन से बहुत सारी बातें ग्रहण की है। आजादी के वक्त, जापान कीं प्रति किलो मीटर जनसख्या भारतवर्ष से लगभग दूगनी थी। प्राकृतिक, आर्थिक एवं भौतिक संपदा औरं संसाधनों में वे भारतवर्ष की तुलना में काफी कम ताकतवर थे। दोनों ही देश आज विश्‍व के समक्ष आर्थिक शक्ति बन कर उभरें है।

जापानी राष्ट्रवाद का सजग उदाहरण वहाँ के कार्मिकों एवं मजदूर वर्ग के असंतोष व्यक्त करने के तरीके से उजागर होता है। जापानी लोग कभी हड़ताल कर अपने कर्मस्थल में ताला नहीं लगवाते परन्तु वे काला फीता बांध कर विरोध प्रकट करते हैं।माँग पूरी न होने पर वे अपने उच्च अधिकारियों से बातचीत बंद कर देतें हैं, इससे भी बात न बने तो वे अपने कारखानों मे दुगुना तिगुना उत्पाद करने लगते हैं।यहाँ यह बताना आवष्यक है कि उत्पादन दुगनी प्रतिशत में बढ़ने से माल का उत्पादन निम्न स्तर का होता है, कारखानों की चलपूंजी एवं कलपूर्जों का तेजी से ह्रास होता है और बिकवाली पर प्रतिकूल असर पड़ता है और मिल मालिकों की मुश्किलें कई गुना बढ़ जाती हैं। एक मजबूत एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह परम-आवश्‍यक है कि इसके नागरिकों में एकता और सद्भावना हो जिससे उन्हें अपनी मातृभूमि से आत्मिक प्रेम और लगाव की भावना उत्पन्ना हो, जो जापानियों के बीच मैजूद है।

राष्ट्रवाद का सिद्धांत किसी भी वर्ग विशेष की तुष्टीकरण के विरूद्ध है, तथा पूरे राष्ट्र में एक कानून और सामान नागरिक संहिता की वकालत करती है।

संस्कृति से किसी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र, आदि की वे बातें जो उनके मन, रुचि, आचार-विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होती हैं पर विचार होता है। दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है। भारतीय सरकारी राजपत्र (गजट) इतिहास व संस्कृति संस्करण में यह स्पष्ट वर्णन है कि हिन्दुत्व या हिन्दुइज्म एक ही शब्द है, तथा यह भारतवर्ष के कला-कौशल, रुचि, आचार-विचार और सभ्यता का सूचक है।

किसी भी कौम की सस्कृति का विचार ऊपर लिखे हुए तरीके से करते हैं, तथा यह जन्म-मरन , शादी-विवाह एवं त्यौहारों मे झलकता है। अगर हम भारतीय मूल के हिन्दु, मुसलमान और ईसाईयों की संस्कृति की बात करें तो धार्मिक रीति-रिवाजों को छोड़ इन सारे खुषी के मौकों पर साथ-साथ रहते-रहते प्राय: सबने एक-दूसरे के बहुत सारे रीति-रिवाजों, सभ्यता, कार्य-संस्कृति और तौर-तरीकों को ग्रहण किया है तथा उसे अपने व्यवहार और जीवनशैली में सम्मिलित किया। यह इन सारे धर्मो में समान है जो कि अन्य दूसरे देषों की संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। वास्तव में यही धर्मनिरपेक्षता एवं हिन्दू समाज की सभ्यता की तस्वीर है तथा इसे देश- विदेश में हिन्दुत्व या हिन्दुस्तानी सभ्यता या संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यही कारण है कि भारतीय मूल के मुसलमान और ईसाई सम्प्रदाय अपने को अन्य देषों के भाईयों से अलग पाते हैं तथा इस संस्कृति ने उनके हृदय में इस राष्ट्र एवं धरती माँ के प्रति एक असीम प्यार और श्रद्धा की भावना विकसित की है।

भारतीय सस्कृति ने सदियों से इस राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध कर रखा है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति, षिक्षा का विस्तार एवं प्रसार प्राचीन काल में एषिया महाद्वीप के हर कोने में अंकित है। इसमें प्रमुख रूप से चीन, थाइलैंड, मलाया, बर्मा, इन्डोनेशिया, जापान एवं जावा सुमित्रा द्वीप की सभ्यता विचारणीय है। इतिहास गवाह है कि भारतवासियों ने सत्ता का राजनैतिक प्रयास नहीं किया लेकिन भारतीय संस्कृति इतनी विकसित एवं उन्नत थी कि इसका स्वत: विस्तार एवं प्रसार दूर सुदूर पष्चिम देषों तक पाया गया था। इसका उजागर जावा निवासी मुसलमानों, के रामायण तथा महाभारत का विधिवत अध्ययन से होता हैं। वे रामायण और महाभारत हिन्दुओं की तरह सम्मानपूवर्क पढ़ते हैं तथा कुरान को अपना धर्म पुस्तक मानते हैं। यह भारतीय मूल के विदेषी नागरिकों या अप्रवासी भारतियों से पूछने से ज्यादा उजागर होती है।

किसी भी राष्ट्र के एकता के सूत्र में बाँधने में उसके भाषा का अमूल्य स्थान है।हिन्दी जिसमे साहित्यिक दृष्टि से उर्दू भी शामिल है हिन्दुस्तान कि राजभाषा है। हिन्दी और उर्दू भाषा का विकास 13वीं शताब्दी और 14वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। उर्दू और हिन्दी साहित्य का विकास मुगल राज्य के बाजारों, दलानों, आश्रमों तथा अन्य स्थानों में हुआ। दोनों भाषाओं के विकास ने मिलकर एक ऐसा समाँ बाँधा जो इस महान राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति का द्योतक है।

अंग्रेजों हुक्मरानों ने इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बखूबी समझा और इन सम्प्रदायों के बीच फूट डाल कर राज्य करने की परम्परा का श्री गणेश हिन्दुस्तान में किया। आज भी कुछ राजनैतिक पार्टियों द्वारा कोषिश भरपूर जारी है। तुष्टीकरण के नीति के तहत क्षेत्रवाद, जातिवाद, द्विसंस्कृतिवाद, साम्प्रदायिकता , आरक्षण, आदि प्रलोभन रूपी खिलौना थमा कर वे अपनी वोट बैंक की स्वार्थलोलुप राजनीति को सार्थक कर रहे हैं। भारतीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य का मूल मंत्र ‘सर्वे भवन्तू सुखिन: सर्वेसन्तु निरामय:’ का सृजनात्मक अर्थ ही आज राजनैतिक पार्टियों द्वारा भुला दिया गया है। 

भारतीय संस्कृति के एकतारूपी मंत्र से प्रेरित होकर जापान ने राष्ट्रवाद के सिध्दान्त पर अमल करते हुए, मात्र बीस वर्षों में अपने को विकासशील से विकसित देश की श्रेणी मे दुनिया के सामने ला खड़ा किया है। अपने सभी नागरिकों को रोटी , कपड़ा और मकान के अलावा सम्पूर्ण सामाजिक संरक्षण प्रदान किया है जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय तीनों का समावेश है, जबकि हम सामाजिक न्याय रूपी प्रलोभन देकर भी विगत 60 सालों में अपनी जनता को ऐसी एक भी सुविधा की अल्प पूर्ति तक नहीं कर पाए हैं। जबकि भारतीय संस्कृति को स्वार्थ परक नहीं वरन् परमार्थ के गुणों से पूर्ण माना जाता है।

आज प्राय: सभी राजनैतिक पार्टियाँ अपने को राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक होने का दावा पेश करती हैं, परन्तु मुझे लगता है कि उन्हें इसका सही अर्थ नहीं पता है। वोटबैंक की रणनीति के तहत राष्ट्रवाद एव लोकतंत्र की परिभाषाऐं अलग अलग प्रदेषों में भिन्न भिन्न तरीके से परिभाषित की जा रही है। राज ठाकरे जैसे राजनेता ने लोकतंत्र की परिभाषा बदल कर मराठियों का, मराठियों के लिए, मराठियों द्वारा शासन कर दिया हैं। यह क्या हो रहा है, एक ही राष्ट्र में कई राष्ट्र, तो भारतवर्ष के संघीय ढ़ॉचे का क्या होगा?

भारतीय समाज आज भ्रमित और कमजोर, बैध्दिक और राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में है, जहाँ गैर-भारतीयता को सेक्युलरवाद और राजनीतिक सफलता का पैमाना माना जाता है। आज राष्ट्रीयता की विचारधारा को हलके ढ़ग से लेते हुए हिन्दुत्व मूलक समाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा जो वास्तव में भारतीय सनातनी परिकल्पना का आधार है, को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। 

इन सब तथ्यों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहींर् वत्तामान व्यवस्था के लिए हम सभी जिम्मेवार हैं। आज राष्ट्र को आंतकवादी घटनाओं पर लगाम कसने के लिए कड़े कानून के साथ साथ मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। भारतवर्ष और उसके राज्यों की सत्ताा का नेतृत्व कई बार हम ऐसे अनुभवहीन, अयोग्य, उदासीन और निष्ठाहीन असमर्थ राजनेताओं के हाथ लगातार सौप देतें हैं, जिनके पास निकृष्ट स्वार्थ एवं अहं के वशीभूत होकर राष्ट्र को आर्थिक एवं सर्वांगीण विकास को दिशा देने का दूरदर्शिता एवं व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता।

 

आज सांस्कृतिक और सभ्यता मूलक विचार और देशभक्त समाज के कमजोर पड़ने के कारण, राष्ट्र बाह्य एवं आंतरिक आतंकवाद (जो जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं साम्प्रदायिकतावाद से उत्पन्न हुई है) से बुरी तरह झुलस रहा है। राष्ट्र के आर्थिक एवं लोकतांत्रिक विकास की धीमी रफ्तार का निदान एवं उसका समाधान भी कहीं न कहीं राष्ट्रवादी विचारधारा एवं ताकतों के कमजोर पड़ने से जुड़ा हुआ है। आज हम सभी नागरिकों एवं जनप्रतिनिधियों का यह नैतिक, समाजिक एवं मौलिकर् कत्ताव्य है कि हम आपसी भेदभाव को भुलाकर भारतवर्ष में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति जागृत करने का सामूहिक प्रयास करें। इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जागृति से राष्ट्र में शांति एवं व्यवस्था कायम होगी ,जिससे राष्ट्र को एक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित किया जा सकेगा।

राष्ट्र कोई र्निजीव वस्तु नहीं एक शाश्वत आत्मा है।

जिस राष्ट्र की आत्मा सो जाती है, उसकी प्रगति शिथिल पड़ जाती है॥ –

-वी. के. सिंह