शेख हसीना को मौत की सजा
डॉ घनश्याम बादल
भारत के सबसे निकट पड़ोसी बांग्लादेश में एक बार फिर उठा पटक की आहट सुनाई देने लगी है । वैसे तो पिछले वर्ष जुलाई में वहां जिस तरीके से शेख हसीना की सरकार को छात्र आंदोलन के माध्यम से उखाड़ फेंका गया, वह भी अपने आप में हैरतअंगेज था । लगभग 15 वर्षों से बांग्लादेश पर शासन कर रही बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी और तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार के खिलाफ पहले से ही महंगाई और दूसरी समस्याओं को लेकर काफी असंतोष था लेकिन मुक्ति दाताओं के पोते पोतियो को दिए जाने वाले आरक्षण के खिलाफ मुद्दा बनाकर एक उग्र आंदोलन हुआ जिसे रोकने में शेख हसीना की सरकार नाकामयाब रही और उसकी परणिति 1400 लोगों की मृत्यु के रूप में सामने आई ।
तब भी शेख हसीना की सरकार पर आरोप लगा कि उसने निर्ममतापूर्वक आंदोलन कारियों पर गोलियां चलवाई जिससे अनेक छात्र-छात्राएं एवं निर्दोष लोग मारे गए । हो सकता है शेख हसीना को उस समय लगा हो कि आंदोलन का दमन करके उनकी सरकार सुरक्षित रह जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हालात इतने बिगड़े कि शेख हसीना को न केवल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा बल्कि देश छोड़कर भी भागना पड़ा । वें इन दिनों में भारत में शरणागत हैं।
बांग्लादेश में गठित एक विशेष न्यायिक अधिकरण ने उन्हें आंदोलन को कुचलने एवं मानवता के विरुद्ध अपराध का दोषी बताकर मृत्यु दंड की सजा सुनाई है । उनके साथ-साथ उनके गृहमंत्री असद उज्जमा कमाल को भी फांसी की सजा दी गई है।
वैसे तो किसी देश में ऐसा कुछ घटित होना वहां का आंतरिक मामला है लेकिन यहां एक पेंच विशेष तौर पर फंसता है और वह है शेख हसीना का भारत में शरणागत होना और उनके साथ उनके शासनकाल के दौरान भारत के विशेष और सौहार्दपूर्ण संबंध होना । यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह 1971 में जब पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार वहां के बंगालियों का दमन कर रही थी तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वहां सेना भेज कर शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में बांग्लादेश का निर्माण करवा दिया था लेकिन केवल 4 वर्ष के बाद ही 15 अगस्त 1975 में एक सैन्य तक तख्तापलट में शेख मुजीबुर्रहमान और उनका पूरा परिवार मार दिया गया और सत्ता एक हाथ से दूसरे हाथ में होती हुई अंततः जनरल जियाउर्रहमान के हाथों में आ गई थी जो बाद में एक राजनीतिक पार्टी बीएनपी खड़ी करके लंबे समय तक बांग्लादेश के राष्ट्रपति रहे हालांकि एक राजनीतिक समस्या के हल के लिए चटगांव गए हुए जियाउर्रहमान का भी कत्ल हो गया था, यानी कह सकते हैं कि खून खराबे के साथ सत्ता परिवर्तन बांग्लादेश का एक इतिहास है।
शेख हसीना 1975 में भी इसलिए बच गई थी क्योंकि जब उनके परिवार की हत्या हुई, वे जर्मनी में थी बाद में वह वहां से आकर भारत में रहीं और 1981 में उन्हें बांग्लादेश आवामी लीग का अध्यक्ष चुना गया। शेख हसीना ने लंबे समय तक जियाउर्रहमान और उनकी सरकार से लोहा लिया और आखिरकार 1996 में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं लेकिन 2001 में उन्हें जियाउर्रहमान की बेगम खालिदा जिया ने चुनाव में परास्त कर सत्ता से बाहर कर दिया और वह 2001 तक वहां की प्रधानमंत्री रहीं लेकिन कुशल और व्यावहारिक राजनीतिज्ञ तथा जीवट वाली महिला के तौर पर शेख हसीना को जब ज़रूरत पड़ी तो वे खालिदा जिया के साथ भी मिलकर वहां की सरकारों से लड़ी किंतु दोनों में संबंध सांप नेवले जैसा ही रहा।
एक परिपक्व राजनीतिज्ञ के तौर पर शेख हसीना 2009 में फिर सत्ता में लौटी और उठा पटकों के बीच 2024 तक सत्ता में आती जाती रहीं । फिर वह सब घटनाक्रम हुआ जब उन्हें बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा।
शेख हसीना सरकार के पतन के बाद वहां नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के हाथों में अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में सत्ता है । उनकी सरकार का दायित्व था कि फरवरी 2026 तक वे बांग्लादेश को एक निर्वाचित सरकार दे देंगे और आंदोलन में मासूमों के हत्या की दोषी लोगों को सजा भी दिलवाएंगे । कहने को यूनुस गैर राजनीतिक व्यक्ति हैं लेकिन सत्ता में बैठा हुआ व्यक्ति बिना राजनीति के रह नहीं सकता इसलिए उन्हें भी जनता को यह दिखाना है कि उन्होंने जन भावनाओं के अनुरूप दोषियों को उनकी नियति तक पहुंचा दिया है।
शेख हसीना को मृत्यु दंड सुनाने वाली विशेष न्यायाधिकरण में इस सुनवाई का टेलीविजन पर प्रसारण यह बताता है कि यह केवल न्याय की बात नहीं अपितु राजनीति का भी बड़ा खेल है।
जहां यूनुस की सरकार जनता को यह संदेश देना चाहती है कि उसने बिना डरे और झुके हुए आंदोलन के मृतकों को न्याय दिलवाया है। वहीं उनकी कोशिश यह भी हो सकती है कि शेख हसीना और उनकी पार्टी 2026 में होने वाले चुनाव में भाग ही न ले पाएं या उनकी हालत इतनी ख़राब कर दी जाए कि वह सत्ता में न लौट सकें । जहां न्यायाधिकरण कहता है कि उसके पास शेख हसीना और असद उज्जमा कमाल को फांसी की सजा दिए जाने के पीछे उपलब्ध ऑडियो, वीडियो आदि हैं, वहीं शेख हसीना ने इस निर्णय पर प्रतिक्रिया में कहा कि उन्हें अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया गया और एक अलोकतांत्रिक तरीके से थोपी गई सरकार और उसके पिट्ठू के रूप में वहां के न्यायाधिकरण ने पहले से ही तय गए निर्णय को सुनाया है। वहीं सरकार और न्यायाधिकरण का कहना है कि शेख हसीना ने सुनवाई के लिए उपस्थित होने से ही मना कर दिया था ।
ख़ैर सियासत में प्रतिशोध केवल बांग्लादेश में ही नहीं, कई देशों में लिया जाता रहा है पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देश तो इसके ज्वलंत उदाहरण हैं लेकिन अब यहां पर मुख्य मुद्दा यह है कि निर्णय के तुरंत बाद बांग्लादेश की सरकार ने शेख हसीना को प्रत्यर्पण संधि का हवाला देते हुए बांग्लादेश को सौंप देने का आग्रह भारत की सरकार से किया है ।
अब गेंद भारत सरकार के पाले में है एक और जहां भारत का नैतिक समर्थन शेख हसीना के प्रति है वहीं बांग्लादेश के साथ भी हमारे पुराने राजनयिक संबंध है. यदि उन्हें सरकार को सौंप दिया जाता है तो इससे भारत की शरणागत को रक्षा देने की संस्कृति पर बड़ा सवाल खड़ा होगा लेकिन यदि भारत मना करता है तो अंतरराष्ट्रीय कानून भारत के ख़िलाफ़ जाएगा और दोनों देशों के बीच संबंध खराब होंगे जो पहले से भी बहुत अच्छे नहीं है । इसका असर भारत की आंतरिक एवं अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर पड़ेगा । अब देखें कि भारत सरकार इस पशोपेश की स्थिति में किस कूटनीति का इस्तेमाल करती है और उसके परिणाम आने वाले समय में क्या निकलते हैं।