आर्थिकी

एयरलाइन बिज़नेस कठिन है नई एयरलाइंस से पहले पुरानी बचाना ज़रूरी


पंकज जायसवाल

आज सामने जो इंडिगो संकट दिखाई दे रहा है, वह न तो अचानक पैदा हुआ है और न ही इसे अप्रत्याशित कहा जा सकता है। सच यह है कि यदि यह आज नहीं तो कल सामने आना ही था। आज इस अव्यवस्था का भार इंडिगो के कंधों पर है लेकिन मौजूदा संरचना में कल यह संकट किसी और एयरलाइन के कंधों पर भी आ सकता है। यह घटना दरअसल किसी एक कंपनी की विफलता नहीं बल्कि पूरे भारतीय एविएशन इकोसिस्टम की संरचनात्मक कमजोरियों की ओर इशारा करती है।



इन हालातों में अक्सर कहा जाता है कि देश में चार पाँच बड़ी एयरलाइंस होनी चाहिए ताकि प्रतिस्पर्धा बनी रहे और उपभोक्ताओं को विकल्प मिलें। यह तर्क सुनने में आकर्षक लगता है लेकिन असली सवाल है कि आख़िर ये नई एयरलाइंस आएँगी कैसे? एयरलाइन कोई सामान्य या कम-जोखिम वाला व्यवसाय नहीं है जिसे कोई भी उद्यमी सोचकर तुरंत शुरू कर दे। यह अत्यंत जटिल, पूंजी-प्रधान, उच्च जोखिम और दुनिया के सबसे अधिक विनियमित उद्योगों में से एक है।


एयरलाइन शुरू करने के लिए केवल विमान खरीदना या लीज़ पर लेना ही पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए स्लॉट्स, एयरपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रशिक्षित पायलट और क्रू, मेंटेनेंस इंजीनियर, DGCA से लगातार अनुमतियाँ, विदेशी मुद्रा जोखिम प्रबंधन, ईंधन मूल्य अस्थिरता, बीमा, और अंतरराष्ट्रीय मानकों का अनुपालन यह सब एक साथ संभालना पड़ता है। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर भी एयरलाइन उद्योग का दिवालियापन दर या फेलियर रेट अन्य उद्योगों की तुलना में कहीं ज्यादा  है।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि क्यों बड़े औद्योगिक घराने भी एविएशन से कतराते हैं ! एयरलाइन व्यवसाय में कदम रखने से पहले केवल पूंजी नहीं बल्कि असाधारण साहस, धैर्य और दीर्घकालिक दृष्टि की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि आज भी भारत के कई बड़े और स्थापित औद्योगिक समूह जो ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर, मैन्युफैक्चरिंग या डिजिटल बिज़नेस में अग्रणी हैं एविएशन सेक्टर में प्रवेश करने से बचते हैं। यह स्वयं इस बात का प्रमाण है कि एयरलाइन बिज़नेस को अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक जोखिमपूर्ण और अनिश्चित माना जाता है।

टाटा समूह का एविएशन में उतरना भी केवल एक व्यावसायिक निर्णय नहीं था। एयर इंडिया से जुड़ा एक ऐतिहासिक और भावनात्मक संबंध इसमें प्रमुख कारण रहा। इसके बावजूद, आज वही समूह इस उद्योग की तमाम जटिलताओं उच्च लागत, लेगेसी मुद्दे, श्रम प्रबंधन और वैश्विक प्रतिस्पर्धा से लगातार जूझता नज़र आ रहा है। यह बताने के लिए पर्याप्त है कि एविएशन में उतरना जितना सम्मानजनक दिखता है, उतना ही चुनौतीपूर्ण और धैर्य-साध्य भी है। सरकार ने भी एयरलाइन्स चलाई है. उसे खुद मालूम है इसे चलाना कितना कठिन है.

आज नई एयरलाइन्स को आने में वक़्त लगेगा. किसी  भी नई एयरलाइन्स को अपना फ्लीट बनाने में भी वक़्त लगता है. जहाज कार के शो रूम की तरह नहीं बिकता. पहले से एडवांस आर्डर देना पड़ता है. आज की स्थिति ये है कि बोइंग और एयरबस के पहले से ही आगे के ५ साल के ऑर्डर बुक हैं. उनके आर्डर बुक भरे हुए हैं.  ऐसी स्थिति में सरकार, नागरिक उड्डयन मंत्रालय और बैंकों के सामने सबसे अहम सवाल यह होना चाहिए कि जो एयरलाइंस पहले से है, उन्हें कैसे स्थिर, सुरक्षित और व्यावहारिक रूप से टिकाऊ बनाया रक्खा जाए। एयरलाइन व्यवसाय रातों-रात खड़ा नहीं किया जा सकता। जिस तरह एक पायलट तैयार करने में 5–7 वर्ष लगते हैं और उसके लिए निश्चित प्रशिक्षण, चेक और लाइसेंसिंग प्रक्रिया अनिवार्य होती है, उसी तरह एक एयरलाइन का निर्माण और संचालन उससे भी कहीं अधिक समय, पूंजी और संस्थागत समझ मांगता है। वास्तव में देखा जाए, तो एयरलाइन शुरू करने का निर्णय पायलट तैयार करने से भी अधिक कठिन और दीर्घकालिक होता है। यदि सरकार इस वास्तविकता को स्वीकार कर नीति बनाए तो एविएशन सेक्टर अधिक स्थिर, प्रतिस्पर्धी और टिकाऊ बन सकता है।

यह सेक्टर डंडे से नहीं, संवेदनशीलता से चलने वाला सेक्टर है. यहां रेसिलिएंस रहना होगा लेकिन इन शर्तों के साथ  सेवा चलती रहे. आज आवश्यकता इस बात की है कि एयरलाइंस के साथ दंडात्मक दृष्टिकोण अपनाने के बजाय सुधारात्मक और संरक्षणात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाए। कोई भी एयरलाइन यदि वित्तीय संकट में है लेकिन उसने कोई आपराधिक, धोखाधड़ी या राष्ट्रविरोधी गतिविधि नहीं की है तो उसे चालू कैसे रक्खा जाय, यह पहला विकल्प होना चाहिए। सरकार के पास यह विकल्प होना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर वह अस्थायी रूप से उस एयरलाइन के प्रबंधन में हस्तक्षेप करे, मैनेजमेंट बदले, ट्रस्टी या प्रोफेशनल मैनेजमेंट बैठाए और यह सुनिश्चित करे कि देश में हवाई सेवाएँ निर्बाध रूप से चलती रहें। इससे न केवल यात्रियों और देश को राहत मिलेगी, बल्कि हजारों कर्मचारियों की आजीविका भी सुरक्षित रहेगी और पूरे एविएशन नेटवर्क में डोमिनो इफेक्ट से बचा जा सकेगा।

सरकार के पास उदाहरण हैं और उसे अन्य क्षेत्रों से सीख लेने की ज़रूरत है. जब ग्रेटर नोएडा और अन्य क्षेत्रों में रियल एस्टेट प्रोजेक्ट वर्षों तक अधर में लटके रहे और आम जनता का पैसा फँस गया, तब सरकार ने हाथ पर हाथ रखकर बैठने का रास्ता नहीं चुना। उत्तर प्रदेश सरकार, नोएडा प्राधिकरण और केंद्र सरकार ने मिलकर NBCC जैसी संस्थाओं को आगे किया और प्रोजेक्ट पूरे कराए। सरकार ने समाधान चुना, पलायन नहीं। ठीक यही दृष्टिकोण एविएशन सेक्टर में भी अपनाने की आवश्यकता है। आज हवाई सेवा कोई विलासिता नहीं रही बल्कि व्यापार, स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन और प्रशासन हर स्तर पर एक आवश्यक सेवा बन चुकी है। ऐसे में क्या सरकार किसी बिजली वितरण कंपनी या जल आपूर्ति कंपनी को बिना वैकल्पिक व्यवस्था बनाए रातों-रात बंद होने दे सकती है? नहीं। तो फिर एयरलाइंस को लेकर यह कठोरता क्यों?

यदि सरकार और बैंक समय रहते संवेदनशील रवैया अपनाते तो शायद भारत का एविएशन परिदृश्य आज कहीं अधिक विविध और स्वस्थ होता। एयर डेक्कन, जेट एयरवेज, किंगफिशर, गो फर्स्ट, एयर सहारा, पैरामाउंट, ट्रूजेट इनमें से अधिकांश एयरलाइंस की समस्या मूलतः वित्तीय संकट और नकदी प्रवाह से जुड़ी थी न कि किसी आपराधिक कदाचार से। यदि बैंकों ने समय पर पुनर्गठन पैकज, प्रबंधन परिवर्तन, शेयरहोल्डिंग फ्रीज़ या प्लेज, और नियंत्रित राहत पैकेज जैसे उपाय अपनाए होते, तो संभव है कि ये एयरलाइंस आज किसी न किसी रूप में सेवाएँ दे रही होतीं। वे पूंजी का उपयोग विमान संचालन में ही कर रही थीं और बदले में देश की आवश्यक हवाई सेवा को बनाए हुए थीं लेकिन बैंकों और तंत्र द्वारा अपनाया गया अत्यधिक कठोर और कागजी रवैया इनके अस्तित्व के लिए घातक सिद्ध हुआ।

इसकी जिम्मेदारी कठोर संस्थागत संस्कृति पर भी है जो एविएशन समेत उद्योगों के लिए दीर्घकालिक खतरा बन सकता है. भारत की एक गंभीर संस्थागत समस्या यह है कि सरकारी तंत्र और बैंकों में निर्णय लेने वाला अधिकारी किसी भी प्रकार की रियायत या लचीलापन दिखाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने से बचता है। नौकरी की असुरक्षा और जांच का डर अधिकारी को सबसे कठोर विकल्प चुनने के लिए प्रेरित करता है भले ही उससे वह उद्योग या कंपनी बंद हो जाए. रियायत का फैसला या फेवर जैसे इल्जाम मेरे सिर न आए”, यह सोच दीर्घकाल में उद्योग, रोजगार और अर्थव्यवस्था तीनों को नुकसान पहुँचाती है।

अंत में लब्बोलुबाब यही है कि इंडिगो संकट कोई एक एयरलाइन की समस्या नहीं, बल्कि पूरे भारतीय एविएशन सेक्टर के लिए चेतावनी है। यदि इससे सबक लेकर सरकार, मंत्रालय और बैंक क्रिटिकल उद्योगों के प्रति अधिक संवेदनशील, प्रोफेशनल और समाधान-केन्द्रित दृष्टिकोण नहीं अपनाते तो ऐसे संकट बार-बार दोहराए जाते रहेंगे। एविएशन जैसे रणनीतिक और आवश्यक उद्योग को शुद्ध नौकरशाही सोच और कठोर बैंकिंग दृष्टिकोण से नहीं चलाया जा सकता। यहाँ नीति, व्यावहारिकता और राष्ट्रीय हित, तीनों के बीच संतुलन ही टिकाऊ समाधान है।

पंकज जायसवाल