कविता

रिश्तों की रणभूमि

लहू बहाया मैदानों में,
जीत के ताज सिर पर सजाए,
हर युद्ध से निकला विजेता,
पर अपनों में खुद को हारता पाए।

कंधों पर था भार दुनिया का,
पर घर की बातों ने झुका दिया,
जिसे बाहरी शोर न तोड़ सका,
उसी को अपनों के मौन ने रुला दिया।

सम्मान मिला दरबारों में,
पर अपमान मिला दालानों में,
जहां प्यार होना चाहिए था,
मिला सवालों की दीवारों में।

माँ की नज़रों में मौन था,
पिता के लबों पर सिकुड़न,
भाई की बातों में व्यंग्य था,
बहन की चुप्पी बनी चोट की धुन।

जो रिश्ते थे आत्मा के निकट,
वही बन गए आज दुश्मन से कठिन,
हर जीत अब बोझ लगती है,
जब घर की हार आंखों में छिन।

दुनिया जीतना आसान था,
पर अपनों को समझना मुश्किल,
जहां तर्क थम जाते हैं,
वहीं भावना बनती है असली शस्त्रधार।

कभी वक़्त निकाल कर बैठो,
उनके पास जो चुपचाप रोते हैं,
क्योंकि दुनिया नहीं,
परिवार ही असली रणभूमि होता है।

— डॉ सत्यवान सौरभ