उपेक्षा और संवेदना के बीच बुजुर्गों की स्थिति

भारतीय समाज की रीति-नीति और सांस्कृतिक परंपराओं में बुजुर्गों का स्थान हमेशा से उच्च माना गया है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” की भाँति ही हमारी संस्कृति में यह भी विश्वास किया गया कि बुजुर्गों के आशीर्वाद से घर-परिवार की उन्नति होती है। यही कारण है कि सदियों तक संयुक्त परिवार की परंपरा ने समाज में बुजुर्गों को सम्मान, स्नेह और सुरक्षा प्रदान की। परंतु आधुनिकता की आँधी और बदलते सामाजिक समीकरणों ने इस संतुलन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है।

आज का चित्रण यह है कि अनेक बुजुर्ग उपेक्षा, मानसिक यातना और अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। आये दिन समाचारों में यह सुनने को मिलता है कि बेटे-बहुएँ अपने माता-पिता को घर से निकाल देते हैं या वृद्धाश्रम भेजने के लिए विवश करते हैं। कई मामलों में बुजुर्गों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार की घटनाएँ भी सामने आती हैं। यह स्थिति न केवल चिंताजनक है बल्कि समाज की नैतिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।

लेकिन यह भी सच है कि हर कहानी केवल अंधकारमय नहीं होती। भारतीय परिवार व्यवस्था में आज भी बड़ी संख्या में श्रवण कुमार जैसे पुत्र और ममता से भरी बहुएँ हैं, जो अपने बुजुर्ग माता-पिता और सास-ससुर की सेवा को ही अपने धर्म और कर्तव्य का हिस्सा मानती हैं। बहुत-से घरों में बहुएँ तन-मन से सेवा करती हैं, यहाँ तक कि बुजुर्गों का मल-मूत्र साफ करने से भी नहीं हिचकिचातीं। यह दृश्य भले ही कम चर्चित हों, परंतु यह भारतीय समाज के उज्ज्वल पक्ष की सशक्त मिसाल हैं।

लेखक स्वयं एक विधुर बुजुर्ग होने के नाते यह अनुभव साझा कर रहें  हैं कि दो बेटों और बहुओं के रहते हुए भी कभी उपेक्षा का अनुभव नहीं हुआ। बल्कि प्रेम और सहयोग की अनुभूति बनी रही। यह अनुभव इस बात को सिद्ध करता है कि तस्वीर केवल नकारात्मक नहीं है, सकारात्मक उदाहरण भी कम नहीं हैं।

दरअसल, समस्या का मूल यह है कि समाज में नकारात्मक उदाहरण तेजी से चर्चा में आते हैं, जबकि सकारात्मक उदाहरण हाशिये पर रह जाते हैं। यह प्रवृत्ति पीढ़ियों के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी करती है। यदि हम बुजुर्गों और नई पीढ़ी के बीच संतुलित दृष्टिकोण अपनाएँ तो स्थिति कहीं अधिक सुखदायी हो सकती है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि बुजुर्गों को स्वयं भी परिस्थितियों के अनुरूप अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए। अत्यधिक अपेक्षाएँ और कठोर व्यवहार कई बार संबंधों में तनाव का कारण बनते हैं। यदि बुजुर्ग अपनी संतान के साथ संवाद बनाए रखें, उनके जीवन की चुनौतियों को समझें और सहयोगी दृष्टिकोण अपनाएँ तो परिवार में स्नेह और विश्वास बना रह सकता है।

आज की आवश्यकता है कि समाज बुजुर्गों के प्रति केवल संवेदना ही नहीं, बल्कि ठोस व्यवस्था भी सुनिश्चित करे। सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों और योजनाओं का पालन तभी सार्थक होगा, जब परिवार और समाज दोनों मिलकर बुजुर्गों को सम्मानजनक जीवन देने का संकल्प लें। मीडिया और साहित्य को भी चाहिए कि वे न केवल उपेक्षा की घटनाओं को उजागर करें, बल्कि उन प्रेरक कहानियों को भी सामने लाएँ, जहाँ बुजुर्ग परिवार की धुरी बने हुए हैं और संतानें उनकी सेवा में गर्व महसूस करती हैं।

अंततः यह कहना गलत न होगा कि बुजुर्ग किसी बोझ नहीं, बल्कि अनुभव, धैर्य और संस्कारों के जीवंत प्रतीक हैं। उनका सम्मान करना केवल पारिवारिक कर्तव्य ही नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी भी है। यदि हम उपेक्षा के बजाय संवेदना और सहयोग की परंपरा को जीवित रखें तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सशक्त और सुसंस्कृत समाज की नींव रखी जा सकेगी।

बुजुर्गों के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव

1. स्वास्थ्य का ध्यान रखें – नियमित योग, प्राणायाम और संतुलित आहार को दिनचर्या का हिस्सा बनाएं।

2. मानसिक सक्रियता बनाए रखें – किताबें पढ़ें, लिखें, संगीत सुनें और किसी शौक से जुड़े रहें।

3. संवाद कायम रखें – अपने बच्चों व पोते-पोतियों से बातचीत करते रहें, इससे अकेलापन दूर होगा।

4. अपेक्षाएँ संतुलित रखें – अत्यधिक उम्मीदें न पालें, बल्कि परिस्थिति अनुसार सहयोगी रवैया अपनाएँ।

5. सामाजिक जुड़ाव – आस-पड़ोस, मंदिर, सामाजिक संगठनों से जुड़े रहें, इससे जीवन सार्थक और खुशहाल बनेगा।

– सुरेश गोयल धूप वाला 

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