डॉ घनश्याम बादल
इस विधानसभा चुनाव में बिहार ने सारे पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए नीतीश कुमार और भाजपा नीत एनडीए को प्रचंड जीत दिलवाते हुए राजनीति का एक नया मिथ रच बड़ा संदेश दिया है । यह संदेश बहुत साफ है कि यदि आप सरकार में रहकर सचमुच जनकल्याण के कार्य आगे बढ़ाते हैं तो फिर गलतियों के बावजूद जनता आपको सर आंखों पर बिठाती है।
हालांकि पहले दौर के मतदान के बाद ही सर्वेक्षण एजेंटीयों ने राजग की बढ़त की भविष्यवाणी कर दी थी और दूसरे दौर के बंपर मतदान के बाद ज़्यादातर एजेंसियां एनडीए को 130 से 160 सीटें दे रही थी हालांकि तब सर्वेक्षण एजेंसियों के परिणामों पर उंगलियां भी उठाई जा रही थीं लेकिन वास्तविक परिणाम ने जिस तरह राष्ट्रीय जनता दल और सहयोगी दलों के महागठबंधन का सफाया किया है वह हैरतअंगेज है।
राहुल तेजस्वी की जोड़ी, एस आई आर और वोट चोरी के साथ-साथ हर घर को नौकरी, माई बहन मान योजना और रैलियों में उमड़ रही भीड़ तथा तेजस्वी एवं राहुल की हुंकार से माहौल भरमा रहा था कि इस बार एनडीए को बहुमत प्राप्त करना आसान नहीं होगा लेकिन बिहारियों के मन को समझना विशेषज्ञों के भी बस से बाहर की बात रही और अंततः एनडीए प्रचंड बहुत के साथ फिर सत्ता में आ गया है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) ने न सिर्फ सत्ता बरकरार रखी, बल्कि प्रचंड बहुमत के साथ राजनीति-मंच पर नये समीकरण भी गढ़े हैं। इस जीत के पीछे कई कारण हैं। रणनीतिक संयोजन, जातिगत एवं क्षेत्रीय समीकरणों को पहचानना व उसका सही इस्तेमाल करना तथा विपक्षी गठबंधन की कमजोरियों का प्रधानमंत्री मोदी अमित शाह योगीआदित्यनाथ, नीतीश कुमार और उनके सहयोगियों ने जमकर लाभ उठाया। इसी पृष्ठभूमि में प्रशांत किशोर और राहुल गांधी की रणनीतिक विफलता राजग के लिए सफलता का आधार बनी है।
यदि चुनाव से पहले की स्थितियों पर नजर डालें तो पहले से ही एनडीए लीड ले चुका था । उसने प्रत्याशियों की पहले घोषणा की जबकि महागठबंधन के नेता आपस में लड़ते रहे। टकराव तो राजग में भी दिखाई दिया लेकिन सुगठित चुनाव प्रचार,जनता के मन तक पहुंचना, सरकार की उपलब्धियां, शाह-मोदी तथा नीतीश की तिकड़ी के चमत्कार और लालू यादव के जंगल राज की यादों को ताजा करने की कुशल रणनीति ने एनडीए के चमत्कार को नमस्कार करवा दिया।
एन.डी.ए.इस चुनाव में विकास-विचारधारा को मुद्दा बनाकर, “डबल इंजन सरकार” और सुशासन एजेंडे के साथ मैदान में उतरा था और विपक्ष के एम वाई’ (मुसलमान + यादव) के मुकाबले अपने एम वाई ( महिला+युवा) की प्रस्तुति ने इस गठबंधन को व्यापक समर्थन दिया। इसके विपरीत, महागठबंधन ने जातिगत वोट बैंक विशेष रूप से मुस्लिम-यादव और नौकरियों-मुद्दों पर ज़ोर दिया लेकिन यह रणनीति काम नहीं आई।
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने “गाँव-गाँव, मुद्दा-मुद्दा” की पहल की और नौकरियों-माइग्रेशन जैसे विषय उठाये, लेकिन उसका असर सीमित रहा। राहुल गांधी की ओर से “वोट चोरी” व एस आई आर में गड़बड़ी जैसे आरोप लगाए गए, उनकी सभाओं में भीड़ तो उमड़ी लेकिन ‘वोट चोर गद्दी ‘छोड़ की अपील जनादेश में बदल नहीं पायी।
बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण हमेशा निर्णायक रहे हैं। इस बार एन.डी.ए. ने पिछड़ी अति पिछड़ी व अन्य पिछड़ी जातियों दलितों, ओबीसी-गैर-यादवों के हर वर्ग में सेंध लगाने में सफलता प्राप्त की और हर वर्ग से वोट मिलने की वज़ह से ही इतना प्रचंड बहुमत मिलना संभव हो पाया। शुरुआती आंकड़ों के अनुसार अति पिछड़ी एवं पिछड़ी जातियों के करीब 58 % वोट एन.डी.ए. को मिले। वहीं महागठबंधन की अपने परंपरागत मुस्लिम यादव वोट बैंक पर अत्यधिक निर्भरता और अन्य समूहों के जुड़ पाने की विफलता से राजनीतिक रूप से भारी नुकसान हुआ और वह पहले जितनी सीटें भी प्राप्त नहीं कर पाया। महागठबंधन की सफलता में एक बड़ा कारण वहां कांग्रेस का ज़मीनी संगठन ने रहना भी रहा । साथ ही साथ दो साल तक तेजस्वी का नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री के रूप में काम करना और फिर सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना भी भारी पड़ा।
मिथिलांचल, मगध, शिवहर-सीमांचल आदि में एन.डी.ए. को संतुलित आधार मिला। विरोधी गठबंधन मुख्य रूप से एक-दो क्षेत्रीय और जातिगत धड़ों तक सीमित रहा, जिससे उनकी व्यापक पहुँच ढीली पड़ गयी।
इस जीत में नीतीश कुमार का ‘सुशासन बाबू’ का ब्रांड भी महत्वपूर्ण रहा। उनका दल जनता दल यूनाइटेड 80% जीत दर के साथ इस बार पहले से लगभग दुगनी सीटों पर जीता तो भारतीय जनता पार्टी ने 90% का स्ट्राइक रेट पाया। इतना ही नहीं, इस गठबंधन के तीसरे घटक लोक जनशक्ति पार्टी ने भी 19 सीटें जीतकर बड़ा योगदान दिया। विपक्षी महागठबंधन में नेतृत्व का मुख्यमंत्री का चेहरा बने तेजस्वी यादव और कांग्रेस-आरजेडी-साझेदारी में स्पष्ट अभियान-रणनीति की कमी दिखी और कई स्थानों पर फ्रेंडली मुकाबला भी भारी पड़ा । अस्तु, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में एन.डी.ए. की जीत एक रणनीतिक सफलता का पर्याय बनकर सामने आई है जिसमें व्यापक सामाजिक गठबंधन, क्षेत्र-समीकरणों का संतुलन, महिलाओं-युवाओं का सक्रिय हिस्सा और सुशासन-विकास के मुद्दे निर्णायक सिद्ध हुए । इसके विपरीत, महागठबंधन ने अपने परंपरागत वोट बैंक पर बहुत अधिक निर्भरता दिखाई मगर उसमें भी एनडीए को सेंध लगाने से नहीं रोक पाए।
प्रशांत किशोर विधानसभा में सीट जीतने में तो सफल नहीं हुए पर उन्होंने एक लैंड मार्क जरूर स्थापित किया कि अब बिहार की राजनीति अब सिर्फ जातिगत घेराबंदी तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि मुद्दा-आधारित नया वोटर समूह भी अहम होगा। यदि परिणाम पर निगाह डाली जाए तो करीब 50 सीट ऐसी दिखाई देंगी जिनमें हार जीत का अंतर और जन सुराज पार्टी या स्थानीय दलों को मिलने वाली वोट लगभग बराबर रहे यानी इन्होंने यह तय कर दिया कि किसे जिताना है और किसे हराना है।
भले ही एनडीए 2010 के 206 सीटों के निशान को नहीं छू पाया मगर उसने प्रचंड और ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता में वापसी की है । बस, आने वाले दिनों में यह ज़रूर देखने को मिल सकता है कि इस बार भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर भाजपा क्या नीतीश कुमार को पहले की तरह ही मुख्यमंत्री बनाएगी या फिर खुद बीजेपी के किसी नेता को बिहार का नेतृत्व सौंपेगी यह प्रश्न इसलिए भी उठेगा क्योंकि इस बार नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव ज़रूर लड़ा गया लेकिन भी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किए गए थे।
डॉ घनश्याम बादल