डॉ. वन्दना मण्डोर

प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति के लगभग सभी क्षेत्र धार्मिक परम्पराओं से प्रभावित थे। एरण, विदिशा तथा उज्जैन से प्राप्त मुद्राओं पर पाये जाने वाले चिन्ह एवं प्रतीकों के कुछ उद्देश्य, उपयोग व प्रयोजन है। नदियों को वैदिक काल से ही देवत्व प्राप्त हो गया था। रामायण और महाभारत में नदी देवताओं का उल्लेख प्राप्त होता है। नदी देवताओं की स्तुति वैदिक साहित्य में भी मिलती है। मंदिरों के द्वार पर नदियों का अंकन शुभ माना जाता था। इसी विचारधारा के कारण मुद्राओं पर भी नदियाँ अंकित की गई। अनेक सिक्कों पर नदी व पर्वत का अंकन साथ-साथ हुआ है। जल के महत्व ने नदियों के महत्व को स्वतः ही बढ़ाया है फलस्वरूप इसे हम मथुरा, एरण, विदिशा, उज्जैन कौशाम्बी आदि के सिक्कों पर देख सकते हैं।
नदियों को सदैव प्रवाहित रखने, पर्यावरण को स्वच्छ रखने, जल संरक्षण एवं पुनर्भरण के संदेश भी इन प्रतीकों के माध्यम से जनसाधारण तक पहुंचाये गये हैं। प्राचीन समय में जब संचार के साधन आज जितने विकसित नहीं थे तब भी सिक्कों के द्वारा ही सारे संदेश सम्पूर्ण देश में भेजे जाते थे। भारत की मुद्रा प्रणाली उस समय अत्यंत सशक्त थी एवं कश्मीर से कन्याकुमारी तक एवं अफगानिस्थान से आसाम तक संदेश, निर्देश, आदेश आदि राज्यों के द्वारा सिक्कों के माध्यम से किया जाता था। आज भी अधिक अन्न उपजाओं, छोटा परिवार-सूखी परिवार, विश्व बन्धुत्व आदि के संदेश सिक्कों के माध्यम से दिये जा रहे हंै।
इसी पृष्ठभूमि में सिक्कों पर अंकित कतिपय अंकनों को देखने का प्रयास किया जा सकता है। मथुरा के प्राचीनतम स्थानीय सिक्कों पर नारी आकृति के अंकन के नीचे लहरियादार प्राप्त होती है और उसके बीच मछलियों की पांत बनी है। दोनों को एक साथ देखने पर अनुमान होता है कि इन सिक्कों पर अंकित नारी कदाचित नदी देवता होगी। यह अंकन यहां के सभी शासकों के सिक्कों पर प्राप्त होता है। इस कारण इस नदी देवता को यमुना का प्रतीक सहज रूप से कहा जा सकता है। इस सिक्कों पर नारी आकृति के ऊपर उठे दाहिने हाथ में कमल है और बायां हाथ नीचे लटक रहा है। कमलधारिणी होने के कारण विद्वानों ने इसे लक्ष्मी अनुमान किया है। कमलस्थिता नारी आकृति के सम्बन्ध में तो लक्ष्मी होने का अनुमान किया जा सकता है किन्तु कमल लेने मात्र से किसी नारी को लक्ष्मी मानना कठिन है। हाथ में कमल नारी आकृति के संभ्रान्त होने का द्योतक मालूम पड़ता है और साहित्य में इस रूप में इनकी प्रचुर चर्चा प्राप्त होती है। सिक्कों पर लक्ष्मी अतिरिक्त अन्य देवियों को भी कमलहस्ता दिखाया गया है यथा-पंचाल के सिक्कों पर फाल्गुनी, पुष्कलावती के सिक्कों पर वहां की नगर देवता अम्बा। अतः आश्चर्य नहीं मथुरा के शासकों ने यमुना को देवी मानकर अपने सिक्कों पर अंकित किया है।
मथुरा के इन सिक्कों के अतिरिक्त गुप्तकाल से पूर्व नदी देवता की कोई चर्चा प्राप्त नहीं होती। गुप्तकालीन सिक्कों में समुद्रगुप्त के व्याघ्रनिहंता भांति के सिक्कों कें पृष्ठ भाग पर एक नारी आकृति हस्ति मुख मत्स्य पर खड़ी अंकित है। आभूषणों से सुसज्जित इस देवी के बांये हाथ में कमल है और दाहिना हाथ खाली है।
इसी प्रकार का अंकन प्रथम कुमार गुप्त के व्याघ्रनिहंता भांति के सिक्कों पर भी हुआ है। वहां भी देवी मकर पर खड़ी हैं, बांये हाथ में कमल है, दाहिने हाथ में फल का गुच्छा है जिसे वे सम्मुख आसन पर खड़े मयूर को खिला रही है। प्रथम कुमार गुप्त के ही एक खड्ग निहंता के सिक्के पर भी मकर पर खड़ी देवी का अंकन हुआ है। मकर के उठे हुये मुख में नाल सहित कमल है। देवी अपनी दाहिनी हाथ की तर्जनी से किसी अदृश्य वस्तु की ओर संकेत कर रही हैं, बांया हाथ खाली नीचे लटक रहा है, देवी के पीछे छत्र लिये छत्रधारिणी खड़ी हैं। स्मिथ ने समुद्रगुप्त के सिक्के पर अंकित इस देवी को समुद्र देवता वरूण की पत्नी का अनुमान किया है और कहा है कि इस कल्पना को राजा के नाम ‘समुद्र’ से बल मिलता है। उन्होंने विकल्प रूप से यह भी कहा है कि वे रति हो सकती है, क्योंकि उनका वाहन भी मीन अथवा मकर कहा जाता है। एलन ने उन्हें नदी देवता होने का अनुमान किया है और उनकी पहचान गंगा से की है।
अल्तेकर ने स्मिथ के मत का खंडन करते हुए एलन के मत का समर्थन किया है और इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि गंगा और यमुना गुप्त मूर्ति कला में प्रमुख रूप से दिखाई पड़ती है, किन्तु देवी के बांये हाथ के कमल ने उन्हें असमंजस में डाल दिया है, उससे उन्हें उसके लक्ष्मी होने का संदेह होने लगा है। फलतः वे देवी के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ कहने में असमर्थ हैं। परमेश्वरीलाल गुप्त का कहना है कि समुद्रगुप्त के सिक्के पर अंकित नारी को वारूणी, रति अथवा गंगा कुछ भी कहा जा सकता है। उन्हें ने इस और ध्यान आकृष्ट किया है कि देवी का जो अंकन कुमारगुप्त के ही कार्तिकेय भांति के सिक्कों पर अंकित मयूर चुगाते हुए राजा का स्मरण दिलाता है और खड्गनिहंता पर अंकित देवी के पीछे छत्र धारिणी, गुप्त शासकों के छत्र भांति के सिक्कों पर अंकित छत्रधारी राजा की याद दिलाती है। इन तथ्यों के प्रकाश में उनकी धारणा है कि इन सिक्कों पर देवी का अंकन न होकर रानी का अंकन हुआ है।
समुद्रगुप्त के सिक्के पर अंकित देवी के रति होने की स्मिथ की कल्पना स्वतः निस्सार है मीन रति का प्रतीक है, वाहन नहीं। कुमारगुप्त के सिक्कों पर अंकित नारी आकृतियों के सम्बन्ध में परमेश्वरीलाल गुप्त का कथन दृष्टव्य होते हुए भी कोई महत्व नहीं रखता। उनके साथ वाहन रूप मे मकर ही यह कहने के लिये पर्याप्त है कि वे मात्र रानी नहीं है। उन्हें नदी देवता (देवी) के रूप में ही पहचानना अधिक संगत होगा। समुद्र और कुमार गुप्त के इन सिक्कों पर ये देवियाँ किस नदी देवता का प्रतीक है, यह तनिक गंभीर विवेचन की अपेक्षा रखता है।
यह ज्ञातव्य है कि भारतीय कला और ब्राह्यण देव परिवार में नदी देवता (देवी) की कल्पना गुप्तकाल से पूर्व अज्ञात है किन्तु कुमार स्वामी ने नदी देवता के मूल में यक्षियों को देखने का प्रयास किया है। उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि अनेक स्थलों पर यक्ष यक्षियों का जल जंतुओं मकर, जलन्तुरंग जमेल आदि के साथ अंकन किया गया है। इस आधार पर उन्होंने यह भी अनुमान प्रस्तुत किया है कि इन यक्ष यक्षियों का घनिष्ठतम संबंध जीवनदायी जल के साथ रहा है। उन्होंने इस ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है कि इस प्रकार की यक्षियों का अंकन वास्तु के विभिन्न अंगों पर न केवल एकाकी वरन् युग्म रूप में भी पाया जाता है। इस प्रकार के युग्मों का जलेम आदि जन्तुओं के साथ अंकन कंकाली टीला में बहुत हुआ है। कंकाली टीला से प्राप्त तोरण पर मकरवाहिनी शालभंजिका नारियों का अंकन विशेष दृष्टव्य है।
मकर वाहिनी शालभंजिका तोरण से और उत्तर के चन्द्रगुप्त के उदयगिरि गुहा के द्वार विम्ब के आस-पास अंकित हुई। इस काल तक यक्षी के इस रूप में कोई परिवर्तन लक्षित नहीं होता। केवल इतना ही अंतर है कि इनमें मकर का अंकन प्रमुख रूप से हुआ है। इन्हें सामान्यतः लोगों ने गंगा-यमुना पहचानने की चेष्टा की है, पर कुमार स्वामी मानते हंै कि उनके इस प्रकार पहचाने जाने का कोई औचित्य नहीं है। तिगोया के मंदिर द्वार पर भी शालभंजिका का ही अंकन हुआ है पर अन्तर यह है कि वहां दोनों और के वाहनों में एक मकर है और दूसरा कच्छप और उसके बाद के अंकनों में ही वृक्ष का लोप हुआ और यक्षियों ने स्पष्ट रूप से दो भिन्न देवता(देवी) का रूप धारण किया है और वे नदी देवता गंगा और यमुना के रूप में पहचानी गयी। उन्हें गंगा और यमुना के नाम से अभिहित किया गया है और उन्हें क्रमशः मकर और कच्छप आरूढ़ बतलाया गया है।
कुमार स्वामी के अनुसार जलचर वरूण के प्रतीक थे और इसलिये नदियों को वरूण की पत्नी कहा गया है। इस कथन का समर्थन उदयगिरि के वराह गुफा के दोनों ओर अंकित दृश्यों से होता है जिसमें दो नदियाँ बहकर सागर से मिलती दिखाई गयी हैं। सागर में वरूण स्वंय रत्नपात्र लिये खड़े हंै और नदियों में मकर और कच्छप पर घट लिये दो देवियाँ हैं। मकर वाहिनी देवीगंगा और कच्छप वाहिनी देवीयमुना कही जाती है। यह बैजनाथ (कांगड़ा) के वैद्यनाथ मंदिर में अंकित अभिलेख और भेड़ाघाट के अभिलेखों से प्रकट होता है।
अस्तु, समुद्रगुप्त के सिंहनिहंता भांति देवी को लोगों ने मकरासीन कहा अवश्य है, पर उसका आकार और रूप मकर की अपेक्षा मत्स्य के समान है। कला में मकर का जिन रूपों में अंकन हुआ है, उससे यह सर्वथा भिन्न है। अतः एलन के उनके नदी देवता होने की बात स्वीकार करते हुए भी मकर के अभाव में प्रतिमा को लक्षणों के अनुसार गंगा कहना कठिन है। किन्तु मच्छुद्दान जातक में गंगा को नदी देवता के रूप में मत्स्य वर्ग की संरक्षिका बताया गया है। गोपीनाथ राव के अनुसार भी गंगा का वाहन मत्स्य या मकर होना चाहिए।
हो सकता है कि समुद्रगुप्त के समय तक गंगा के मकरवाहिनी रूप में अपना मूर्त रूप धारण न किया हो अतः कालकर ने उसके अंकन में बौद्ध अनुश्रुति से प्रेरणा प्राप्त की हो। यह भी संभव है कि मात्र नदी देवता का अंकन हो, किसी नदी देवता विशेष का नहीं और उस अवस्था में स्मिथ के स्वर में उन्हें वरूण पत्नी कहना अधिक संगत होगा। जिस प्रकार प्रथम कुमारगुप्त ने अपने नाम के अनुरूप अपने एक भांति के सिक्कों पर कुमार (कार्तिकेय) का अंकन किया है, इसी प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने नाम के अनुरूप पत्नी का अंकन किया हो तो आश्चर्य नहीं। अरस्तु, कुमारगुप्त के दोनों भांति के सिक्कों पर देवी मकर वाहिनी है, उनके गंगा होने की कल्पना की जा सकती है। खड्ग निहंता भांति के सिक्कों पर मकर वाहिनी देवी के पार्श्व में छत्रधारिणी, उनके इस पहचान में किसी प्रकार बाधक नहीं है। पटना संग्रहालय में गुप्तोत्तरकाल की उड़ीसा से प्राप्त एक मकरवाहिनी मूर्ति है जिसमें सिक्कों के समान ही देवी के पीछे छत्र लिये छत्रधारिणी खड़ी है।
कुमारगुप्त के व्याघ्र निंहत भांति के सिक्कों पर मकरवाहिनी देवी का मयूर को चुगाते हुए अंकन, उनके गंगा पहचानने में थोड़ी कठिनाई अवश्य उत्पन्न करता है। अतः उन्हें नदी देवता स्वीकार करते हुए इस तथ्य पर ध्यान देना उचित होगा कि मयूर का संबंध सरस्वती के साथ है और सरस्वती स्वयं एक नदी है। संभवतः नदी देवता के रूप में सरस्वती के रूप में पहचानने के लिये मयूर के साथ उसका संबंध कर दिया हो। नदी देवता के रूप में सरस्वती अनजानी नहीं है। एलोरा में गंगा, यमुना और सरस्तवी का अंकन हुआ है। किन्तु उनमें वाहन स्पष्ट नहीं है। भेड़ाघाट के चौंसठ योगिनी मंदिरों में मकर के साथ जाह्नवी (गंगा), कच्छप के साथ यमुना और मयूर के साथ उसका अंकन हुआ है। समुद्रगुप्त के समय तक गंगा का मकरवाहिनी स्वरूप रूढ़ नहीं हुआ था। किन्तु प्रथम कुमार गुप्त के समय तक गंगा का यह स्वरूप रूढ़ होकर विकसित हो गया था। संभवतः उनके समय में सरस्वती की भी नदी देवता के रूप में कल्पना की गयी थी।
वैदिक धर्म में पानी का बहुत महत्व रहा है, और वैदिक साहित्य में आपो देवता (जल देवता) का अनेक स्थलों पर उल्लेख हुआ है। सिक्कों पर धार्मिक भावना एवं जल संरक्षण की पृष्ठभूमि में ही नदी प्रतीकों का अंकन हुआ हो तो आश्चर्य नहीं किन्तु किसी नदी विशेष का कह सकना कठिन ही है। यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि क्षिप्रा, नर्मदा के प्रतीक स्वरूप ही नदी प्रतीकों का अंकन उज्जयिनी महिष्मति के सिक्कों पर किया होगा।