मौलिकता में समायी है सृजन की सुगंध

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बाकी सब शब्दों का आडम्बरी व्यापार

– डॉ. दीपक आचार्य

सृजन अपने आप में विराटकाय और व्यापक अर्थ लिए हुए है। इस शब्द का संबंध मन के विचारों से लेकर सृष्टि के मूर्तमान स्वरूप तक को परिभाषित करने का सामथ्र्य रखता है। यह सृजन जहां है वहाँ सकारात्मक दृष्टिकोण और लोकोन्मुखी कल्याण की मानसिकता के बीज तत्वों का भरपूर समावेश किया हुआ होता है।

दूसरे सारे सृजन को एकतरफ रखकर शब्द सृष्टि के सृजन की ओर गंभीरतापूर्वक चिंतन करें तो हम पाते हैं कि शब्दों की श्रृंखला, समसामयिकता और वैचारिक उपादेयता की प्रभावोत्पादकता तभी असर करती है जबकि शब्दसृजन में किसी प्रकार का बौद्धिक कपट न हो, हृदय से निकलने वाले शुद्ध विचारों, भावों तथा कल्पनाओं को सीधे तौर पर अभिव्यक्ति का रास्ता मिले। इसमें बुद्धि और अहंकार का किसी भी प्रकार का मिश्रण न हो।

शब्दों में जितनी अधिक शुद्धता, मौलिकता और ताजगी का समावेश होगा, उतनी ही शब्दशक्ति और वाक्य सामथ्र्य की गंध तथा प्रभाव परिलक्षित होगा। हृदय के भावों को जहाँ बिना किसी रुकावट के प्रस्फुटित होने या आकार लेने का मार्ग मिलेगा वहाँ इसके भाव हर क्षण मूर्तित प्रतीत होंगे जबकि इसके विपरीत शब्दों का प्राकट्य बौद्धिक और स्वार्थ की छलनी से होकर बाहर आएगा वहाँ पूरी कृत्रिमता और आडम्बर न सिर्फ झलकता है बल्कि अपने पूरे वेग के साथ छलकने भी लगता है क्योंकि इसकी बुनियाद में ही छल-कपट और स्वार्थ के अंश समाहित हो जाते हैं। इसमें फिर न ताजगी होती है, न कोई प्रभाव।

ऎसा सृजन सिर्फ दिखावे भर के लिए होता है और अपने व्यवसायिक हितों की पूर्ति के बाद इसका अस्तित्व गौण होने लगता है। जिस किसी सृजन में मौलिकता न हो, जिसमें स्वार्थ और व्यवसायिक बुद्धि घुस आती है उसमें किसी भी प्रकार की सुगंध की कल्पना नहीं की जा सकती। ऎसा सृजन शब्दों का वह व्यापार है जिसमें प्रभावों और उपादेयता की बजाय मुनाफा देखा जाता है और इस मुनाफे में भी व्यवसाय के सारे सिद्धान्तों की बलि चढ़ी होती है। इसमें न कोई सकारात्मकता है और न ही लक्ष्य।

आजकल ज्यादातर मामलों में वही लिखा जा रहा है जिसका संबंध मौलिकता की बजाय व्यापारी मानसिकता से है। और यही कारण है कि आजकल अधिकांश सृजन कम समय में ही दम तोड़ देता है। न यह कालजयी है, न समाज और देश के लिए उपयोगी। बस सिर्फ लिखना है इसलिए लिखा जा रहा है और लक्ष्य यह कि या तो प्रतिष्ठा मिल जाए या पैसा मिलता रहे।

कई मामलों में पैसा हावी है और यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि लेखन आज बाजारवाद की भेंट चढ़ गया है जहाँ लेखन के प्रभावों और समाज के लिए उत्प्रेरक होने की भूमिका की बजाय व्यवसायिक मनोवृत्ति से सब कुछ हो रहा है। छपने और बोलने के लिए लिखा जा रहा है जहाँ अपना लक्ष्य न इंसान है, न समुदाय, और न ही वह देश, जहाँ की मिट्टी-पानी से हम बने हैं। कुछ लोग आज भी ऎसे जरूर हैं जो समाज और देश के लिए सृजन करते हैं और उनकी रचनाएं कालजयी स्वरूप को प्राप्त कर चुकी हैं। लेकिन अधिकांशतः ऎसा नहीं है, इस सत्य को स्वीकारना पड़ेगा। अपने नाम आलेखों और किताबों का ढेर, अकादमियों और दूसरे ढेर सारे मंचों से पुरस्कार और सम्मान-अभिनंदन, रायल्टी तथा लोकप्रियता पाने के जतन ने सृजन के कालजयी धर्म को समाप्त कर दिया है।

वह जमाना बीत चुका है जिसमें मन-मस्तिष्क के विचारों, परिवेशीय संवेदनाओं और घटनाओं से पर््रेरित होकर मौलिक लेखन का धारदार चलन था जिसमें आडम्बर की तनिक बू नहीं थी। लेकिन अब जो कुछ लिखा और बोला जाने लगा है वह सिर्फ इसलिए कि इसमें हमारा कोई न कोई स्वार्थ पूरा हो रहा है। या तो पैसा दिख रहा है अथवा आत्ममुग्धकारी प्रतिष्ठा।

हम आजकल उस स्थिति में आ गए हैं जहां एक मजूर से कुछ भी करवा लो। प्रलोभन और स्वार्थ की जलेबी दिखा कर किसी से कुछ भी लिखवा लो, खूब सारे तैयार बैठे हैं। फिर इन्टरनेट की दुनिया से सब कुछ मुफत में डाउनलोड करने की विश्वव्यापी सुविधा ने सृजन को नया आकाश दे डाला है। हम वह सब कुछ लिख-बोल सकते हैं जो सामने वाला चाहता है। यही कारण है कि सृजन की गंध गायब है और अब यह जरा भी कालजयी नहीं रहा। यह भी एक धंधा हो गया है। कई सारे लोगों की दुकानदारी ही ऎसे लिखाड़ सर्जक चला रहे हैं।

 

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