राजनीति

बिहार में चुनावी भाषणों का स्तर — उठेगा या और गिरेगा ?

शम्भू शरण सत्यार्थी

कभी राजनीति विचारों का उत्सव हुआ करती थी।

नेताओं के भाषणों में न केवल मत मांगने की भाषा होती थी बल्कि जनता को सोचने, समझने और जागरूक होने का निमंत्रण भी होता था।

वो दौर था जब एक नेता का भाषण लोकशिक्षा का माध्यम होता था

जहाँ नारे नहीं, तर्क गूँजते थे;

जहाँ आवाज़ ऊँची नहीं, विचार ऊँचे होते थे।

आज वही राजनीति, जो समाज को दिशा देती थी, अब मनोरंजन का साधन बन चुकी है।

बिहार की चुनावी ज़मीन, जो कभी राजनीतिक चेतना और विचारधारा का केंद्र हुआ करती थी,

आज शोरगुल, कटाक्ष और सोशल मीडिया की त्वरित तालियों में खो गई है।

 1962 का उदाहरण हमें यह याद दिलाता है कि

राजनीति में असहमति का अर्थ कभी दुश्मनी नहीं था।

जब पंडित नेहरू और डॉ. लोहिया आमने-सामने थे,

तो भी दोनों के भाषणों में सम्मान की भाषा थी।

नेहरू ने कहा था —राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हैं पर यदि कोई मुझसे पूछे कि वोट किसे दूँ तो निस्संदेह मैं लोहिया को ही दूँगा। सोचिए — आज के दौर में ऐसा उदार दृष्टिकोण कितना दुर्लभ है! आज तो राजनीति का अर्थ ही “हम बनाम वो” हो गया है

जहाँ बहस की जगह आरोप हैं और विचारों की जगह शब्दों के वार।

1962 से लेकर अब तक, राजनीति की गंगा में बहुत पानी बह चुका है लेकिन उस पानी के साथ-साथ मर्यादा की धारा भी सूखती चली गई। नेताओं के भाषण अब समाज को जोड़ने के बजाय बाँटने लगे हैं।

जहाँ कभी जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति की बात करते थे, वहीं अब कुछ नेता संपूर्ण चरित्र हनन को राजनीति का शस्त्र बना चुके हैं।

टेलीविज़न और सोशल मीडिया के युग में, भाषण अब विचार नहीं बल्कि प्रदर्शन बन गए हैं। नेता अब जनता से संवाद नहीं करते. वो मंच से ‘कंटेंट’ परोसते हैं जिसे अगले दिन व्हाट्सऐप और ट्विटर पर वायरल किया जा सके।

बिहार कभी समाजवादी चिंतन का केंद्र रहा। लोहिया, जेपी, कर्पूरी ठाकुर और बाद में लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने राजनीति को जनाधिकार की लड़ाई से जोड़ा लेकिन धीरे-धीरे, वही राजनीति वर्गीय चेतना से हटकर वोट की गणित में सिमट गई। अब भाषणों में न नीति बची, न दृष्टि। विकास, शिक्षा, कृषि, रोजगार — ये सब विषय भाषण के शुरुआती पंद्रह सेकंड तक सीमित रहते हैं और फिर शुरू हो जाती है  व्यक्तिगत छींटाकशी, जातीय समीकरण और विरोधी को नीचा दिखाने की होड़।

हम यह नहीं भूल सकते कि राजनीति समाज का दर्पण है। अगर भाषणों का स्तर गिरा है तो उसमें जनता की भी भूमिका है क्योंकि नेता वही बोलता है जो जनता सुनना चाहती है। जब भीड़ ताली उन शब्दों पर बजाती है जिनमें अपशब्द या व्यंग्य होता है

तो नेता उसी दिशा में आगे बढ़ता है। जब जनता को तथ्यों की जगह तुकबंदी पसंद आने लगती है तो राजनीति का संवाद लोकशिक्षा से लोकलुभावन बन जाता है। इसलिए, राजनीति का स्तर तभी उठेगा जब जनता अपनी अपेक्षाओं का स्तर उठाएगी।

मतदाता अगर यह ठान लें कि उन्हें केवल नारे नहीं, काम चाहिए —तो नेता की भाषा अपने आप सुधर जाएगी।

आज के दौर में भाषण का अर्थ ‘सोशल मीडिया क्लिप’ बन गया है। एक मिनट का वायरल वीडियो ही नेता की छवि तय कर देता है। भाषण अब जनसंवाद नहीं, डिजिटल ब्रांडिंग का उपकरण है। अब नेताओं को अपने शब्दों की गहराई से ज़्यादा उसकी “क्लिप वैल्यू” की चिंता होती है। कैसे बोलें कि लोग वीडियो शेयर करें, कैसे कटाक्ष करें कि न्यूज़ चैनल उसे हेडलाइन बना दे। इस चक्कर में भाषा का सौंदर्य, संयम और मर्यादा — सब खो जाते हैं।कभी भारत की राजनीति में वैचारिक गरमाहट हुआ करती थी । समाजवाद, पूंजीवाद, धर्मनिरपेक्षता, ग्रामीण अर्थव्यवस्था —इन पर रात-रात भर बहस होती थी।

अब वही राजनीति मीम्स, जोक और ट्रोलिंग तक सीमित है। राजनीतिक दलों के पास अब न कोई ठोस विचारधारा है, न कोई दीर्घकालिक दृष्टि। हर भाषण बस अगले चुनाव तक टिकने के लिए गढ़ा जाता है।

यह अल्पकालिक दृष्टि ही राजनीति को खोखला बना रही है। फिर भी उम्मीद खत्म नहीं हुई है। बिहार का मतदाता, भले ही गरीबी, बेरोज़गारी और पलायन से जूझ रहा हो पर उसकी राजनीतिक समझ आज भी पूरे देश में मिसाल है। वह नेता की भाषा को केवल सुनता नहीं, परखता भी है। उसके दिल में अभी भी लोहिया और जेपी की चेतना कहीं न कहीं जिंदा है।

अगर आने वाले चुनावों में कोई नेता शालीनता, तर्क और नीति के साथ जनता से बात करेगा तो बिहार का मतदाता उसे ज़रूर सुनेगा  क्योंकि यहाँ जनता भावुक हो सकती है, पर बेवकूफ नहीं। आज वक्त है कि नेता अपने भाषणों को केवल वोट बटोरने का साधन न मानें बल्कि मूल्यों के प्रचार का माध्यम बनाएं। राजनीति का अर्थ विरोधी को नीचा दिखाना नहीं बल्कि अपनी नीति को ऊँचा उठाना होना चाहिए।

यदि नेता अपने भाषणों में —तथ्य रखेंगे,सभ्यता बनाए रखेंगे और युवाओं को प्रेरित करने वाली भाषा अपनाएँगे तो राजनीति फिर उसी ऊँचाई पर पहुँच सकती है जहाँ यह कभी थी। आज का युवा केवल नारे नहीं चाहता। वह जवाब चाहता है, योजना चाहता है, पारदर्शिता चाहता है। उसके सामने आज दुनिया का हर ज्ञान मोबाइल पर है। वह जानता है कि नेता कब झूठ बोल रहा है और कब सच। इसलिए अगर नेता अब भी पुरानी शैली में ‘वादा करो, तालियाँ बजाओ’ वाला खेल खेलते रहेंगे तो नई पीढ़ी उन्हें गंभीरता से नहीं लेगी.

बिहार के चुनाव केवल सीटों की लड़ाई नहीं हैं. यह राजनीति की आत्मा की परीक्षा हैं. यह देखना होगा कि क्या नेता अपनी भाषा में गरिमा, संयम और आदर्श वापस ला पाते हैं या नहीं. अगर यह परिवर्तन हुआ तो यह केवल चुनाव की जीत नहीं बल्कि लोकतंत्र की पुनर्स्थापना होगी क्योंकि लोकतंत्र केवल संस्थानों से नहीं,भाषा और व्यवहार की शालीनता से भी जिंदा रहता है.

बिहार की राजनीति अगर अपनी भाषा सुधार ले तो देश की राजनीति को भी नई दिशा मिल सकती है.

अब देखना यह है —इस चुनाव में राजनीति बोलेगी या राजनीति चीखेगी ? क्या बिहार के मंचों से फिर वही गरिमामयी आवाज़ें उठेंगी जो कभी समाज को जगाती थीं या फिर यह दौर और नीचे गिर जाएगा ?

शम्भू शरण सत्यार्थी