कमलेश पांडेय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में बाद में शामिल किए गए दो शब्दों ‘संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर जारी सियासत के मायने’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को ‘संविधान हत्या दिवस’ के दिन ही हटवाने की जो वकालत की है, उसके राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक मायने तो स्पष्ट हैं, लेकिन उनकी इस साफगोई ने एक बार से इन दोनों विवादास्पद शब्दों से जुड़े सियासी अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है।
ऐसा इसलिए कि उनके दिए गए बयान को लेकर जहां कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के अलावा एनडीए की सहयोगी लोजपा ने भी होसबोले की टिप्पणी की आलोचना की, वहीं भाजपा ने होसबोले का बचाव किया है। एक सवाल कि, क्या आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द वहां बने रहने चाहिए, का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और डॉ. जितेंद्र सिंह ने दोनों शब्दों को हटवाए जाने के विचार का समर्थन किया है।
वहीं, होसबोले की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि “आरएसएस का मुखौटा” “फिर से उतर गया है” और संविधान उन्हें परेशान करता है “क्योंकि यह समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है।” गांधी ने कहा कि, “आरएसएस-बीजेपी” गठबंधन “मनुस्मृति चाहता है” और हाशिए पर पड़े लोगों और गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित करना चाहता है। उन्होंने कहा, “उनका असली एजेंडा संविधान जैसे शक्तिशाली हथियार को उनसे छीनना है।”
वहीं, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने कहा है कि 1949 से ही आरएसएस ने संविधान पर हमला किया है, संविधान का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि संघ के लोगों ने पंडित नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए थे।
वहीं, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा कि, “इन सिद्धांतों को बदनाम करने के लिए आपातकाल लागू करना एक धोखेबाज़ी भरा कदम है, खासकर तब जब आरएसएस ने अपने अस्तित्व के लिए उस समय इंदिरा गांधी सरकार के साथ मिलीभगत की थी… अब उस अवधि का उपयोग संविधान को कमजोर करने के लिए करना सरासर पाखंड और राजनीतिक अवसरवाद को दर्शाता है।”
इस प्रकार जहां कांग्रेस ने कहा कि, “ये बाबा साहेब के संविधान को ख़त्म करने की वो साजिश है, जो आरएसएस-बीजेपी हमेशा से रचती आई है। लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी के नेता खुलकर कह रहे थे कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 से ज्यादा सीटें चाहिए। अब एक बार फिर वे अपनी साजिशों में लग गए हैं लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर इनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी।” उसने साफ कहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच ही संविधान विरोधी है।
वहीं, सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में शामिल लोजपा, राजग की एकमात्र सहयोगी पार्टी है जिसने होसबोले की टिप्पणी पर गठबंधन विचार के विपरीत प्रतिक्रिया दी है। लोजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एके बाजपेयी ने कहा है कि, “अगर यह मुद्दा गठबंधन के सामने लाया जाता है तो हम इसका विरोध करेंगे। हम समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के रक्षक हैं।”
इसके ठीक उलट भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने पिछले सात दशकों में संविधान और उसकी भावना से छेड़छाड़ करने के हर कृत्य के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का आरोप लगाया और कहा कि उसे आपातकाल के लिए माफी मांगनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि, “भाजपा आपातकाल के दौरान कांग्रेस सरकार द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों के घोर उल्लंघन और अत्याचारों का मुद्दा उठाती रही है और कांग्रेस से माफ़ी की मांग करती रही है लेकिन पार्टी माफ़ी मांगने को तैयार नहीं है और इसके बजाय मुद्दे को भटका रही है।”
वहीं, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्पष्ट कहा है कि, “सर्व धर्म समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है। धर्म निरपेक्षता हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इस पर जरूर विचार होना चाहिए कि आपातकाल में जिस धर्म निरपेक्षता शब्द को जोड़ा गया, उसको हटा दिया जाए।” वहीं, समाजवाद पर चौहान ने कहा कि सभी को अपने जैसा मानना भारतीय मूल विचार है। उन्होंने कहा कि यह विश्व एक परिवार है (वसुधैव कुटुम्बकम), यही भारत का मूल विचार है। उन्होंने कहा कि, “यहां समाजवाद की कोई जरूरत नहीं है। हम लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होना चाहिए। इसलिए, समाजवाद शब्द की भी जरूरत नहीं है और देश को निश्चित रूप से इस बारे में सोचना चाहिए।”
वहीं, केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि होसबोले की टिप्पणी पर “कोई दूसरा विचार” किया गया है। उन्होंने कहा, “होसबोले जी ने कहा है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द 42वें संशोधन के बाद हमारी प्रस्तावना में जोड़े गए क्योंकि ये बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा नहीं दिए गए थे।” जबकि डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक का निर्माण किए जाने की ओर इशारा करते हुए सिंह ने कहा, “यदि यह उनकी सोच नहीं थी तो फिर किसी ने किस सोच के साथ इन शब्दों को जोड़ा।”
यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की मांग का समर्थन करती है, सिंह ने कहा, “कौन नहीं करना चाहता? हर सही सोच वाला नागरिक इसका समर्थन करेगा क्योंकि हर कोई जानता है कि वे मूल संविधान दस्तावेज़ का हिस्सा नहीं हैं, जिसे डॉ अंबेडकर और समिति के बाकी सदस्यों ने लिखा था।”
उन्होंने कहा, ‘‘यह भाजपा बनाम गैर-भाजपा का सवाल नहीं है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण का सवाल है।’’
उन्होंने आगे कहा कि आपातकाल कोई अचानक किया गया परिवर्तन नहीं था बल्कि यह कांग्रेस की वैचारिक बुनियाद का परिणाम था। उन्होंने कांग्रेस पर भाई-भतीजावाद, अधिनायकवाद और अवसरवाद में डूबे रहने तथा हमेशा अपने हितों को देश के हितों से ऊपर रखने का आरोप लगाया। वहीं, प्रख्यात लेखिका तवलीन सिंह लिखती हैं कि, “भारतीय संस्कृति का मूल सर्वधर्म समभाव है, न कि धर्म निरपेक्षता। इसलिए आपातकाल के दौरान जोड़े गए धर्म निरपेक्ष शब्द को हटाने पर चर्चा होनी चाहिए।”
बता दें कि दत्तात्रेय होसबाले ने गत संविधान हत्या दिवस के दिन गुरुवार को कहा था कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था। उन्होंने कहा, “आपातकाल के दौरान ही संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए। ये दो शब्द ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं। ये प्रस्तावना में पहले नहीं थे।”
दत्तात्रेय होसबाले ने आगे कहा कि, “बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द कभी नहीं थे। आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, संसद काम नहीं कर रही थी, न्यायपालिका पंगु हो गई थी, विपक्ष जेल यातना सह रहा था, तब ये शब्द जोड़े गए।” यही वजह है कि होसबाले ने दो टूक शब्दों में कहा, “इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए।” स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द हटाने की वकालत की है।
सवाल है कि आखिर संघ इन दो शब्दों को क्यों हटवाना चाहता है और इन्हें लेकर डॉक्टर आंबेडकर का क्या रुख था? तो जवाब होता कि इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’, ये दो शब्द हटाने की मांग की और कांग्रेस से इंदिरा गांधी की सरकार के इमरजेंसी लगाने के फैसले को लेकर माफी मांगने की भी मांग की। उन्होंने कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा कि उस समय जो लोग यह सब कर रहे थे, वह आज संविधान की कॉपी लेकर घूम रहे हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर, इन दोनों शब्दों को लेकर एक नई बहस भी छिड़ गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट की भी इस पर राय आ चुकी है कि संविधान की प्रस्तावना में छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। इसलिए पूरक सवाल अब यह उठाया जा रहा है कि तब आपातकाल के दौरान संविधान के प्रस्तावना में हुए छेड़छाड़ को विलोपित किया जाए। प्रथमदृष्टया यह मांग गलत भी नहीं प्रतीत होता है।
संघ नेता होसबोले ने कहा कि इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या कांग्रेस सरकार की ओर से इमरजेंसी के समय संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे जाने चाहिए या नहीं? उन्होंने इन दोनों शब्दों को हटाने की वकालत की। क्योंकि 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘सॉवरेन सोशलिस्ट सेक्यूलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ शब्द जोड़ा गया था। तब देश में इमरजेंसी लागू थी।
दरअसल, संविधान की प्रस्तावना से ये शब्द हटाने की मांग के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इन्हें तब जोड़ा गया था, जब तानाशाही थी और सरकार की बातें ही कानून थीं। इन शब्दों को संसद में चर्चा कर जोड़े जाने की जगह थोपा गया था। दावे यह भी किए जाते हैं कि सोशलिस्ट देश के रूप में पहचान से पॉलिसी चॉइस सीमित हो जाती है। मसलन, संघ की अगुवाई वाले दक्षिणपंथी सेक्यूलर को भारत की हिंदुत्व की विरासत को नकारने जैसा मानते हैं।
वहीं, देश का एक तबका संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए इन शब्दों का समर्थन भी करता है, जो यह तर्क देते हैं कि इससे भारत की समन्वयकारी संस्कृति स्पष्ट होती और ये शब्द समाज के प्रति सरकार की जिम्मेदारी, आस्था से जुड़े विषयों पर सरकार के न्यूट्रल स्टैंड को भी दर्शाते हैं।
बता दें कि संविधान सभा में सोशलिस्ट और सेक्यूलर पर चर्चा हुई थी? बावजूद इसके सोशलिस्ट और सेक्यूलर संविधान के मूल ड्राफ्ट का अंग नहीं थे। इन शब्दों पर संविधान सभा में भी चर्चा हुई थी, क्योंकि संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। ऐसा करने वाले सदस्यों का मत था कि सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द देश की विचारधारा को प्रदर्शित करेंगे।
उल्लेखनीय है कि संविधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर के टी शाह ने ये शब्द संविधान में शामिल कराने के लिए कई प्रयास किए क्योंकि उनका तर्क था कि सेक्यूलर शब्द से धर्म को लेकर न्यूट्रल रहने की प्रतिबद्धता जाहिर होगी और सोशलिस्ट शब्द आर्थिक असमानता दूर करने का उद्देश्य दर्शाएगा। इसकी प्रकार एचवी कामथ और हसरत मोहानी ने भी प्रोफेसर केटी शाह के तर्क का समर्थन किया था।
हालांकि, संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने संविधान में इन शब्दों को शामिल किए जाने का विरोध किया था क्योंकि वह सोशलिस्ट को एक अस्थायी नीति के रूप में देखते थे, संवैधानिक आदेश के रूप में नहीं। डॉक्टर आंबेडकर का यह स्पष्ट मत था कि ऐसी नीतियों को भविष्य की सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट का स्थायी सिद्धांत के रूप में वर्णन लोकतंत्र के लचीलेपन को कमजोर करेगा।
याद दिला दें कि तब डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, “राज्य की नीति क्या होनी चाहिए…यह ऐसा मामला, जिसे समय और परिस्थितियों के मुताबिक लोगों को खुद तय करना चाहिए। इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता। ऐसा करना लोकतंत्र को नष्ट कर देगा।” तब उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि सोशलिस्ट शब्द संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में पहले से ही शामिल है। इसलिए भी यह संविधान की प्रस्तावना में गैरजरूरी हो जाता है।
उन्होंने प्रोफेसर केटी शाह के जवाब में दो टूक शब्दों में कहा था कि अगर नीति निर्देशक तत्व अपने डायरेक्शन और कंटेंट में समाजवादी नहीं हैं तो यह समझने में विफल हूं कि इससे अधिक सोशलिज्म क्या हो सकता है। उन्होंने कहा था कि ये सोशलिस्ट सिद्धांत पहले से ही हमारे संविधान में शामिल हैं और यह संशोधन स्वीकार करना गैर जरूरी है।
वहीं, बौद्ध धर्म मानने वाले डॉक्टर आंबेडकर का भारत के बहुसांस्कृतिकवाद में भरोसा था और सेक्यूलर को लेकर उनका मत था कि यह शब्द गैर जरूरी है। उनका तर्क था कि संविधान में मौलिक अधिकारों के माध्यम से पहले ही इसकी गारंटी दी जा चुकी है। यह प्रस्तावना के मसौदे में भी पहले से ही निहित है। डॉक्टर आंबेडकर ने सेक्यूलरिज्म की अवधारणा का नहीं, इसके उल्लेख का विरोध किया। उनका मत था कि संविधान की संरचना इस सिद्धांत को बरकरार रखती है और राज्य सभी धर्मों के समान व्यवहार सुनिश्चित करेगा। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि बिना किसी लेबल के किसी के भी साथ भेदभाव न हो।
वहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की इमेज एक कट्टर समाजवादी और सेक्यूलरिज्म के समर्थक नेता की है। उन्होंने सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कहा था कि इसमें उन लोगों की स्वतंत्रता भी शामिल है, जिनका कोई धर्म नहीं है। नेहरू ने भी सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को प्रस्तावना में शामिल किए जाने की पैरवी नहीं की क्योंकि नेहरू का यह मानना था कि संविधान की संरचना हर धर्म के लिए सम्मान के साथ ही कल्याणकारी राज्य सुनिश्चित करती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान निर्माता आंबेडकर और आधुनिक भारत के निर्माता व प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू, दोनों के ही मत इस विषय पर एक समान थे। उन दोनों का ही यह स्पष्ट मत था कि संविधान को रूपरेखा तय करनी चाहिए, निश्चित नीति नहीं। यही वजह है कि जब 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना प्रस्तावना को अंगीकार किया तो फिर सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द प्रस्तावना में क्यों जोड़े गए?
उल्लेखनीय है कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार ने 1976 में संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़े। उनके इस फैसले के पीछे कल्याणकारी राज्य के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को उद्देश्य बताया गया। साथ ही यह तर्क भी दिए गए कि गरीबी हटाओ के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को यह दर्शाता है। तब सरकार की ओर से यह भी कहा गया था कि संविधान के मूल उद्देश्य को दर्शाने, धर्म को लेकर तटस्थ रुख मजबूत करने के लिए सेक्यूलर शब्द जोड़ा गया।
हालांकि, यह संशोधन रेट्रोएक्टिव तरीके से 26 नवंबर 1949 की तारीख से लागू किया गया जिसे बाद में आलोचकों ने चुनौती भी दी। इमरजेंसी के बाद 1977 में चुनाव हुए और जनता पार्टी की सरकार बनी। तब भी परवर्ती सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के कुछ भाग हटा दिए लेकिन सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे गए।
कुछ यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर बलराम सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में पिछले ही साल (2024 में) ही सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने को दी गई चुनौती खारिज कर दी थी। तब सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसमें संसद संशोधन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समय के साथ भारत ने सेक्यूलरिज्म की अपनी व्याख्या का विकास किया है। इसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और ना ही किसी धर्म को दंडित करता है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित हैं।
बता दें कि इससे पहले 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 368 के तहत इसमें भी संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते मूल ढांचे का उल्लंघन न हो। यही वजह है कि केंद्र की सियासत में हिंदूवादी मानी जाने वाली पार्टी बीजेपी के मजबूत उभार के बाद सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को लेकर बहस और तेज हो गई है, जिसकी राजनीति भी समाजवाद के सिद्धांतों पर ही आधारित है।
साल 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना संविधान के प्रस्तावना की एक तस्वीर का इस्तेमाल किया था। तब केंद्रीय मंत्रियों ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि इन शब्दों पर बहस होनी चाहिए। कुछ दक्षिणपंथी विचारक यह तर्क देते हैं कि सेक्यूलर शब्द छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है।
बीजेपी इसे तुष्टिकरण बताती है जबकि कांग्रेस का तर्क है कि यह शब्द समानता और एकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है। यह शब्द संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हैं।
कांग्रेस के नेता यह भी कहते हैं कि संघ और इसके समर्थक सेक्यूलरिज्म को भारत पर हिंदुत्व थोपने के अपने एजेंडे का जवाब मानते हैं। सवाल है कि यदि ऐसा है भी तो उसमें गलत क्या है?
देखा जाए तो ‘भारतीय संसद’ एक ‘सजीव’ संस्था है जबकि ‘भारत का संविधान’ एक ‘निर्जीव’ पुस्तक मात्र ! जैसे वैदिक भारत के नियम कानून संहिता ‘मनुस्मृति’ को भारत का समकालीन एक वर्ग अप्रसांगिक करार दे चुका है, वैसे ही प्रबुद्ध भारत का एक तबका ‘भारत के संविधान’ को देशी-विदेशी षड्यंत्रों का स्रोत/वाहक समझता है। निर्विवाद रूप से इसमें कुछ सच्चाई भी है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह तर्क कि ‘भारत का संविधान’ की मूल आत्मा/प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता है, पूर्वाग्रह प्रेरित दृष्टिकोण है!
चूंकि भारतीय संसद (विधायिका), सुप्रीम कोर्ट (न्यायपालिका), केंद्रीय सचिवालय (कार्यपालिका) और आकाशवाणी/दूरदर्शन (खबरपालिका) की कार्यप्रणाली पर यदि गौर किया जाए तो प्रथम तीन की आंतरिक रस्साकशी और निज श्रेष्ठता बोध ने भारतीय लोकतंत्र का बंटाधार कर दिया है! ये संस्थाएं समग्र लोकहित/राष्ट्रहित को साधने की बजाय वर्ग हित/निज संस्थान समूह हित को साधने का पर्याय बनकर रह गई हैं। भारतीय संविधान और लोकतंत्र की आड़ में इन सबने ऐसे ऐसे ऊलजलूल तर्क गढ़े हैं कि नियम-कानून भी अघोषित पक्षपात को समझकर शरमा रहे होंगे लेकिन इन सबका बाल हठ बदस्तूर जारी है जबकि देश की आजादी वृद्धावस्था में प्रविष्ट हो चुकी है।
एक पत्रकार और बुद्धिजीवी के रूप में जब मैं इनकी सभी गतिविधियों का अवलोकन करता हूँ तो यह स्पष्ट आभास होता है कि ये लोग आम भारतीयों से अलग और अभिजात्य वर्ग बन चुके हैं ! नियम कानून की गलत व्याख्या करके इनलोगों ने अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कर लिया है लेकिन आम आदमी की जिंदगी को इन लोगों ने लगातार असुरक्षित बनाया है। बानगी स्वरूप सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि जाति आधारित आरक्षण की सोच, धर्म आधारित अल्पसंख्यकवाद की समझ, भाषा आधारित क्षेत्रीयता की भावना को इनलोगों ने जिस तरह से बढ़ावा दिया है, उससे भारत और भारतीयता दोनों निरंतर कमजोर हो रही है।
लेकिन कहा जाता है कि ज्यों ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया। लगभग 8 दशकों के भारत के संविधान में हुए 105 से अधिक संशोधन इस बात की चीख-चीख कर गवाही देते हैं। वहीं भारतीय संविधान व नियम कानून से जुड़े ज्वलंत पहलुओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जो दिशा निर्देश आए हैं, वह भी वैचारिक कसौटी पर शतप्रतिशत खरे नहीं उतरते।
सबसे पहले भारत की संसद को यह समझना होगा कि संविधान की नौंवी अनुसूची उनकी सियासी अधिनायकता के अलावा कुछ नहीं है। वहीं सुप्रीम कोर्ट को यह मानना पड़ेगा कि कोई भी नियम कानून शाश्वत सत्य नहीं होगा, जबतक कि वह व्यवहार में ईमानदारी पूर्वक अमल में नहीं लाया जाएगा। इस नजरिए से कार्यपालिका की अधिकांश कड़ियां अविश्वसनीयता के कठघरे में खड़ी हैं। रही बात स्वतंत्र खबरपालिका की, तो देश-काल-पात्र की कसौटी पर सम्पादकीय विवेक का मर जाना आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी है।
यही वजह है कि विधायी विवेक, न्यायिक विवेक और प्रशासनिक विवेक का समुचित पोस्टमार्टम नहीं हुआ और न ही जनमत कायम हो पाया जिसके लिए किसी भी लोकतंत्र में मीडिया को स्वतंत्र बताया जाता है। यक्ष प्रश्न है कि यदि लाखों/करोड़ों की संपत्ति रखने वाले और ऊंचे सरकारी/निजी ओहदे पर बैठे हुए लोग भी यदि दलित, ओबीसी, गरीब सवर्ण हैं और आरक्षण का वंशानुगत लाभ उठा रहे हैं तो फिर तर्क के लिहाज से कहने को कुछ शेष नहीं बच जाता।
इसी प्रकार करोड़ों की आबादी वाले लोग यदि धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक अनुदान मुंह देख देख कर देना यदि वैधानिक है तो फिर संविधान की ऐसी मनमानी व्याख्या करने-करवाने के लिए हमारी संसद व सर्वोच्च न्यायपालिका दोनों समान रूप से दोषी हैं और इनको खुली छूट देने का मतलब भारत और भारतीयता का गला घोंटने जैसा होगा। उसी प्रकार यदि भाषा आधारित क्षेत्रीयता के पैरोकार खुद को राष्ट्र्वादी कहें तो ऐसे ही लोगों और उनके हिमायती दलों ने ही तो भारत की ऐसी दुर्गति करवाई है और आगे अभी बहुत कुछ अशुभ घटित होने की
संभावना प्रबल है।
कमलेश पांडेय