समाज

हर साल दो लाख लोगों के देश की नागरिकता छोड़ने के मायने

राजेश जैन

हर साल लाखों भारतीय अपनी नागरिकता छोड़ रहे हैं। विदेश मंत्रालय ने हाल में संसद को बताया कि पिछले पांच साल में 9 लाख से ज्यादा भारतीयों ने नागरिकता छोड़ दी है। कोविड के बाद 2022 से यह संख्या हर साल 2 लाख के पार पहुंच गई है। 2011 से 2024 के बीच कुल 20.6 लाख भारतीयों ने नागरिकता त्याग दी जिनमें से आधे से ज्यादा सिर्फ पिछले पांच सालों में गए हैं।

देश की नागरिकता छोड़ने वालों के ये आंकड़े केवल संख्या नहीं हैं बल्कि गहरे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संकेत हैं। जब संसद को बताया जाता है कि 2011 से 2024 के बीच 20.6 लाख भारतीय देश से कानूनी रिश्ता तोड़ चुके हैं तो सवाल स्वाभाविक है, आखिर ऐसा क्या बदल गया है? क्या यह महज व्यक्तिगत सुविधा का मामला है जैसा सरकार कहती है या इसके पीछे कहीं ज्यादा गहरी बेचैनी, असंतोष और असुरक्षा छिपी है?

भारत हमेशा से प्रवासियों का देश रहा है। आजादी से पहले मजदूरों का पलायन हुआ, आजादी के बाद डॉक्टर-इंजीनियरों की दूसरी लहर आई और अब जिस दौर में हम हैं, वह ‘सफल लोगों के पलायन’ का दौर है। यह फर्क समझना जरूरी है कि पहले लोग मजबूरी में जाते थे. आज लोग विकल्प होने के बावजूद जा रहे हैं। यही फर्क इस पूरी बहस को गंभीर बनाता है।

कोविड से पहले तक हर साल औसतन सवा लाख लोग नागरिकता छोड़ते थे। 2020 में महामारी और यात्रा प्रतिबंधों के कारण यह संख्या घटकर करीब 85 हजार रह गई लेकिन जैसे ही दुनिया खुली, भारत से बाहर जाने की रफ्तार तेज हो गई। 2022 से हर साल दो लाख से ज्यादा भारतीयों ने विदेशी नागरिकता ले ली। यह केवल नौकरी बदलने या पढ़ाई के लिए जाने का आंकड़ा नहीं है बल्कि भारत के साथ कानूनी और राजनीतिक रिश्ते को खत्म करने का फैसला है।

सरकार का आधिकारिक पक्ष है कि लोग निजी कारणों से जाते हैं। विदेश मंत्रालय के अनुसार ‘पर्सनल कन्वीनियंस’ सबसे बड़ा कारण है और ज्ञान आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था में लोगों का मूव करना स्वाभाविक है। यह बात आंशिक रूप से सही भी है। आज की दुनिया में काम, पूंजी और प्रतिभा सीमाओं में नहीं बंधी लेकिन सवाल यह है कि अगर यह सामान्य प्रक्रिया है तो कोविड के बाद अचानक यह इतनी तेज क्यों हो गई?

इसका एक बड़ा कारण भारत का नागरिकता ढांचा है। भारत दोहरी नागरिकता की अनुमति नहीं देता। नागरिकता कानून, 1955 की धारा 9 साफ कहती है कि विदेशी नागरिकता लेते ही भारतीय नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है, यानी अगर कोई भारतीय अमेरिका, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया में स्थायी रूप से रहना चाहता है, वहां वोट करना चाहता है, सरकारी नौकरी या सामाजिक सुरक्षा चाहता है तो उसे भारतीय नागरिकता छोड़नी ही पड़ेगी।

भारत का ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया (ओसीआई ) कार्ड वीजा- फ्री यात्रा और कुछ आर्थिक अधिकार देता है लेकिन राजनीतिक अधिकार नहीं। वोट देने और चुनाव लड़ने जैसे अधिकार आज भी नागरिकता से ही जुड़े हैं। यही वह बिंदु है जहां ‘पर्सनल कन्वीनियंस’ की कहानी अधूरी लगती है। असल में लोग सिर्फ बेहतर सैलरी या ताकतवर पासपोर्ट के लिए नहीं जा रहे बल्कि स्थिरता, भविष्य की सुरक्षा और सम्मानजनक नागरिक अधिकारों के लिए जा रहे हैं। विदेश में टैक्स ज्यादा हो सकता है, जीवन महंगा हो सकता है, लेकिन वहां नियम ज्यादा स्पष्ट हैं, सिस्टम ज्यादा भरोसेमंद है और भविष्य ज्यादा अनुमानित।

सोशल मीडिया पर अक्सर यह बहस होती है कि जो लोग जाते हैं, वे ‘देश छोड़ने वाले’ हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज देश छोड़ने वालों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्होंने यहीं पढ़ाई की, यहीं कारोबार खड़ा किया, टैक्स दिया और सफलता पाई। मॉर्गन स्टैनली के आंकड़े बताते हैं कि 2014 से अब तक करीब 23 हजार भारतीय मिलियनेयर्स देश छोड़ चुके हैं। यह ब्रेन ड्रेन से आगे की स्थिति है; इसे ‘कैपिटल और कॉन्फिडेंस ड्रेन’ कहा जा सकता है।

लोग कहां जा रहे हैं, यह भी बहुत कुछ बताता है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया- ये चार देश सबसे पसंदीदा हैं। इनके पासपोर्ट ताकतवर हैं, नागरिक अधिकार मजबूत हैं और जीवन की गुणवत्ता अपेक्षाकृत बेहतर है। इन देशों में कानून का शासन, सामाजिक सुरक्षा और संस्थागत स्थिरता लोगों को आकर्षित करती है। भारत से जाने वाला व्यक्ति जानता है कि वहां उसे वोट का अधिकार मिलेगा, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की गारंटी मिलेगी और भविष्य कम अनिश्चित होगा।

इस पूरे विमर्श में एक दिलचस्प विरोधाभास है। भारत खुद को दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था, स्टार्टअप हब और ग्लोबल पावर के रूप में पेश करता है। आंकड़ों में यह दावा गलत भी नहीं है लेकिन उसी भारत से लोग नागरिकता छोड़ रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि भारत में अवसर नहीं हैं बल्कि यह कि अवसरों के साथ अनिश्चितता और संस्थागत कमजोरियां भी मौजूद हैं।

यह भी सच है कि हर प्रवास नकारात्मक नहीं होता। प्रवासी भारतीयों ने भारत की सॉफ्ट पावर बढ़ाई है, रेमिटेंस भेजा है और वैश्विक मंचों पर देश का नाम रोशन किया है लेकिन नागरिकता छोड़ना एक अलग स्तर का फैसला है। यह अस्थायी प्रवास नहीं बल्कि स्थायी अलगाव है। जब कोई नागरिक कहता है कि वह भारतीय पासपोर्ट नहीं चाहता तो यह सिर्फ व्यक्तिगत निर्णय नहीं रहता बल्कि एक सामूहिक संकेत बन जाता है।

सरकार अक्सर कहती है कि ओसीआई कार्ड पर्याप्त सुविधा देता है लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति हमेशा ‘आधा नागरिक’ बनकर रहना चाहता है। वोटिंग का अधिकार सिर्फ चुनाव का मामला नहीं है; यह राजनीतिक भागीदारी और सम्मान का प्रतीक है। जिस देश में आप टैक्स देते हैं, बच्चों को बड़ा करते हैं और भविष्य देखते हैं, वहां अपनी आवाज न होना लोगों को स्वीकार नहीं होता।

इस प्रवृत्ति का एक सामाजिक पहलू भी है। विदेश जाने का ट्रेंड अब सफलता का प्रतीक बनता जा रहा है। अमीर और सफल लोगों का जाना यह संदेश देता है कि असली सुरक्षा और सम्मान देश के बाहर है। यह सोच धीरे-धीरे मध्यम वर्ग और युवा पीढ़ी में भी घर कर रही है। यह मानसिक पलायन, भौतिक पलायन से कहीं ज्यादा खतरनाक है।

कोविड के बाद यह रुझान इसलिए भी बढ़ा क्योंकि महामारी ने सिस्टम की कमजोरियों को उजागर कर दिया। स्वास्थ्य व्यवस्था, प्रशासनिक जवाबदेही और सामाजिक सुरक्षा पर लोगों का भरोसा डगमगाया। जिन्होंने उस दौर में विदेशों में बेहतर प्रबंधन देखा, उनके लिए तुलना और भी तीखी हो गई। यही कारण है कि पोस्ट-कोविड दौर में नागरिकता छोड़ने की संख्या अचानक बढ़ी।

तो सवाल यह नहीं है कि लोग क्यों जा रहे हैं बल्कि यह है कि भारत उन्हें क्यों रोक नहीं पा रहा। क्या दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था अपने ही सबसे सक्षम नागरिकों को भविष्य का भरोसा नहीं दे पा रही? क्या कानून, टैक्स, प्रशासन और संस्थानों की अनिश्चितता ने सफलता को भी असुरक्षित बना दिया है? और क्या भारत अब उस मोड़ पर खड़ा है जहां प्रवासन को ‘व्यक्तिगत पसंद’ कहकर अनदेखा करना खतरनाक हो सकता है?

दोहरी नागरिकता पर बहस, राजनीतिक अधिकारों की सीमाएं, संस्थागत भरोसे की कमी-ये सब अब सैद्धांतिक मुद्दे नहीं रहे। ये रोज़ाना लिए जा रहे फैसलों में बदल चुके हैं। जब अमीर, पढ़े-लिखे और सफल लोग देश छोड़ते हैं तो वे सिर्फ पासपोर्ट नहीं बदलते, वे अपने साथ निवेश, अनुभव, नेतृत्व और भरोसा भी ले जाते हैं। इसका असर अर्थव्यवस्था से आगे जाकर समाज की दिशा पर पड़ता है।

भारत को यह तय करना होगा कि वह प्रवासन को सफलता की अनिवार्य कीमत मानेगा या नीति की विफलता का संकेत क्योंकि कोई भी देश सिर्फ युवाओं की भीड़ से महान नहीं बनता बल्कि उन नागरिकों से बनता है जो यहां रहकर भविष्य गढ़ना चाहते हैं।

राजेश जैन