गरीबी की नई परिभाषा

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रवि शंकर

केन्द्र सरकार ने गरीबी की नई परिभाषा फिर तय की है। योजना आयोग की मानें तो देश की शहरी इलाको में प्रतिदिन 28 रुपये 65 पैसे व ग्रामीण इलाकों में रोज 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं कहा जा सकता। अत्याधिक महंगाई और खाद् पदार्थो की बढ़ती कीमतों के इस दौर में आयोग का यह आंकड़ा चौंकाने वाला है। भले ही आसमान छूती महंगाई में इतनी राशि में एक वक्त का खाना न आता हो, लेकिन योजना आयोग की नजर में इतने रुपये गरीबी दूर करने के लिए काफी है। अगर सीधे शब्दों में इस मायनें को समझने का प्रयास किया जाए तो आयोग ने ये बताने की कोशिश की है कि शहरों में 859 रुपये और गांवो में 672 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति सरकार की नजरों में गरीब नहीं है। गौरतलब है कि पिछले साल भी योजना आयोग ने गरीबी रेखा को परिभाषित करते हुए कहा था कि शहरों में जो व्यक्ति हर महीने 965 रु. मासिक (यानी 32.16 रु. रोज) व गांवों में 781 रु. मासिक (यानी 26.03 रु. रोज) खर्च करता है वो गरीब नहीं माना जाएगा। योजना आयोग की ओर से जारी पिछले पांच साल के तुलनात्मक आंकड़ें कहते हैं कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी 7.3 फीसदी घटी है। रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 में गरीबी का अनुपात 37.2 प्रतिशत था जो 2009-10 में घटकर 29.8 फीसदी हो गया। रिपोर्ट के अनुसार देश में करीब 35 करोड़ लोग गरीब है। जबकि 2004-05 मे यह आंकड़ा 40.72 करोड़ था। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि सरकारी आंकड़ो के हिसाब से अब देश के गांवों में हर तीन में से एक आदमी गरीब है। जबकि शहरों में हालात इससे थोड़े से बेहतर हैं। वहां हर पांच में से एक आदमी गरीब है। ये आंकड़े साल 2011 की जनगणना के नतीजों से भी मेल खाते हैं, जो घर-घर जाकर जमा किए गए थे।

गरीबी के मौजूदा सरकारी अनुमानों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि आयोग ने तेंदुलकर समिति के फार्मूले को आधार बनाकर गरीबी का अनुमान लगाया है। तेंदुलकर समिति ने अपनी गणना के लिए भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर औसत खर्च को आधार बनाया। इस औसत खर्च को पर्याप्त माना गया। जिसका अर्थ है कि सरकार को यह ठीक लगा कि इतनी राशि गरीबों की रोजमर्रा की जिंदगी के लिए काफी है। सच पूछिए तो गरीबी की नया आंकलन एक ऐसी काल्पनिक रेखा है जिसका मकसद गरीबों की वास्तविक संरूया का पता लगा नहीं बल्कि किसी भी तरह से उनकी संरूया को कम से कम करके दिखाना है।

हांलाकि विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े। लेकिन योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इस पर सफाई देते हुए कहा है कि इन आंकड़ों का सरकारी योजना का लाभ उठाने वालों से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि इन सारी कवायद का असल मकसद ये जानना होता है कि गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की जिदंगी में सरकारी योजनाओं का कोई सकारात्मक असर हो रहा है या नहीं। लेकिन योजना आयोग के इस आंकेड़ पर चौतरफा सवाल उठ रहे हैं, योजना आयोग का यह दावा हास्यास्पद है कि मौजूदा आर्थिक नीतियों के कारण गरीबी घटी है। ये दावे आज ही नहीं हो रहे हैं। इंदिरा गांधी के जमाने में भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के जरिए गरीबी हटाने के दावे किए गए। बैंक कर्ज दे रहे थे, लेकिन वह बिचौलियों की जेबों में जा रहा था। परिणामस्वरूप गरीबी हटने की बजाय भ्रष्टाचार के खिलाफ 1974-75 में गुजरात से लेकर बिहार तक सरकार को जन विस्फोट का सामना करना पड़ा। ये आंकड़ेबाजियां महज छलावा के लिए हैं। सच्चाई यह भी है कि जिन आकड़ों को वह अपनी उपलब्धियां मान रही हैं, वे उसकी विफलता के बारे मे भी बताते हैं। भलें ही पांच साल में सरकार ने करीब सात फीसदी की दर से गरीबी हटाई, लेकिल इस बारे में भी चुप्पी साध ली है कि इस दौरान तीन साल आर्थिक विकास दर नौ फीसदी से अधिक होने के बावजूद अनुसूचित जनजातियों की 47.4 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे क्यों है।

वास्तव में सच्चाई यह है कि अपने देश में गरीबों की वास्तविक संरूया के बारे में कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। यही वजह है कि केन्द्र हमेशा से भ्रभ की स्थितियां पैदा करता रहा है। मिसाल के तौर पर नेशनल सैंपल सर्वे आगेनाइजेशन के मुताबिक देश में 60.50 फीसदी, ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार 50 फीसदी, अर्जुन सेन गुप्ता के अनुसार 77 फीसदी, सुरेश तेंदुलकर की अगुवाई वाले विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट के अनुसार 37.2 फीसदी व योजना आयोग के मुताबिक यह संरूया 21.8 से 27.5 प्रतिशत है। वेशक आकलन अलग- अलग हो सकते हैं, किंतु यह समझने के लिए किसी फॉमूले की जरुरत नहीं है कि प्रतिदिन 28.65 तथा 22.42 रुपये से शहरों एंव गांवों में गरिमामय जीवन नहीं जिया जा सकता है। योजना आयोग का उद्देश्य है गरीबी एवं असमानता को कम करना। आजादी के समय देश की आबादी 32 करोड़ थी। अभी उससे कहीं ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की है, जबकि गरीबी रेखा बहुत नीचे रखी गई है। इसकी तुलना अमेरिका की गरीबी रेखा से करें, जहां 11,139 डॉलर यानी करीब 46,000 रुपये से कम मासिक आय वालों को गरीब माना जाता है।

गरीबी रेखा से नीचे की जनसंरूया की गणना हर पंचवर्षीय योजना से पहले की जाती है। 1992 में पहली बार गरीबी रेखा के नीचे की आबादी की जो गणना की गई थी, उसमें 11,000 हजार रुपये वार्षिक आय को मानक बनाया गया था, जो गरीबी की गणना के लिए आज प्रयोग किए जा रहें पैमाने से ज्यादा बैठती है। तब योजना आयोग ने गरीबों की इस गणना को बहुत ज्यादा बताकर इस आंकड़े को मानने से ही इनकार कर दिया था। अब तो हालत यह है कि सवेक्षण चाहे कुछ भी हों, किसी राज्य में गरीबों की संरूया योजना आयोग द्वारा तय सीमा से अधिक नहीं जानी चाहिए।

योजना आयोग गरीबी की ताजा आंकड़ा देते समय यह भूल गया कि विश्व बैंक भी रोजना एक डॉलर से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से नीचे मानता है। आयोग के इस नये आंकड़े पर संसद के दोनों सदन में विपक्ष ने सरकार को घेरा। सरकार के भीतर भी इसके कुछ सहयोगी दल योजना आयोग को इस नये फार्मूले पर आपति जताई है। यूं कहें सड़क से संसद तक मचे बवाल के बाद आखिरकार सरकार ने एक बार फिर से नई गरीबी रेखा निर्धारित करने की बात कर रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक विशेषज्ञ समूह के गठन का ऐलान कर दिया। यह समूह देश में गरीबों की संरूया का पता लगाने के नए तरीके सुझाएगा। दूसरी ओर देश भर से लोगों का सरकार से बस एक ही सवाल है कि मंहगाई के इस दौर में इतने रुपये में क्या मिलेगा। आज तो एक किलो टोंड दूध का भी दाम 25 रुपये है। इस राशि से 2 लीटर बोतल बंद पानी भी नहीं मिलता है। उसके लिए भी 30 रुपये चाहिए। इस प्रसंग में विश्व बैंक की पिछले साल की रिपोर्ट ज्यादा प्रासांगिक है, जिसमें कहा गया है कि गरीबी से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयास पर्याप्त नहीं है।

भारत की सबसे बड़ी विडंबना है कि आज भी करोड़ों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार है, वे इसलिए कि वे इंसान है। जबकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स -2011 के मुताबिक 81 देशों के सूची में भारत का स्थान 67 वां है, जो अपने पड़ोसी मूल्क पाकिस्तान और श्रीलंका से भी नीचे है। मौजूदा वक्त में देश की लगभग एक तिहाई आबादी भूख व कुपोषित है। ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि देश में गरीबी, भखमरी, कुपोषण और बदहाली की क्या स्थिति है। वहीं लाखों टन अनाज भारतीय खाद् निगम (एफसीआई ) के गोदामों और अन्य स्थानों में रख रखाव के कारण हर साल सड़ जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2010 में 10,688 लाख टन अनाज एफसीआई के गोदामों में खराब पाया गया, जिससे दस साल तक छह लाख लोगों का पेट भरा जा सकता था। वर्ष 1997 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूं, 6.33 लाख टन चावल, 2.20 लाख टन धान और 111 लाख टन मक्का एफसीआई के विभिन्न गोदामों में खराब पाया गया।

सरकार और सरकारी तंत्र को गरीबी रेखा तय करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में गरीबी रेखा के निर्धारण का सीधा असर लोगों के जीवन पर पड़ता है। अपनी शीर्ष वरीयता के अनुरूप योजना आयोग द्वारा किया गया कोई मनमाना फैसला यह तय करेग कि झुग्गियों या गांवो में रहने वाला कोई परिवार राशन सुविधा व सब्सिडी दर पर स्वास्थ्य सेवा पाने का हकदार है या नहीं और अपने परिवार का सहारा बनी किसी गरीब विधवा पेंशन पाने का पात्र माना जाए या नहीं। यही नहीं, गरीबों की संरूया इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि इसके आधार पर ही राष्ट्रीय प्राथमिकताएं और राजनीतिक – आर्थिक –सामाजिक नीतियों की दिशा तय होती है।

दरअसल, सरकार में बैठे योजनाकारों द्वारा गरीबी मापने का जो पैमाना तय किया गया है वह गरीबी को मापने से ज्यादा गरीबी को छिपाने का काम करता है। यही वजह है कि गरीबी की परिभाषा को लेकर योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बीच मतभेद बना रहा है। यह कितनी अचरज की बात है गरीबी की परिभाषा वे लोग तय कर रहे हैं, जिन्हें कभी गरीबी का सामना नहीं करनी पड़ता। पंचसितरा जैसी सुविधाओं से लैस एसी कमरों में बैठे हमारे देश के राजनेताओं, अफसरों को क्या पता कि गरीबी किसे कहते हैं। शहर में अगर 28 रुपए की राशि एक आदमी के रोज के भोजन के लिए काफी है, तो फिर उन्हें एक बार अपनी आय पर भी नजर डाल लेनी चाहिए।

देश में गरीबी और भुखमरी की हालत इतनी विकराल है कि जितनी बंया की जाए उतना ही कम होगा। पिछले छह दशक से हम गरीबी और भुखमरी से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं ऐसे में सवाल अहम है कि क्या सरकार सही दिशा में प्रयास कर रही है। भलें ही सरकारी और गैर सरकारी प्रयास हर स्तर पर किए जाते है ताकि कोई भी गरीब और भूखा न रहे, लेकिन आंकड़ों की मानें तो भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि गरीबी रेखा का जो मापदंड 2004 में था वही आज भी है, जबकि इस बीच सरकारी बाबुओं की तनख्वाहों ओर भतों में कई बार बढ़ोतरी हुई है। संगठित निजी क्षेत्र की आय में भी इजाफा हुआ है। सांसदों ओर विधायकों के वेतन – भते कई गुना बढ़े है, लेकिन गरीबों की बेहतरी के बारे में सोचने के बजाय आंकड़ों में उनकी संख्या को ही घटाकर दिखाने की कोशिश हो रही है, ऐसा इसलिए कि अगर सच्चाई सामने आती रहेगी तो कहीं देर-सबेर नीतियों ओर प्राथमिकताओं में बदलाव की मांग न उठने लगे। इसलिए सरकार और योजना आयोग को कृत्रिम आंकड़े गढ़ने बजाए हकीकत स्वीकार करनी चाहिए। साथ ही ये आंकड़े सरकार के लिए आत्ममंथन का भी अवसर होना चाहिए, ताकि गरीबी के खिलाफ पूरे देश में प्रभावी कदम उठाए जा सकें।

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