समाज

आधुनिक भारतीय मुस्लिम समाज में दहेज का प्रचलन और लड़कियों की बढ़ती मौतें

गौतम चौधरी 

इन दिनों आधुनिक भारतीय मुस्लिम समाज में, हिन्दू समाज की कुछ पारंपरिक बुराइयां प्रवेश कर गयी है। इसके कारण मुस्लिम समाज का पारिवारिक ताना-बाना प्रभावित होने लगा है। उन्हीं बुराइयों में से एक दहेज है। वैसे तो दहेज एक सामाजिक बुराई है जिसने लंबे समय से दक्षिण एशियाई समाज को जकड़ रखा है। इस बुराई के कारण न जाने कितने मासूम बच्चियों को जान गंवानी पड़ रही है । परिवार के आपसी रिश्ते टूट रहे हैं और महिलाओं की गरिमा कलंकित हो रही है। बड़े लंबे समय तक भारतीय प्रायद्वीप का मुस्लिम समाज इस कुप्रथा से बचा रहा लेकिन आधुनिक काल में इस समाज को भी इसने बुरी तरह जकड़ लिया है। भारतीय प्रायद्वीप के अमूमन सभी धर्म-पंथों में इसका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि यह गैरकानूनी है लेकिन इसके खिलाफ व्यापक आंदोलन नहीं हो पा रहा है। यहां एक बात बता दें कि मुसलमानों में इसका मौजूद होना चौंकाने वाला है, क्योंकि इस्लाम इसे स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है। दहेज को इस्लामिक कानून के अनुसार नाजायज माना गया है। हाल के वर्षों में दहेज की मांग से जुड़ी उत्पीड़न, यातना और यहाँ तक कि मौत की घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय को झकझोर दिया है। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में 22 वर्षीय मुस्लिम युवती गुलफिज़ा इसका ताज़ा शिकार बनी जिसे उसके पति ने 10 लाख रुपये की मांग पूरी न करने पर तेज़ाब पीने के लिए मजबूर किया और वह खून की उलटी करते हुए मर गयी। 

इस्लाम का दहेज पर रुख़ और भारतीय मुस्लिम लड़कियों के सामने खड़ी इस त्रासदी को समझना बेहद ज़रूरी है। इस्लाम में दहेज (जहेज़ या दहेज) का कोई सिद्धांत नहीं है। इसके बजाय धर्म, मेहर का आदेश देता है। मेहर एक अनिवार्य तोहफ़ा जो दूल्हा, दुल्हन को देता है। यह सम्मान, आर्थिक सुरक्षा और उसके अधिकारों की मान्यता का प्रतीक है। मेहर केवल पत्नी की संपत्ति है जिस पर न पति का और न ही ससुराल का कोई अधिकार है। मेहर एक प्रकार की रकम होती है निकाह से पहले तय कर दिया जाता है। यह रकम ससुराल पक्ष की ओर से तय किया जाता है। यह वह रकम है जो विपरीत परिस्थिति में दुल्हन को ससुराल पक्ष की ओर से देय होती है। इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति में भी हक होता है। इसको इस्लामिक कानून में जायज ठहराया गया है। इसलिए मुस्लिम समाज में दहेज का कोई स्थान ही नहीं है। बरेलवी फिरके के इस्लामिक विद्वान तुफैल खान कादीरी साहब का कहना है कि विवाह समारोह में जो फालतू के खर्च किए जाते हैं, उसे भी इस्लाम में हराम माना गया है। 

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ज़ोर देकर कहा कि सबसे अच्छी शादी वह है जिसमें आर्थिक और सामाजिक बोझ सबसे कम हो। रिवायतों में आता है कि उनकी बेटियों की शादियां सादगी से हुईं, बिना किसी दिखावे या भौतिक अपेक्षा के, इसलिए आज जो दहेज प्रथा देखी जाती है, वह इस्लाम के मूल्यों के ख़िलाफ़ एक बिदअत है।

फिर भी, दक्षिण एशियाई मुस्लिम समाज में दहेज ने जगह बना ली है। ऐसा सांस्कृतिक कुप्रभाव, औपनिवेशिक दौर के व्यक्तिगत क़ानूनों और गैर-इस्लामी परंपराओं की नकल के कारण हुआ है। इस्लाम जिस प्रथा को अत्याचार कह कर नकारता है, वही कई परिवारों में सामान्य व्यवस्था बन गई है। भारत में हर साल हज़ारों दहेज हत्या के मामले दर्ज होते हैं और इसमें मुस्लिम महिलाओं की भी संख्या अच्छी खासी होती है। आंकड़ों में हिंदू समुदाय के मामले अधिक दिखते हैं क्योंकि उनकी जनसंख्या ज़्यादा है, लेकिन मुस्लिम महिलाएं भी दहेज की क्रूरता से अछूती नहीं हैं। 

भारतीय मुसलमानों में दहेज की मौजूदगी आस्था और अमल के बीच गहरी खाई को उजागर करती है। एक ओर मुसलमान क़ुरान और सुन्नत के पालन पर गर्व करते हैं जहां महिलाओं के अधिकार सुरक्षित किए गए हैं। दूसरी ओर व्यवहार में कई परिवार बेटियों को बोझ मानते हैं और उन्हें ऐसी प्रथा के हवाले कर देते हैं जिसे इस्लाम साफ़-साफ़ नकारता है। यह इस्लामी सिद्धांतों से गद्दारी है जो न केवल महिलाओं को चोट पहुंचाती है बल्कि समाज के नैतिक ढांचे को भी खोखला करती है। इस्लामिक पवित्र ग्रंथ क़ुरान दूसरों का धन अन्यायपूर्वक खाने से मना करता है जबकि दहेज मांगना एक प्रकार की ज़बरन वसूली है जिसे रिवाज का नाम दिया गया है। वैसे भी यह एक प्रकार का अन्याय है। 

इन चौंकाने वाली मौतों से आगे भी अनगिनत मुस्लिम महिलाएं दहेज की वजह से निरंतर मानसिक दबाव में जीती हैं। नई-नई दुल्हनों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि उनके मायके ने क्या दिया या नहीं दिया। यह अपमान उनकी गरिमा छीन लेता है और वैवाहिक जीवन को विषाक्त बना देता है। माता-पिता भी बेटियों के जन्म पर निराश हो जाते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि बेटी केवल संसाधनों का बोझ बनेगी। इससे बेटियों की शिक्षा, करियर और देखभाल की उपेक्षा होती है जो अशिक्षा, कम उम्र की शादियों और भेदभाव को और बढ़ावा देता है।

भारत का दहेज निषेध अधिनियम (1961) दहेज मांग को अपराध घोषित करता है और भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 79 और 80) दहेज मृत्यु से संबंधित है लेकिन इन क़ानूनों का पालन की प्रक्रिया बेहद कमज़ोर है। पीड़िताएं अक्सर धमकियों, परिवार के असमर्थन या सामाजिक बदनामी के डर से चुप रहती हैं। पुलिस जांच ढीली होती है और मुक़दमे वर्षों तक चलते हैं जिससे परिवारों को न्याय नहीं मिल पाता।

चूंकि मुस्लिम समाज धार्मिक रूप से सशक्त है, इसलिए मुस्लिम नेताओं और संगठनों को सिर्फ़ क़ानूनी उपायों पर निर्भर रहने के बजाय धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं का सीधा सामना करना चाहिए। मस्जिदों में खुत्बे (प्रवचन), शैक्षिक अभियानों और सामुदायिक प्रयासों के ज़रिए दहेज के सामान्यीकरण को तोड़ना ज़रूरी है। भारतीय मुस्लिम लड़कियों की दहेज से जुड़ी बढ़ती मौतें इस्लामी आदर्शों और ज़मीनी हक़ीक़तों के बीच खतरनाक अंतर को दिखाती हैं। इस सामाजिक बुराई से खोई हर ज़िंदगी पूरे समुदाय की अंतरात्मा पर कलंक है। अगर भारतीय मुसलमान न्याय, करुणा और महिलाओं की गरिमा पर आधारित अपनी पहचान फिर से पाना चाहते हैं तो उन्हें दहेज के ख़िलाफ़ एक अडिग लड़ाई लड़नी होगी।

गौतम चौधरी