स्‍वास्‍थ्‍य-योग

एलोपैथिक दवाओं की विषाक्तता का सिद्धान्त

यद्यपि ऐलोपैथी का एकछत्र साम्राज्य दुनियाभर के देशों पर नजर आता है पर इसका यह अर्थ बिल्कुल नही कि यह औषध सिद्धान्त सही है। ‘दवालॉबी’ का गाने से पूरा चित्र स्पष्ट हो जाता है।
विषाक्तता का सिद्धान्तः
आयुर्वेद तथा सभी चिकित्सा पद्धतियों में मूल पदार्थों यथा फल, फूल, पत्ते, छाल, धातु, आदि को घोटने, पीसने, जलाने, मारने, शोधन, मर्दन, संधान, आसवन आदि क्रियाओं में गुजारा जाता है। इनमें ‘एकल तत्व पृथकीकरण’ का सिठ्ठान्त है ही नहीं। विश्व की एकमात्र चिकित्सा पद्धति ऐलोपैथिक है जिसमें ‘एकल तत्व पृथकीकरण’ का सिद्धान्त और प्रकिया प्रचलित है। इसकी यही सबसे बड़ी समस्या है। एक अकेले साल्ट, एल्कलायड या सक्रीय तत्व के पृथकी करण (single salt sagrigation) से प्रकृति द्वारा प्रदत्त पदार्थ का संतुलन बिगड़ जाता है और वह विषकारक हो जाता है। हमारे (metabolism) पर निश्चित रूप से विपरीत प्रभाव डालने वाला बन जाता है। 
 
वास्तव मे इस प्रक्रिया में पौधे या औषध के प्रकृति प्रदत्त संतुलन को तोड़ने का अविवेकपूर्ण प्रयास ही सारी समस्याओं की जड़ है। पश्चिम की एकांगी, अधूरी, अनास्थापूर्ण दृष्टी की स्पष्ट अभिव्यक्ति ऐलोपैथी में देखी जा सकती है।
अंहकारी और अमानवीय सोच तथा अंधी भौतिकतावादी दृष्टी के चलते केवल धन कमाने, स्वार्थ साधने के लिये करोड़ों मानवों (और पशुओं) की बली ऐलोपैथी की वेदी पर च़ रही है। एकात्म दर्शन के द्रष्टा स्व. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार पश्चिम की सोच एकांगी, अधूरी, असंतुलित अमानवीय और अनास्थापूर्ण है। जीवन के हर अंग को टुकड़ों में बाँटकर देखने के कारण समग्र दृष्टी का पूर्णतः अभाव है। प्रत्येक जीवन दर्शन अधूरा होने के साथसाथ मानवता विरोधी तथा प्रकृति का विनाश करने वाला है। ऐलोपैथी भी उसी सोच से उपजी होने के कारण यह एंकागी, अधूरी और प्रकृतिक तथा जीवन विरोधी है।