राजनीति

केरल में स्थानीय निकायों के नतीजों के मायने

वीरेन्द्र सिंह परिहार

            गत दिनों केरल के स्थानीय निकायों के चुनावों में जो नतीजे आये हैं, वो चौंकाने वाले हैं। अभी तक केरल का जो राजनीतिक परिदृश्य था, उसमें वहाँ पर वाम मोर्चा और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाला संयुक्त मोर्चा ही मुख्य धारा के राजनीतिक दल थे। भाजपा को वहाँ पर एक अलग-थलग रहने वाला दल ही माना जाता था। यद्यपि गत लोकसभा चुनाव में केरल से भाजपा ने कन्नूर की एक सीट जीत कर और तिरुवनंतपुरम की लोकसभा सीट कम मतों से हार कर भाजपा ने राजनीतिक जगत में यह सन्देश जरूर दे दिया था कि भाजपा अब केरल की मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टी बनने के मुहाने पर खड़ी है लेकिन स्थानीय चुनावों ने यह सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस और वाम मोर्चा के साथ के साथ भाजपा भी अब केरल में मुख्य धारा की पार्टी है।

जैसा कि भी को पता है कि तिरुवनंतपुरम में नगर निगम की 101 सीटों में 50 सीटें जीतकर जो करीब-करीब बहुमत के पास है, और इसमें कोई दो मत नहीं कि वह निर्दलीय सदस्यो के सहयोग से केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम नगर निगम में कब्जा कर लेगी। प्रदेश में दूसरी जगहों पर भाजपा को उल्लेखनीय सफलता भले न मिली हो पर वोटरों का रूझान यह बताता है कि केरल में भी ईसाई मतों को भाजपा की ओर रूझान बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में जब केरल में भाजपा करीब-करीब तीसरी राजनीतिक शक्ति बन चुकी है तो यह तय माना जाना चाहिए कि बंगाल की तरह केरल में भी वाम मोर्चा अप्रासंगिक होने के कगार पर  है। ऐसा इसलिये संभव है कि कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के चलते मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन उसे मुख्य धारा की राजनीति शक्ति बनाये रखेगा। दूसरी तरफ हिन्दुओं के साथ ईसाई मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के समर्थन के चलते यदि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत प्राप्त कर ले तो इससे कोई बहुत बड़ी हैरानी नहीं होनी चाहिए। लोगो की याददाश्त में कहीं-न-कहीं यह होना चाहिए कि त्रिपुरा में जब पहली बार भाजपा सत्ता में आई थी तो उसे ‘शून्य से शिखर की यात्रा’ ही कहा गया था।

          गौर करने की बात यह कि भारतीय राजनीति में दो मुख्य पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को लेकर यू तो कई बुनियादी भिन्नताए हैं, पर एक बड़ी बुनियादी भिन्नता यह कि जहाँ कांग्रेस प्रान्त दर प्रान्त क्रमशः सत्ता से बेदखल होती जा रही है, वही भाजपा क्रमशः क्रमशः सत्ता में आती जा रही है जिसके चलते कांग्रेस मात्र कर्नाटक, तेलंगाना और हिमांचल प्रदेश में सत्ता में है, वहीं भाजपा अधिकाशं राज्यों में सत्ता में है। यदि सत्ता में नहीं है तो पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्यों को छोड़कर या तो विपक्ष में है, या वहाँ पर उसकी मजबूत उपस्थिति है। उदाहरण के लिये तेलंगाना जैसे राज्य को देखा जा सकता है जहाँ भाजपा राज्य में मुख्य विपक्षी दल भले न हो, लेकिन गत लोकसभा में चुनाव में 17 में 8 सीटें जीतकर वह यह बता चुका है कि तेलंगाना में भी भाजपा सत्ता की दहलीज पर ख़ड़ी है, ठीक वैसे ही जैसे वह बंगाल में सत्ता के दरवाजे पर खड़ी है। यह भी सभी को पता होगा कि 25 वर्ष तक लगातार उड़ीसा की सत्ता में रहने वाले वर्ष 2024 के चुनाव में भाजपा, बीजद को सत्ता से अपदस्थ कर चुकी है।

          विचारणीय प्रश्न यह कि आखिर में ऐसी कौन-सी बड़ी वजह है कि दिनों-दिन पूरे देश में भाजपा का जनाधार बढ़ता जा रहा है और कांग्रेस का जनाधार छिटकता जा रहा है। निश्चित रूप से कमोबेश इसका एक बड़ा कारण जहाँ भाजपा एक तरह से परिवारवाद की बीमारी से मुक्त है, वहीं पर यह बड़ी सच्चाई है कि वर्तमान में देश का मतदाता यह मान चुका है कि कांग्रेस की तुलना में ही नहीं, दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की तुलना में भी भाजपा एक बेहतर पार्टी है। परिवारवाद से मुक्त होने के साथ जहाँ विकास का मापदण्ड है, वह बेहतर नतीजे दे रही है। इसके अलावा ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि भाजपा का जहाँ राज है, वहाँ रामराज्य है परन्तु अवश्य कहा जा कहा जा सकता है कि वहाँ सुशासन की दिशा में प्रयास अवश्य दिखाई देता है।

 बड़़ी बात यह कि भाजपा की चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, वहाँ घोटाले की गूँज सुनाई नहीं पड़ती जबकि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों से शासित राज्यों में कुशासन और घोटाले आम तौर पर सुनने को मिलते रहते हैं। इसके अलावा एक बड़ी बात  भाजपा का हिन्दुत्व, भारतीय संस्कृति के प्रति आग्रह और स्व के प्रति जागरण का प्रयास भी है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नैतिक दबाव के चलते भाजपा एक विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा की पार्टी सतत बनी हुई है। यही कारण है कि भाजपा का दिग्विजयी अश्व बीच-बीच में झटके भले खाता हो पर वह सतत आगे बढ़ता ही जा रहा है।

वीरेन्द्र सिंह परिहार