राजनीति

सरकार का ओछापन

इससे पहले भी कई सरकारें आई और कई सरकारें गयी। लेकिन खुद की पीठ थपथपाने का काम जो इस दौर की सरकारें कर रही है वो शायद इससे पहले कभी भी देखने को नहीं मिला होगा। फिर चाहें वो केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार! कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी ने भी एक और ऐसा ही काम किया है जिसे करके वो अपनी पीठ तो थपथपा ही रही हैं साथ ही खुद को सबसे बहतर भी साबित करने की कोशिश कर रही हैं।

हाल ही में प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्र सरकार ने नेशनल एडवायजरी काउंसिल (NAC) द्वारा सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक का मसौदा तैयार किया है। हो सकता इस मसौदे को बनाने के बाद सोनिया गांधी अपने आपको कानून व्यवस्था का व्यवस्थापक समझ रही हो। लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है।

तैयार किये गये मसौदे के नियमों पर अगर नजर डाले तो इसके अनुसार कुछ इस तरह की बातें सामने आती हैं।

‘‘कानून-व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का है, लेकिन इस बिल के अनुसार यदि केन्द्र को “महसूस” होता है तो वह साम्प्रदायिक दंगों की तीव्रता के अनुसार राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकता है और उसे बर्खास्त कर सकता है।’’ इस कानून के अनुसार तो केन्द्र सरकार किसी भी वक्त राज्य सरकार पर हावी हो सकती है। वो कभी भी कानून व्यवस्था के नाम पर सरकार को बर्खास्त कर सकती है और अपना आधिपत्य कायम रख सकती है।

‘‘इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार दंगा हमेशा “बहुसंख्यकों” द्वारा ही फैलाया जाता है, जबकि “अल्पसंख्यक” हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं।’’ देखा जाए तो सरकार का मानना है कि अगर सम्प्रदायिक दंगे होने के पीछे केवल वो समुदाय होते हैं जिनकी संख्या अधिक होती है। लेकिन ये बात तो सरासर गलत है कि किसी समुदाय के लोगों की संख्या अधिक होने से वो दंगों के मुख्य कारण हांे। जबकि हमारा मानना है ज्यादातर दंगे अराजकतत्व के द्वारा फैलाये जाते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता, जिनकी कोई जाति नहीं होती, जिनका कोई मजहब नहीं होता और सच पूंछों तो जिनका जमीर नहीं होता।

‘‘यदि दंगों के दौरान किसी “अल्पसंख्यक” महिला से बलात्कार होता है तो इस बिल में कड़े प्रावधान हैं, जबकि “बहुसंख्यक” वर्ग की महिला का बलात्कार होने की दशा में इस कानून में कुछ नहीं है।’’ इस कानून के अनुसार तो बलात्कार जैसे कृत्य को भी जातिवाद और समुदाय में बांट दिया है। सरकार कहती है कि एक अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के साथ बहुसंख्यक द्वारा बलात्कार होता है तो वो बलात्कार की श्रेणी में आता है। जबकि बहुसंख्यक महिला के साथ अल्पसंख्यक बलात्कार करने के बाद भी उस श्रेणी में नहीं आएगा। इस नियम ने तो कानून के मायने ही बदल कर रख दिये है।

‘‘किसी विशेष समुदाय (यानी अल्पसंख्यकों) के खिलाफ “घृणा अभियान” चलाना भी दण्डनीय अपराध है (फेसबुक, ट्वीट और ब्लॉग भी शामिल)’’ इस विचार से हम सहमत है कि किसी भी समुदाय को उपेक्षा की नजर से नहीं देखना चाहिए।

“अल्पसंख्यक समुदाय” के किसी सदस्य को इस कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती यदि उसने बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ दंगा अपराध किया है।’’ तो इस कानून की विशेषता यही है कि वो केवल अल्पसंख्यकों को ही न्याय दिला पायेगा। बाकी बचे सभी बहुसंख्यक समुदाय उनकी नजर में आरोपी होंगे।

और आखरी प्रस्ताव ‘‘न्याय के लिए गठित होने वाली सात सदस्यीय समिति में से चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इनमें चेयरमैन और वाइस चेयरमैन शामिल हैं। ऐसी ही संस्था राज्य में बनाए जाने का प्रस्ताव है। इस तरह संस्था की सदस्यता धार्मिक और जातीय आधार पर तय होगी।’’

लो जी सरकार! सरकार ने तो फैंसला कर लिया है कि अंग्रेजों की पूरी नीति फिर से लागू कर देंगे। एक बार फिर से वहीं जातिवाद की लड़ाई छेड़ देंगे। सात सदस्यों में से चार सदस्य अल्पसंख्यक होंगे। बाकी तीन बहुसंख्यक होंगे। इस तरह की समिति न केवल केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गठित की जाएगी। अब सरकार ने एक भेदभाव पेदा कर दिया है। समाज में दो तरह के प्राणी ही नजर आयेंगे एक अल्पसंख्यक और दूसर  बहुसंख्यक।

ये सरकार आखिर अपना अस्तित्व बचाने के लिए क्या-क्या ढोंग रचती फिरेगी? इस तरह के मसौदे तैयार करने के पीछ और कारण हो सकता है? या फिर यूं कहे कि ये भी वोट बैंक की राजनिति है। उन अल्संख्यकों को लुभाने की एक कोशिश है जो अभी सरकार के पक्ष में नहीं हैं।