15 नवंबर बिरसा मुंडा 150 जयंती पर विशेष
प्रो. मनोज कुमार
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुदूर आदिवासी अंचलों से भी अंगे्रजी शासन के खिलाफ आवाज उठी थी. अनेक जनजाति योद्धाओं ने अपने पराक्रम का परिचय दिया था. ये सारे योद्वा एक अंचल अथवा समुदाय के लिए अंग्रेजी शासन से नहीं लड़े थे बल्कि ये भारत भूमि के लिए लड़े थे, लेकिन यह दुर्भाग्य से इन सारों को उन्हें क्षेत्र विशेष में बाँध दिया गया था. वे जिस अंचल से आते थे, उनके लिए वे गौरव नायक तो हुए ही, साथ ही वे समूचे भारतीय समाज के लिए गौरव नायक हैं. इन्हीं गौरव नायकों में बिरसा मुंडा का नाम आता है. भारत सरकार की पहल पर बिरसा मुंडा की जन्म जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में स्थापित किया गया. यह वर्ष बिरसा मुंडा की जन्म जयंती का डेढ़ सौ वर्ष है जिसे पूरे देश में सेलिब्रेट किया जा रहा है. यह हम सबके लिए गौरव की बात है. बिरसा मुंडा को उनके कार्यों के लिए जननायक ही नहीं माना जाता बल्कि उन्हें भगवान का दर्जा हासिल है. अहिल्या देवी को जिस तरह लोकमाता का दर्जा प्राप्त है, वैसा ही बिरसा मुंडा भगवान कहे जाते हैं. बिरसा मुंडा की विरासत के बारे में जानने से पहले देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू के इस वक्तव्य को समझ लेते हैं. वे कहती हंै कि-आज जब देश ने अपने आधुनिक इतिहास के इस महान व्यक्तित्व की 150वीं जयंती का साल भर चलने वाला समारोह शुरू किया है, मैं उनकी पुण्य स्मृति को कृतज्ञतापूर्वक नमन करती हूँ। मुझे यह भी याद आता है कि कैसे बचपन में भगवान बिरसा मुंडा की गाथाएं सुनकर मुझे और मेरे संगी-साथियों को अपनी विरासत पर गर्व महसूस होता था। मात्र 25 वर्ष की छोटी सी आयु में, आज के झारखंड के उलिहातू गांव का वह बालक औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध जन-प्रतिरोध का महानायक बन गया। जब ब्रिटिश अधिकारी और स्थानीय जमींदार जनजातीय समुदायों का शोषण कर रहे थे, उनकी ज़मीनें हड़प रहे थे और अत्याचार कर रहे थे तब भगवान बिरसा इस सामाजिक और आर्थिक अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े हुए और लोगों को अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरित किया।
‘धरती आबा’ के रूप में सम्मानित भगवान बिरसा ने 1890 के दशक के अंत में ब्रिटिश उत्पीडऩ के विरुद्ध ‘उलगुलान’ या मुंडा विद्रोह का संचालन किया। उलगुलान, निस्संदेह, एक विद्रोह से कहीं ब?कर था। यह लड़ाई न्याय और सांस्कृतिक पहचान दोनों के लिए थी। भगवान बिरसा मुंडा की सूझबूझ ने एक ओर जनजातीय लोगों द्वारा बिना किसी हस्तक्षेप के अपनी ज़मीन पर स्वामित्व और खेती करने के अधिकार को, तो दूसरी तरफ जनजातीय रीति-रिवाज़ों और सामाजिक मूल्यों के महत्व को एक साथ जोड़ दिया। महात्मा गांधी की तरह, उनका संघर्ष भी न्याय और सत्य की खोज से प्रेरित था। बीमारों की सेवा करना उनके लिए मिशन था। उन्हें एक उपचारकर्ता का प्रशिक्षण मिला था, और अद्भुत घटनाओं की एक श्रृंखला ने लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि ईश्वर ने उन्हें एक महान उपचारक का विशेष स्पर्श दिया है। उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे किसी भी बीमार व्यक्ति को उनके पास लाएं, और कहा, ‘यदि यह संभव नहीं है तो मैं खुद बीमारों से मिलने आऊंगा।’ वे गाँव-गाँव बीमारों से मिलने जाते थे, और अपने कौशल और अपने उपचार करने वाले स्पर्श से असंख्य लोगों को स्वस्थ कर देते थे।
बिरसा मुंडा के बलिदान की गाथा भारत के जनजातीय समुदायों के महान क्रांतिकारियों के इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उनके संघर्ष हमारी धरती की उस अनूठी परंपरा को रेखांकित करते हैं, जहाँ कोई भी समुदाय कभी मुख्यधारा से अलग नहीं रहा। वनवासी, जो आज अनुसूचित जनजातियों की श्रेणी में आते हैं, हमेशा से राष्ट्रीय सामूहिकता का हिस्सा रहे हैं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि-उन्होंने मातृभूमि के सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। वर्तमान झारखंड में 1875 में जन्मे मुंडा ने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी थी और आदिवासियों को साम्रा’य के विरुद्ध संगठित करने का श्रेय उन्हें दिया जाता है। 25 वर्ष की अल्पायु में ब्रिटिश हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा मुंडा अपनी छोटी सी उम्र में इतिहास लिख गए. स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बिरसा मुंडा का नाम स्वर्णाक्षरों में लिख गया है. आने वाली पीढिय़ों के लिए वे आदर्श हैं और वे अपने त्याग से बताते हैं कि देशभक्ति क्या होती है.
‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा का उदय 1857 के दो दशक बाद हुआ। खूंटी के उलिहातू में 15 नवंबर 1875 को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में हुई। पढ़ाई के दौरान ही बिरसा की क्रांतिकारी तेवर का पता चलने लगा। इधर, सरदार आंदोलन भी चल रहा था जो सरकार और मिशनरियों के खिलाफ भी था। सरदारों के कहने पर ही मिशन स्कूल से बिरसा मुंडा को हटा दिया गया। 1890 में बिरसा और उसके परिवार ने भी चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी। बिरसा ने जर्मन मिशन त्यागकर रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया। बाद में इस धर्म से भी अरुचि हो गई। 1891 में बंदगांव के आनंद पांड़ के संपर्क में आए। आनंद स्वांसी जाति के थे और गैरमुंडा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम करते थे। आनंद रामायण-महाभारत के अ‘छे ज्ञाता थे। इससे उनका प्रभाव भी था।
आंदोलन की गति धीमी थी और बिरसा भी इस आंदोलन में भाग लेने लगे थे। सरदार आंदोलन में भाग लेने को ले आनंद पांड़ ने समझाया लेकिन बिरसा ने आंनद की बात नहीं सुनी। आगे चलकर, बिरसा भी इस आंदोलन में कूद गए। बिरसा ने एक दिन घोषणा की कि वह पृथ्वी पिता यानी ‘धरती आबा’ है। उनके अनुयायियों ने भी इसी रूप को माना। ब्रिटिश सत्ता ने 1895 में पहली बार बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया तो धार्मिक गुरु के रूप में मुंडा समाज में स्थापित हो चुके थे। दो साल बाद जब रिहा हुए तो अपने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना शुरू। आगे चलकर धार्मिक सुधार का यह आंदोलन भूमि संबंधी राजनीतिक आंदोलन में बदल गया। छह अगस्त 1895 को चौकीदारों ने तमाम थाने में यह सूचना दी कि ‘बिरसा नामक मुंडा ने इस बात की घोषणा की है कि सरकार के रा’य का अंत हो गया है।’ इस घोषणा को अंग्रेज सरकार ने हल्के में नहीं लिया। वह बिरसा को लेकर गंभीर हो गई। उधर बिरसा मुंडा ने मुंडाओं को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन 1895 से लेकर 1900 तक चला। इसमें भी 1899 दिसंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर जनवरी के अंत तक काफी तीव्र रहा। डरपोक अंग्रेज सरकार ने चालाकी से बिरसा को रात में पकड़ लिया, जब वह सोए थे। बिरसा जेल भेज दिए गए। बिरसा और उनके साथियों को दो साल की सजा हुई। पहली गिरफ्तारी अगस्त 1895 में बंदगांव से हुई।
बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। &0 नवंबर 1897 को उसे जेल से रिहा कर दिया गया। उसे पुलिस चलकद लेकर आई और चेतावनी दी कि वह पुरानी हरकत नहीं करेगा। बिरसा ने भी वादा किया कि वह किसी तरह का आंदोलन नहीं करेगा, लेकिन अनुयायियों और मुंडाओं की स्थिति देखकर बिरसा अपने वचन पर कायम नहीं रह सके। हाालांकि पुलिस भी बिरसा और उनके अनुयायियों पर नजर रखे हुए थी। पल-पल की खबर के लिए उसने कई गुप्तचर छोड़ रखे थे। चौकीदारों का काम भी यही था। फिर भी बिरसा चकमा दे जाते। कब कहां किस पहाड़ी पर बैठक होनी है, यह बहुत गुप्त रखा जाता।
अबुआ दिशुम, अबुआ राज
जमींदारों और पुलिस का अत्याचार भी बढ़ता जा रहा था। मुंडाओं का विचार था कि आदर्श भूमि व्यवस्था तभी संभव है, जब यूरोपियन अफसर और मिशनरी के लोग पूरी तरह से हट जाएं। इसलिए, एक नया नारा गढ़ा गया-‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ जिसका मतलब है कि अपना देश-अपना राज। 24 दिसंबर 1899 से लेकर बिरसा की गिरफ्तारी तक रांची, खूंटी, सिंहभूम का पूरा इलाका ही विद्रोह से दहक उठा था। इसका केंद्र खूंटी था। इस विद्रोह का उद्देश्य भी चर्च को धमकाना था कि वह लोगों को बरगलाना छोड़ दे, लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। पुलिस को खबर मिली की नौ जनवरी को सइल रकब पर मुंडाओं की एक बड़ी बैठक होने वाली है। पुलिस दल-बल के साथ यहां पहुंची। पहाड़ी करीब तीन सौ फीट ऊंची थी। यहां पुलिस और विद्रोहियों के बीच जमकर युद्ध हुआ, लेकिन बिरसा मुंडा यहां नहीं मिले। वे पहले ही यहां से निकल गए थे। बिरसा के हाथ न आने से पुलिस बौखलाई हुई थी। यहां भी अपना हुलिया बदलकर निकल गए थे। अब पुलिस ने लालच की तरकीब निकाली और बिरसा का पता देने वालों को इनाम की घोषणा की। यह उक्ति काम कर गई। वे पोडाहाट के जंगलों में अपना स्थान बदलते रहते।
अपनों से ही शिकस्त खा गए बिरसा को मानमारू और जरीकेल के सात आदमी इनाम के लोभवश सेंतरा के पश्चिमी जंगल पहुंचे और बिरसा को यहां देखा तो खुशी का ठिकाना रहीं रहा। जब सभी खा-पीकर सो गए तो इन लोगों ने मौका देखकर सभी को दबोच लिया और बंदगांव में डिप्टी कमिश्नर को सुपुर्द कर दिया। इन लोगों को पांच सौ रुपये का नकद इनाम मिला। बिरसा को वहां से रांची जेल भेजा गया। यहीं रांची जेल में नौ जून 1900 को हैजा के कारण बिरसा ने अंतिम सांसें ली और आनन-फानन में कोकर पास डिस्टिलरी पुल के निकट उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इस तरह एक युग का अंत हुआ। जाते-जाते बिरसा मुंडा ने लोगों के जीवन पर ऐसी छाप छोड़ी कि आदिवासियों ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया।
पीएम मोदी ने बिरसा मुंडा की जन्मदिवस को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया था. वर्ष 2025 उनकी जन्मजयंती के डेढ़ सौ वर्ष है. इस अवसर पर मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के निर्देशन में प्रदेशव्यापी आयोजन हो रहा है. राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस पर डॉ. मोहन यादव कहते हैं-मध्यप्रदेश देश का सबसे बड़ा जनजातीय आबादी वाला रा’य है। यहां करीब 21 प्रतिशत लोग जनजातीय समुदाय से हैं। यह वर्ग प्रकृति के साथ मिलकर जीवन जीता है और उसकी रक्षा करता है। सरकार इन समुदायों के शिक्षा, समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के विकास के लिए पूरी तरह समर्पित है। उनका कहना है कि जनजातीय समाज के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक विकास में एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण है। मुख्यमंत्री ने आश्वस्त किया कि जनजातीय कल्याण सरकार की सर्वो‘च प्राथमिकता है। उन्होंने बताया कि रानी दुर्गावती की &00वीं जयंती पर जबलपुर में विशेष कैबिनेट बैठक आयोजित की गई थी। इसके अलावा, खरगोन में टंट्या मामा भील विश्वविद्यालय की स्थापना और राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह के कार्यों को जनता तक पहुँचाने जैसे कदम उठाए गए हैं