समाज

केरल का घाव

शिवानन्द मिश्रा

केरल के बारे मे अनेक गलतफहमियां हैं…..

केरल यूरोप नहीं है और इस भ्रम का आवरण अब उतार देना चाहिए। हम सब केरल को ऐसे रूमानी रूप में देखते हैं मानो वह कोई यूरोपीय देश हो। “शत-प्रतिशत साक्षरता।” “उत्कृष्ट HDI।” “आदर्श राज्य।”इत्यादि इत्यादि….परंतु वह सत्य, जिसे कहने का साहस कोई नहीं करता, यह है: यूरोप, यूरोप इसलिए नहीं है कि उसका HDI ऊँचा है। यूरोप इसलिए यूरोप है कि उसने ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया।

 जर्मनी :- सूक्ष्म अभियांत्रिकी, विश्व-स्तरीय वाहन, स्वच्छ प्रौद्योगिकी।

 फ्रांस :-विलासिता, कला, फैशन; वे संस्कृति का निर्यात करते हैं।

 इटली :- फेरारी, लैम्बॉर्गिनी, वर्साचे; मूल्य आधारित सृजन, मात्रा नहीं।

 ब्रिटेन :- वित्त, विधि, शिक्षा; वह श्रमिक नहीं भेजता, वह नियम गढ़ता है।

अब स्वयं से ईमानदारी से पूछिए! आख़िर केरल की अर्थव्यवस्था है क्या?

एक भूमि जहाँ अमेज़न की तरह वर्षा होती है…!! जहाँ बीज बिना बोए उग आते हैं…!!

और वही भूमि खाड़ी देशों को मज़दूर, नौकरानी, नर्स, चालक निर्यात करती है!!

 है कि नहीं? और फिर HDI पर गर्व भी करती है? कटु सत्य: केरल के पास कोई ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था नहीं है। न कोई IIM, न AIIMS, न कोई वैश्विक विश्वविद्यालय,

 न कोई वैश्विक कम्पनी, न पेटेंट, न तकनीकी निर्यात, न नोबेल विजेता, न मौलिक ब्रांड, न कोई विनिर्माण मूल्य-शृंखला।

यदि साक्षरता सृजनशीलता, नवोन्मेष और उद्योग में न बदले तो वह केवल पुस्तिका की चमक है, परिवर्तन नहीं!! यमन विजय नहीं, एक चेतावनी है। निमिषा प्रिया केरल की एक नर्स आज यमन में मृत्यु-दंड का सामना कर रही हैं। सोचिए…!! यमन। एक युद्धग्रस्त, ध्वस्त देश! हमारी बेटियाँ वहाँ जाती हैं केवल जीवन बचाने के लिए!! क्या जापान या जर्मनी की कोई महिला यमन जाएगी?

काम करना तो दूर, जाना भी नहीं चाहेगी!!!

और नहीं, उन युद्ध क्षेत्रों में आपको किसी कन्नड़, आंध्र या गुजराती महिला का नाम मिलेगा?? नहीं मिलेगा क्योंकि वे राज्य कम वर्षा और कम प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद वास्तविक अर्थव्यवस्थाएँ बना चुके हैं।

इसी बीच, केरल का GST योगदान झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे जनजातीय राज्यों से भी कम है। तो फिर यह हुआ क्या?प्रकृति ने वरदान दिए, व्यवस्था ने अवसर खो दिए। केरल के पास था!! वर्षा, नदियाँ, रबर, मसाले, बंदरगाह, स्त्री-शिक्षा का सौ वर्ष पुराना अग्रस्थान। फिर भी उसकी सबसे शिक्षित महिलाएँ सोमालिया, इराक, कुवैत, यमन जाती हैं, किसी और के बच्चों की परवरिश करने जबकि उनके अपने बच्चे दूर, दशकों तक प्रतीक्षा करते रहते हैं!! क्या ये जाने लायक देश है?

यह केवल आर्थिक घाव नहीं, यह मानवीय पीड़ा है. माताएँ रेगिस्तानी परदेस में अकेली

 बच्चे को आलिंगन नहीं, केवल वॉइस नोट्स पाते हुए, टूटते हुए घर, एक घर बनाने की क़ीमत पर. खाली जन्मदिन, छूटे हुए संस्कार, वीडियो-कॉल वाला परिवार!!

भारत के किसी भी अन्य राज्य को एक घर पाने के लिए इतनी मानवीय कीमत नहीं चुकानी पड़ती। उपजाऊ स्वर्ग का क्या लाभ यदि वहाँ जीने के लिए उसे छोड़ना पड़े? गलत मानकों की पूजा बंद करें.

खाड़ी देश तेल के कारण समृद्ध हुए संयोग से. वे संयोग से धनी बने और हम उनके चालक और घरेलू सहायक, बस ? यह कोई आदर्श नहीं यह चेतावनी है!!

केरल क्या बन सकता था?? अपनी प्रतिभा और संसाधनों के साथ केरल  आयुर्वेदिक जैव-प्रौद्योगिकी में विश्व-अग्रणी बन सकता था. हरित तकनीक और सतत वास्तुकला का निर्यात कर सकता था.

उच्च-स्तरीय चिकित्सकीय अनुसंधान-केंद्र बना सकता था. वृद्ध समाजों के लिए मलयालम आधारित AI प्लेटफ़ॉर्म विकसित कर सकता था, तटीय पारिस्थितिकी, वनौषधि, और जलवायु-अनुकूलन पर नए उद्योग खड़े कर सकता था परंतु इनमें से कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि केरल वालों ने जीवित रहना ही सफलता मान लिया. रेमिटेंस को पुनर्जागरण समझ लिया। और अब वही शिक्षा हम अगली पीढ़ी को दे रहे हैं!!

आकांक्षा का समय है, पलायन का नहीं.

यह केरल के लोगों पर आक्षेप नहीं, उनकी पीड़ा को रोमांटिक बनाना बंद करने का आह्वान है. आइए बंद करें, गल्फ़ की मजबूरी को गौरव कहना, टूटे परिवारों को आर्थिक शक्ति कहना, महिलाओं के पलायन को “सशक्तिकरण” कहना और रोकें उस व्यवस्था की प्रशंसा जो महिलाओं को युद्ध क्षेत्रों में भेजती है. सफलता की माप पासपोर्ट की मुहरों से करती है. घर तोड़कर मकान बनवाती है. हमें चाहिए केरल में रोज़गार, बाहर जाने के टिकट नहीं, नवोन्मेष का नेतृत्व करती महिलाएँ, मरुस्थल की जेलों में दम तोड़ती नहीं. ज्ञान-सृजन, उधार की उपलब्धि नहीं.

ऐसा भविष्य जहाँ केरल प्रतिभा निर्यात करे, शरीर नहीं. सुंदर भूमि, साहसी लोग पर टूटा हुआ मॉडल। हाँ, केरल सुंदर है। हाँ, उसके लोग साहसी हैं पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम उस पीड़ा का उत्सव मनाएँ,!! जिसे वे सामान्य मानने को विवश हुए हैं।

केरल का घाव

अब समय है “केरल मॉडल” कहना बंद करने का, उसे उसके वास्तविक नाम से पुकारने का, केरल का घाव। आइए, हम यूरोप बनने की आकांक्षा रखें,उसका भ्रम नहीं। 

और चुनो कम्युनिस्ट सरकार, वो भी 1957 से. केरल एक ऐसी जगह है जहां विश्व में सबसे पहले लोकतांत्रिक तरीके से कम्युनिस्ट सरकार चुनी गयीं और अभी तक वही जारी है और लोगों को भ्रम है कि वो बड़े मजे से जी रहे है.

संस्कार संस्कृति और सभ्यता से हटकर केरल का अपसंस्कृतिकरण ही उसके इस विकासहीन भ्रमात्मक विडम्बना का कारण है। चाहे वास्को डी गामा यहां हो या इस्लाम के पैरोकार, उनके गंदे षड्यंत्रकारी पहले कदम केरल में ही पड़े और उस अभिशाप को केरल आज भी झेल रहा है।

शिवानन्द मिश्रा