व्यंग्य

खीर-पूड़ी नहीं वे हरी नोट खाते हैं 

                     प्रभुनाथ शुक्ल

हम खाने के शौकीन हैं। एक से बढ़कर एक लजीज व्यंजन खाते हैं। हमारे खाने के तरीके के सामने जंगल का अजगर भी शर्मा जाता है। हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जो सिर्फ खाने के लिए जीते हैं। खाते-खाते जब तक हमें डकार न आ जाए तब तक हम खाते ही रहते हैं। बदलते दौर में खाने-पीने की परिभाषा बदल गई है। पंच सितारा से लेकर घर की रसोई तक पकवान और व्यंजन खाते-खाते हम ऊब चुके हैं। हमने पशुओं के चारे खाने शुरू किए अब जायका बदलने के लिए घूस में मिले नोट खाने लगे हैं।

देखिए! मध्यप्रदेश में मामा जी के पटवारी ने भोजन की जगह रुपए ही खाना शुरू कर दिया। बेचारा पटवारी खाने का इतना शौकीन निकला कि खीर-पुड़ी, रबड़ी और मलाई से उसका मन नहीं भरा तो घूस में मिले रुपए ही खाने लगा। हमारे देश में आजकल घूस खाने का रिवाज स्थापित हो चुका है। मंतरी -संतरी, बाबू, अफसर और पटवारी सब घूस खाने लगे हैं। घूस का वायरस कोरोना को भी मात दे रहा है। सरकारी विभागों में घूस खाने का अजीब प्रचलन है। घूस हाजमोला की गोली हो गई है और हाजमे का टॉनिक भी।

बेचारा आम आदमी घूस खिलाते-खिलाते केले का खम्भा हो जता है। लेकिन बाबूओं का पेट सड़क का ऐसा गड्ढा है कि वह भरता ही नहीं। अफसर, बाबू और पटवारी बगैर घूस खाए फाइल आगे बढ़ाते ही नहीं। फाइलों को आगे बढ़ाने के लिए लोग लस्सी, ब्रेड पकौड़े, और पान की भेंट चढाते हैं। लेकिन इसके बाद भी उनका हाजमा बगैर घूस की हिंगोली खाए दुरुस्त नहीं रहता। अब देखिए,  एंटी करप्शन वाले के सामने भी घूस खाने के शौकीन हमारे पटवारी जी अपनी बेहतरीन कला का प्रदर्शन कर दिया। एंटी करप्शन वाले साहब भी पटवारी जी की अनूठी कलाबाजी देख तालियां पीटने लगे। उनकी कला से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ‘घूस भूषण’ का पुरस्कार दिलाने के लिए सरकार को प्रस्ताव भी भेज दिया। अब घूस की कला को संरक्षित करने के लिए सरकारी स्तर पर भी प्रयास होने चाहिए। जिससे यह कला विलुप्त न होने पाए।