राजनीति

तीसरे मोर्चे की सियासी संभावनाएं – सिद्धार्थ मिश्र “स्‍वतंत्र”

partyहालिया प्रदर्शित बहुचर्चित चलचित्र गैंग्‍स ऑफ वासेपुर में रामाधीर सिंह (तिग्‍मांशु धुलिया) का एक संवाद है, इहां सबके दिमाग में अपना सिनेमा चल रहा है । गैंग्‍स आफ वासेपुर में विशेष महत्‍व रखने वाले इस संवाद का वर्तमान सियासी परिप्रेक्ष्‍यों में भी खासा महत्‍व है । अपना सिनेमा से अर्थ अपने को सर्वमान्‍य नायक साबित करना । वास्‍तव में इन दिनों हमारे सियासतदां भी इन्‍ही शब्‍दों का हूबहू अनुकरण कर अपना अपना सिनेमा बनाने में व्‍यस्‍त हैं । इस सिनेमा में हर छुटभैया स्‍वयं को प्रधानमंत्री के योग्‍य बता रहा है । वास्‍तव में ये बहुदलीय राजनीति का साइड-इफेक्‍ट है । अस्‍पष्‍ट बहुमत और बिखरे हुए वोटों ने क्षेत्रिय क्षत्रपों को मोलभाव करने की पूरी आजादी दे डाली है । इस पूरे परिप्रेक्ष्‍य को देखकर एक कविता याद आ रही है,जो काबिलेगौर है –

मंच जब से अर्थदायक हो गये, तोतले भी गीत गायक हो गये ।

राजनीतिक मूल्‍य कुछ ऐसे गिरे, जेबकतरे भी विधायक हो गये ।

ताजा हालात को देखते हुए ये लाईनें हमारे राजनेताओं की स्‍याह हकीकत को बखूबी प्रदर्शित करती हैं ।

हाल ही में दस दिनों के भीतर घटी राजनीतिक घटनाओं को अगर ध्‍यान से देखें तो पाएंगे कि सियासत का पारा दिनों दिन गर्माता जा रहा है । इस तपिश से जहां नये समीकरण बनने की संभावना जग रही है तो दूसरी पुराने गठबंधनों के धाराशायी होने की भी प्रबल आशंका है । इस पूरे घटनाक्रम का केंद्र है गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद । गोवा कार्यकारिणी में पार्टी का समर्थन प्राप्‍त कर लौटे मोदी की ये बढ़त कई लोगों को फूटी आंखों भी नहीं सुहा रही है । इसके परिणामस्‍वरूप  आडवाणी जी का त्‍याग पत्र और दोबारा वापसी जैसी हास्‍यास्‍पद घटनाएं देखने को मिली । बहरहाल ये सारी घटनाएं चूंकि भाजपा के अपने संगठन से सं‍बंधित थीं तो उसका निराकरण भी पार्टी के वरीष्‍ठ नेताओं ने ही किया । जहां तक इन परिस्थितियों में भाजपा की असल चुनौती का प्रश्‍न है तो वो अपने सहयोगी दलों को एकजुट रखना । इसी मोर्चे पर रूठे हुए स्‍वजनों को मनाना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है । भाजपा और जद-यू के तल्‍ख होते रिश्‍तों से हम सभी बखूबी वाकिफ हैं । नरेंद्र मोदी के नाम नीतीश के बगावती तेवर आज गठबंधन को तोड़ने के कगार पर हैं । इसका इशारा हमें कटिहार में सेवा यात्रा के शेरो शायरी वाले से बयान से मिला जिसमें उन्‍होने गठबंधन चलाना मुश्किल बताते ये कहा कि-

दुआ देते हैं जीने की, दवा करते हैं मरने की ।

उनके इस बयान से हमें गठबंधन के भविष्‍य की पूरी दशा दिशा का पता चल जाता है । सबसे बड़ी बात अभी भाजपा और जदयू के संबंध के टूटने की घोषणा भी नहीं हुई कि उससे पूर्व ही जदयू के महासचिव संप्रग अलग हुई ममता बनर्जी से बातचीत करने के लिए कोलकाता जा पहुंचे ।

तूफानी गति से बन रहे इस मोर्चे में अन्‍य कद्दावरों के कारनामे भी कम नहीं हैं । संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे मुलायम जी तो साल भर पहले से ही कार्यकर्ताओं को सरकार की अस्थिरता का हवाला देकर चुनावों के लिए तैयार रहने की नसीहत दे चुके हैं । इस बात को अखिलेश की हालिया यात्राओं से भी समझा जा सकता है । गौरतलब है कि पीएमके के निमंत्रण पर तमिलनाडू पहुंचे अखिलेश ने दक्षिण के अन्‍य क्षत्रपों से मुलाकात कर ये साबित कर दिया है कि उनके मंसूबे कुछ और हैं । वैसे भी प्रधानमंत्री का पद मुलायम जी की पुरानी महत्‍वाकांक्षा है, अखिलेश को सूबे का मुख्‍यमंत्री बनाकर वे पूर्णतया अपने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में लग गये हैं । हांलाकि इस पद के चाहने वालों की देश में कोई कमी नहीं है । अभी कुछ महीनों संप्रग सरकार के संकटमोचक शरद पवार का नाम भी उन्‍ही की पार्टी के एक बड़े नेता ने प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार के तौर पर उछाला था । इस घटना के तत्‍काल बाद शरद जी ने राहुल के उपाध्‍यक्ष बनाये जाने पर कांग्रेस का मजाक भी उड़ाया । ऐसा ही कुछ हाल बसपा का भी है । बसपा सुप्रीमो मायावती की महत्‍वाकांक्षा से सभी परिचित हैं । हांलाकि इस पूरे मामले में लालू यादव और रामविलास पासवान ने अपने सभी पत्‍ते छुपा रखे हैं । बीते लोकसभा चुनावों में इसी तीसरे मोर्चे की दुहाई देने वाले लालू चुनावी तैयारियों में जुटे हैं ताकी प्राप्‍त सीटों के आधार पर उनके मोलभाव के रास्‍ते खुले रहें ।

तीसरे मोर्चे की बलवती संभावनाओं के पीछे है  क्षेत्रिय दलों की बढ़ती ताकत, ये दल अपने तुच्‍छ लाभों के लिए इस ताकत का सर्वांगिण  दुरूपयोग करने से भी नहीं चूकते । इस बात के एक नहीं अनेकों उदाहरण हमारे बीच मौजूद हैं । यथा रामविलास पासवान को ही ले लें अपनी सीटों के दम पर उन्‍होने संप्रग और राजग गठबंधन से बखूबी मोलभाव किया । क्षेत्रिय दलों की सबसे बड़ी विशेषता है इनका सिद्धांत विहीन आचरण जिसका अनुसरण ये किसी भी दल या मोर्चे के पाले में आसानी से जा बैठते हैं । ऐसे में तीसरे मोर्चे के गठन की तैयारियां दबे तौर पर ही सही लेकिन पूरे जोर शोर से हो रही हैं । हांलाकि इस खिचड़ी बहुमत के सिद्ध होने काफी अड़चनें पेश आएंगी । इस बात को स्‍पष्‍ट करने के लिए मैं ग्राम्‍यांचलों में बहुधा प्रयुक्‍त होने वाले मुहावरों का प्रयोग करना चाहूंगा ।

सावन से भादों दुब्‍बर अथवा सजनी हमहूं राजकुमार ।

इन दोनों मुहावरों का भावार्थ मात्र इतना ही है हम किसी से कम नहीं है । शायद इसी वजह से हर क्षेत्रिय क्षत्रप के दिमाग में उसका खुद का सिनेमा चल रहा है । अर्थात हर कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पांव पसारने की इच्‍छा पाल बैठा है । अब आप ही बताइये क्‍या ये संभव है ? मुझे तो नहीं लगता, क्‍योंकि नी‍तीश अगर अपने विकास के मॉडल को सर्वश्रेष्‍ठ बताते हैं तो नेताजी उत्‍तर प्रदेश संभालने के कारण खुद को कमतर नहीं आंकते । ममता बनर्जी यदि अपनी सफलता के मद में हैं तो मायावती को अपने वोटबैंक गुमान है । यही हाल जयललिता,शरद पवार समेत अन्‍य क्षत्रपों का भी है । जहां तक प्रधानमंत्री पद की कुर्सी का प्रश्‍न है तो वो निश्चित तौर पर किसी एक को ही मिलती है,बाकियों को मंत्रीपद के सांत्‍वना पुरस्‍कारों से समझौता करना होगा । सबसे बड़ी समस्‍या यही है कि इनमे से कोई भी समझौते को तैयार नहीं दिखता । इस पूरे मामले को देखकर ये अवश्‍य कहना चाहूंगा कि यदि वास्‍तव में ये कद्दावर जननायक तीसरे मोर्चे को लेकर गंभीर हैं तो उन्‍हे कम से कम सामूहिक रूप से अपना प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित करना ही होगा । अन्‍यथा प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर तीसरे मोर्चे का सपना दिवास्‍वप्‍न से ज्‍यादा कुछ भी नहीं है ।