विविधा

थ्येन आनमन नरसंहार, ब्लू स्टार और सलवा जुड़ूम

-पंकज झा

अब फिर पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में ट्रेन पर किये हमले में नक्सलियों ने करीब सौ नागरिकों के परिवार को उजाड दिया है. जब हमले दर हमले करके नक्सली इस लोकतंत्र की चूलें हिलाने में लगें हैं. दांतेवाडा के एर्राबोर से लेकर चिंतलनार और अब पश्चिम बंगाल के मिदनापुर तक में बौखलाहट में जब आम-लोगों, बस और ट्रेन यात्रियों को निशाना बना रहे हैं तब वास्तव में ‘सलवा जुडूम’ की याद आ रही है. जिस तरह से देशद्रोही तत्वों ने दुष्प्रचार कर-कर के, लोकतंत्र के सभी स्तंभों द्वारा क्लीन-चिट मिलने पर भी जिस तरह से आस्तीन के साँपों ने दुष्प्रचार कर के इस महान आंदोलन को कमज़ोर किया, शायद इसी की परिणति है नक्सलियों द्वारा अपने नापाक मंसूबे में कामयाब होते जाना. आदिवासियों के उस स्वतः-स्फूर्त आंदोलन को जिस तरह से दिल्ली के गोरे मीडिया और भाई लोगों ने बेच खाया ऐसा कोई अन्य उदाहरण मिलना असंभव है.

जो लोग हर बार यह तुकबंदी देकर कि यह आंदोलन टाटा के साथ एमओयू होने के अगले दिन ही शुरू होना बताते हैं. इस तुकबंदी के सहारे ही वह नक्सल विरोध को पूजीपतियों का समर्थन ठहराने की कोशिश करते हैं उनके लिए एक तुकबंदी और. कथित एमओयू उस दिन हुआ था या नहीं पता नहीं. लेकिन सलवा-जुडूम के जन्मदिन ही इतिहास में दो और मुख्य घटनाएं दर्ज आहें. एक ऑपरेशन ब्लू स्टार और दुसरे थ्येन-आन-मन नरसंहार. वास्तव में कई बार संयोग भी अपना औचित्य खुद ही साबित कर देता है. ऐसा भी हो सकता है कि प्रकृति कुछ संयोगों के सहारे कोई संदेश देना चाह रही हो। आज से बीस साल पहले की बात है. चीन की राजधानी बीजिंग के थ्येन आनमन नामक चौराहे पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग करते हुए कुछ हजार लोग एकत्र हुए और चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने गोलियों की बौछार शुरू कर दी. हजारों लोग देखते ही देखते मांस के लोथड़े में तब्दील हो गये. भारत के जलियावाला बाग जैसा भयानक मंजर था वहाँ भी. दोनों जगह सरकारों ने एक जैसा ही ‘कमाल’ कर दिखाया था, बस फर्क था तो यह कि उस समय भारत एक गुलाम देश था जबकि चाइना में नरसंहार के वक्त उन्हीं कथित सर्वहारा की सरकार थी जिनके लिए चीन ने बंदूक का मुंह खोल दिया था.

अब एक दूसरी घटना देखिये……….ये घटित होता है ठीक उसी दिनांक को 15 साल बाद बस्तर के फरसगांव में. वहां के कुछ लोग मिलकर तय करते हैं कि अब किसी भी कीमत पर माओवादियों की नाजायज हुकूमत नहीं चलने दी जायगी, नक्सली कहे जाने वाले लुटेरों को अब किसी तरह का सहयोग नहीं मिलेगा और बस्तरजन लोकतंत्र तथा अपने मानवाधिकार की रक्षा के निमित्त जान की बाजी लगा देंगे, मर जायेंगे लेकिन एक आजाद देश में किसी भी कीमत पर इन दानवों की गुलामी नहीं झेलेंगे. आंदोलन शुरू हुआ, जनाधार वाले राजनीतिक दलों ने इसे हाथों-हाथ लिया. जहाँ विपक्ष के नेता इस आंदोलन के अगुवा बने वहीं सत्ता पक्ष ने अपनी-सारी ताकत इसे सफल बनाने में झोंक दी, आंदोलन का नाम था शांति के लिए एकीकरण यानी स्थानीय भाषा में ‘सलवा जुडूम’.

अब ध्यान दीजिए, इन दोनों घटनाओं में क्या समानता है. देश, काल, परिस्थति की भिन्नता के बावजूद इन दोनों घटनाओं में कोई संबंध है, कोई संदेश छिपा है? जी हाँ बिल्कुल….. यह दोनों घटनाएं वाममार्गियों के दोहरे चरित्र एवं उनके दोहरे मानदंड की पोल खोलने के लिए काफी हैं. सलवा जुडूम की बात को ही आगे बढ़ाते हैं. फिर हुआ यूँ कि इस आंदोलन से नक्सलियों की चूलें हिल गयीं. उन्हें यह बेहतर पता था कि किसी भी तरह का गुरिल्ला युद्ध बिना स्थानीय लोगों के समर्थन से या उन्हें ढाल बनाये लड़ा ही नहीं जा सकता, अत: उनके हाथ-पांव फूलना स्वाभाविक ही था. लेकिन नक्सली ज्यादा परेशान नहीं हुए, क्योंकि उन्हें बेहतर पता था कि आखिर वो मरने के लिए ही गये हैं उस जंगल में, उन्होंने अपनी यह नियति तय करके रखी है कि आखिर कुचल ही जाना है उन्हें चाहे आज या कुछ बरस बाद. लेकिन समस्या तो सफेदपोशों को हो गयी. वामपंथियों को अपनी दुकान बंद होती नजर आयी. अब उनको अपने सारे ऐशों आराम की चिंता सताने लगी. एक विश्वस्त आकलन के अनुसार नक्सलवाद कुल दो हज़ार करोड़ का कारोबार है. गंदा है पर धंधा है ये. आखिर कोई व्यापारी इस तरह हाथ पर हाथ धरकर तो अपना बाजार लुटते देखना पसंद नहीं करता न ! आखिर झूठे सपने को ही तो अपना प्रोडक्ट बना रखा था नक्सल समर्थकों ने. लेकिन लोग जाग गये थे. तो अब शुरू हुआ इनके द्वारा प्रदेश को बदनाम करने षडयंत्र। “सपने हमारे बेच रहे थे कुछेक लोग हमने जो आंख खोली तो आ के डपट गये.”

फिर शुरू हुआ मानवधिकार का राग अलापना. अपने देश विदेश में फैले संगठित गिरोहों के द्वारा प्रदेश सरकार के विरूद्ध अभियान चलाकर जिस तरह का दुष्प्रचार किया गया वह अचंभित करने वाला है. आखिर जिन समूहों की विचारधारा ही हिंसा से शुरू होती हो, अपने आका चीनियों की तरह ही जिनका मानवाधिकार हनन का रक्तरंजित इतिहास रहा हो. न केवल बीजिंग अपितु भारत में भी सिंगूर से लेकर कन्नूर तक, दमन हिंसा एवं सभी तरह के मानवाधिकार के हनन का कलंक जिनके माथे पर हो, वैसे लोग यदि मानवाधिकार की बातें करें तो किसी भी जागरूक समाज का खून खौलना स्वाभाविक है. शिकायत उन नक्सलियों से नहीं अपितु उनके पैरोकारों से है. सलवा जुडूम को लेकर सबसे प्रायेजित सवाल यह है कि इस आंदोलन में आदिवासियों को अपने ही लोगों के विरूद्ध हथियार थमा दिया गया है. इसमें सबसे पहली बात तो यह कि सरकार ने किसी भी सलवा जुडूम कर्मी को हथियार नहीं थमाया है, स्थानीय निवासियों को उचित मानदेय देकर उन्हें विशेष पुलिस अधिकारी बनाया गया है. आखिर इसमें क्या बुराई है? सरकार के संसाधनों का उपयोग कर अगर आप अपनी और समाज की चिंता कर रहे हों तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? अगर राष्ट्रपति के चित्रकोट आगमन के समय दरभंगा बिहार का कोई ‘नवीन झा’ अपना सीना छलनी करवा सकता है, जब आपकी सुरक्षा के लिए मिजोरम तक से सैनिक आकर यहाँ से ताबूत में बंद होकर वापस जा रहे हैं तो क्या स्थानीय लोगों का कर्तव्य नहीं बनता कि वे उन जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी सुरक्षा हेतु प्रयासरत रहें? बस्तर के जवान विशेष पुलिस अधिकारी बन अपने उन्हीं कर्तव्यों को निभा रहे हैं, उनका पहला कर्तव्य है अपनी सुरक्षा के साथ बस्तर से नक्सलवाद का सफाया. फिर पीटने दीजिए सर रूदालियों को. चूंकि चाइना की तरह यहॉं पर प्रेस पर कोई प्रतिबंध नहीं है, अत: प्रदेश से बाहर के मीडिया का उपयोग कर चिल्लाते रहने दीजिए इन्हें. झूठ-झूठ होता है और सत्य कभी परास्त नहीं होता. विजय वहॉं के आदिवासियों की होगी और विरोधियों को अपनी दुकान समेटनी ही होगी.

आप गौर करें-क्या हम ऐसे मानवाधिकारवादियों की चिंता करें जिनके लिए रानीबोदली एवं एर्राबोर जैसे नरसंहार में मारे जाने वाले निर्दोष आदिवासियों की जान की कोई कीमत नहीं, लेकिन एक विनायक सेन को राजद्रोह के अपराध में जेल चले जाने पर दुनिया भर में प्रदेश को बदनाम करते फिरें? सेन की ही बात लें, उस पर प्रदेश सरकार ने जन सुरक्षा कानून के तहत राजद्रोह का अभियोग लगाकर उसे गिरफ्तार किया था। सेन पर नक्सलियों को मदद पहुचाने के गंभीर आरोप थे। लगभग आधा दर्जन बार विभिन्न अदालतों द्वारा जमानत नामंजूर किये जाने के बाद उसे जमानत मिली. (धृष्टता के लिए माफ करें, लेकिन जब तक सेन राजद्रोह के आरोप से मुक्त नहीं हो जाता तब तक आदरसूचक संबोधन उचित नहीं है।) पिछले 22 महीने से जेल में बंद सेन को अंतत: सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत मिलने से पहले निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने उसकी याचिका कई बार खारिज की थी. हालांकि न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार के वकील की बात सुने बिना ही याचिका मंजूर कर ली और अगला मुकदमा पेश करने को कहा। न्यायालय की इस कार्रवाई से वहॉं उपस्थित लोग भौचक रह गये थे.

अस्तु, तो अब जन सुरक्षा कानून को लेकर सरकार की खिंचाई शुरू. हर राज्य को अपने लोगों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने का अधिकार है। हम शुरू से यह कहते आ रहे हैं कि कानून चाहे कितना भी कठोर हो उसे न्यायिक समीक्षा से ही गुजरना होता है. राज्य दुर्भावनावश किसी को आरोपित नहीं कर सकता.

यह सत्य है कि ढेर सारे दुष्प्रचार के कारण बस्तर आज विश्वास के संकट से गुजर रहा है लेकिन सवाल तो यह है कि अगर भरोसा करना ही हो तो आप किस पर करेंगे? इन कथित मानवाधिकारवादियों पर जो नक्सल हिंसा में जिंदा जला दी गई डेढ़ साल की बच्ची ‘ज्योति कुट्टय्यम्’ के लिए उफ तक नहीं करते और एक नक्सली के मारे जाने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं? जिनके दुष्प्रचार का जवाब खोजने सुप्रीम कोर्ट की मानवाधिकार कमिटी आती है और सरकार को क्लीन चिट देकर चली जाती है. या इनके बदले आप प्रदेश सरकार सरकार पर भरोसा करेंगे? ऐसी सरकार पर जिसे पिछले पांच साल में चार बार शानदार जनादेश उसी आदिवासी समाज से मिला है, औसत से ज्यादा मतदान कर उन बस्तरजनों ने स्थानीय निकायों के चुनाव के अलावा लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में भी इकतरफा जनादेश दिया है. आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि लोकतंत्र पर वहां के आदिवासी कितना भरोसा करते हैं. जहाँ रायपुर और बिलासपुर के शहरी लोगों ने औसतन 55 प्रतिशत मतदाता पहचान पत्र के लिए फोटोग्राफी में भाग लिया था, वहीं बस्तर के 82.92 प्रतिशत लोगों ने फोटोग्राफी करवायी थी. अब क्या सबूत चाहिए बस्तरजनों की लोकतंत्र के प्रति आस्था का? अपनी लाख कमियों के बावजूद भारत के लोकतंत्र, यहां की चुनाव प्रणाली की साख पूरी दुनिया में है. तो आखिर सारा का सारा चुनाव परिणाम गलत, अधिकृत मानवधिकार कमिटी गलत, न्यायिक प्रणाली पर भरोसा नहीं, केंद्र सरकार द्वारा नक्सल मुद्दे पर राज्य को अभिनंदनीय कहना गलत, सारी चीजें गलत, बस सही केवल मुठ्ठी भर लोग जिनकी न कोई वैधानिक हैसियत है और न ही कोई संवैधानिक जिम्मेदारी. आखिर उनसे कोई पूछे कि वो किस हैसियत से बस्तर के खैरख्वाह बने हुए हैं? अगर मानवधिकार की ही बात करें तो संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार इस पर नजर रखने वाली भी वैधानिक एजेंसियां हैं, जैसा कि ऊपर ही बताया गया है कि उसने भी राज्य सरकार को क्लीन चिट दी है. संयुक्त राष्ट्र के मानवधिकार घोषणा पत्र पर जिन छ: देशों ने दस्तखत नहीं किये हैं वे वामपंथी और मजहबी देश ही हैं, क्यूंकि उन्हें मालूम है कि उन लोगों का रिकार्ड कितना खराब रहा है. तो आखिर किसने इन लोगों को सुपारी दे दी है बस्तर के आदिवासियों की?

यदि इनको इतनी ही चिंता है तो स्वात घाटी में जाकर बचायें मानव अधिकार, जहॉं सिखों पर जजिया जैसा मध्ययुगीन कर लगाया जा रहा है या अपने पितृ देश चीन जाकर लागू करवायें मानव अधिकार जहॉं पूरे के पूरे मीडिया को ठप कर दिया गया है.पिछले साल ‘आनमन चौक’ की वर्षगाठ पर बात बाहर न जा पाये इसके लिए तमाम वेबसाइटों को भी बंद कर दिया था. जिस तरह का सलूक चीन ने तिब्बत के साथ किया है शायद आज के दिनांक में मानवाधिकार हनन का इससे बड़ा नमूना पूरे दक्षिण एशिया में देखने को नहीं मिले, जहाँ एक पूरी कौम को ही अपने देश से बरखास्त कर दिया गया है. छत्तीसगढ़ में मैनपाट, दिल्ली में मजनू का टीला और सबसे बढक़र हिमाचल में धर्मशाला जाकर देख आइये, पता चल जायेगा इन माओवादियों का नंगा नाच. गांधी की हद तक अहिंसक धम्मप्रिय तिब्बतियों की आंखों में पसरी दहशत और भविष्य के प्रति इनका अनिश्चय चीनियों की क्रूरता का बयान करता मिलेगा. उन्हीं चीनियों की जिनके चेयरमैन इन माओवादियों के भी चेयरमैन हैं. आपने उनके मानव अधिकार की चिंता कभी इन ठेकेदारों के मुंह से सुनी? इनके दोगलेपन से तो दानवता शरमा जाय. जब सत्ता मिलने की संभावना होती है तो यही माओवादी नेपाल में लोकतंत्र का राग अलापना शुरू कर देते हैं या हार्डकोर नक्सली भी अपने व्यभिचार को ताक पर रख पार्टी बदलकर भारतीय संसद तक पहुंच जाते हैं . लेकिन बस्तर में इन्हें लोकतंत्र का विरोध चाहिए. व्यापारी शोषक हैं लेकिन उन्हीं के टुकड़ों पर पलने में इन्हें कोई संकोच नहीं.

गौर कीजिए अभी-अभी पड़ोसी श्रीलंका में आतंकवादी संगठन लिट्टे का सफाया हुआ है। वहॉं के राष्ट्रपति राजपक्षे यदि ऐसे लोगों के दबाव में आ गये होते तो प्रभाकरण का सफाया कभी संभव था? या अपने ही प्रांत पंजाब में अगर तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह ने ऐसे हल्लाखोरों की बात सुनी होती तो क्या पंजाब में अमन-चैन कायम हो पाता? (संयोग से 4-5 जून ही ब्लूस्टार ऑपरेशन की भी बरसी है.)

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जब युद्ध की स्थिति होती है तो कुछ निर्दोष लोग भी मारे जाते हैं. लेकिन उन कुछ निर्दोष लोगों को ढाल बनाकर करोड़ों नागरिकों की सुरक्षा से खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती. और ये किसने कहा कि ऐसे युद्ध में केवल आम नागरिक ही मरते हैं? पंजाब की शांति की कीमत ही तो चुकानी पड़ी थी वहाँ के मुख्यमंत्री स्व. बेअंत सिंह को. चिथड़े उड़ गये थे उनके बम विस्फोट में. या प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने भी तो अपना एक-एक कतरा राष्ट्र को समर्पित कर दिया था, शांति के नाम पर वो भी तो शहीद हुअी थीं. राजीव गांधी जैसे ऊर्जावान एवं स्वप्रदर्शी नेता को खोने के बाद ही तो लिट्टे के सफाये की नींव पड़ी थी, उसके विरूद्ध जनमत का निर्माण हुआ था. या बस्तर की ही बात करें तो पूछिये जाकर सलवा जुडूम को नेतृत्व प्रदान करने वाले महेन्द्र कर्मा या वहां के बार-बार सांसद रहे बलिराम कश्यप से, उन्हें अपने भाई समेत कितने परिजनों को खोना पड़ा है, और वह कितनी बार बाल-बाल बचे हैं? या उन खबरों पर गौर कीजिए कि छग के मुख्यमंत्री की जान को कितना खतरा है.

तो आतंक चाहे वीरप्पन का हो या नक्सलियों का, हर तरह की लड़ाई में समाज के हर तबके के लोगों को निर्दोष होते हुए भी अपनी जान की बाजी लगानी होती है. आखिर आप बतायें कि पिछले चार साल में नक्सली हिंसा में छत्तीसगढ़ में शहीद हुए सुदूर असम से बिहार तक के सुरक्षा बलों का क्या कसूर था? तो यह सीधा-सादा युद्ध है, इसमें बलिदान के लिए तैयार रहना ही होगा, बंगापाल के विशेष पुलिस अधिकारी या छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक तक को. ये जरूर है कि मानवाधिकार के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले सेन, सान्याल, सायल, शुभ्रांषु, सुभाष, सुनील, सच्चर, संदीप जैसे लोग महफूज ही रहेंगे. मारे जायेंगे संघम सदस्य और ऐश करेंगे भिलाई के अपने सुविधाजनक बंगले में घुसे छद्म नामधारी गुड्सा उसेंडी. निश्चय ही इस विडंबना से पार पाना तो मुश्किल होगा ही.

तो चाहे ताकत से हो, कानून से या सार्वजनिक बहिष्कार के द्वारा, मानवधिकार को आड़ बनाकर, संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र की मनमानी व्याख्या कर, किसी व्यक्ति या समूह को, आदिवासियों के हत्यारे को समर्थन देने की इजाजत नहीं दी जा सकती. उनकी स्वतंत्रता और अधिकारों की कीमत पर किसी को अपनी रोटी सेंकने नहीं दिया जाना चाहिए। मोटे तौर पर मानवाधिकार के नाम पर दूकान चलाने वाले, झूठ पर झूठ गढ़ आदिवासियों के जीन की तिजारत करने वाले लोगों का एक मात्र बहाना होता है संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकार किया मानवाधिकार का चार्टर. लेकिन यह गौर करने वाली बात है कि उस घोषणा पत्र के अंतिम अनुच्छेद (30) में यह साफ किया गया है कि “इस घोषणा में उल्लेखित किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो किसी भी समूह या व्यक्ति को किसी ऐसे प्रयास में संलग्न होने या ऐसे कार्य करने का अधिकार है, जिसका उद्देश्य यहॉं बताये गये अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी का भी विनाश करना हो.’ तो अब समय आ गया है कि बात चाहे मिदनापुर कि हो या महाकौशल-बस्तर की. नक्सलियों एवं उसके समर्थकों को कुचलना एक मात्र उपाय है. और इस संघर्ष के बीच अआने वाले किसी भी सफ़ेदपोशों के फन को कुचल देना अपना एकमेव कर्त्तव्य. मिदनापुर के दिवंगत निर्दोष आत्माओं की भी यही पुकार होगी.