विविधा

वर्तमान दौर में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता

-तनवीर जाफ़री

वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतया: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोंजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गांधी आज क्यों याद आ रहे हैं और गांधीवाद की प्रासंगिकता क्यों महसूस की जा रही है, इसके लिए हमें इतिहास की हाल की कुछ घटनाओं पर नंजर डालनी होगी।

अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकवादी हमले ने दुनिया की राजनीति का रुख ही बदलकर रख दिया। अमेरिका की उपसाम्राज्यवादी नीतियों से क्षुब्ध तथा स्वार्थपूर्ण अमेरिकी विदेश नीति से स्वयं को दु:खी बताने वाले आतंकवादियों ने अमेरिका की स्मृद्धि का प्रतीक समझे जाने वाले न्यूयॉर्क शहर की प्रमुख इमारत वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोलकर जिस प्रकार लगभग 5 हजार बेगुनाह लोगों को अपना निशाना बनाया, वह वास्तव में एक क्रूरतम एवं असहनीय अपराध था। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे जघन्य अपराध करने वालों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए तथा ऐसा अपराध करने की प्रेरणा देने वाले संगठनों एवं इससे जुड़े नेटवर्क को निश्चित रूप से समाप्त किए जाने की आवश्यकता है। 911 के आतंकी आक्रमण के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश द्वितीय ने कुछ ऐसा ही किया। अमेरिका पर हुए आतंकी हमले को अमेरिकी स्वाभिमान पर हमला मानते हुए राष्ट्रपति बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर डाली। उनकी इस घोषणा के बाद तथा राष्ट्रपति बुश के आक्रामक तेवर को समझने के बाद दुनिया दो भागों में विभाजित हो गई। स्वयं जॉर्ज बुश ने भी उस समय यही कहा कि दुनिया के देशों के समक्ष इस समय केवल दो ही रास्ते हैं। या तो वे मेरे साथ हैं या उनके (आतंकवाद) साथ। तीसरा कोई रास्ता नहीं है। जाहिर है शांतिप्रिय संसार की मनोकामना करने वाले विश्व के अधिकांश देश अमेरिका पर आए संकट के अवसर की इस गंभीरता को समझते हुए राष्ट्रपति बुश के इस आह्वान पर अमेरिका के साथ हो लिए। परन्तु दुनिया के शांतिप्रिय देशों द्वारा अमेरिका का साथ दिए जाने का मकसद मात्र ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध’ की राष्ट्रपति बुश की घोषणा का समर्थन करना था। आतंकवाद से पीड़ित एवं प्रभावित कई देश दरअसल यह चाहते थे कि केवल आतंकवाद के ही विरुद्ध अमेरिकी नेतृत्व में एक विश्वव्यापी निर्णायक जंग लड़ी जाए। कई दशकों से आतंकवाद का दंश झेल रहे देशों को आतंकी घटनाओं से छुटकारा मिले तथा दुनिया शांति व अमन चैन से रह सके और यह सब पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ हो।

परन्तु दुनिया की उपरोक्त सभी कल्पनाएं तथा मनोकामनाएं धरी की धरी रह गईं। आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की राष्ट्रपति बुश की घोषणा के बाद बुश के पूरे शासनकाल के दौरान दुनिया के किसी भी देश से आतंकवाद का संफाया नहीं हो सका। दुनिया का सबसे बड़े आतंकवादी समझे जाने वाला तथा अमेरिका का मोस्ट वांटेड अपराधी ओसामा बिन लादेन अब तक पकड़ा नहीं जा सका। उसके आतंकी संगठन अलंकायदा के नेटवर्क को भी आज तक समाप्त नहीं किया जा सका। 9/11 के बाद अमेरिका ने सर्वप्रथम अफगानिस्तान के जिन तालिबानी हुक्मरानों को अफगानिस्तान की सत्ता से बेदंखल किया तथा जिन तालिबानों पर अलंकायदा के साथ गठबंधन करने का आरोप लगाया था, वह तालिबान अमेरिका के नेतृत्व में अफगानिस्तान में मोर्चा संभालने वाली नाटो सेनाओं के आगे बेशक कुछ समय के लिए तो नहीं टिक सके। परन्तु मात्र 4 वर्षों के भीतर ही उन्हीं तालिबानों ने आज पुन: स्वयं को इतना संगठित व मजबूत कर लिया है कि अब एक बार फिर अमेरिकी रणनीतिकारों को अफगानिस्तान का वही क्षेत्र दुनिया का सबसे खतरनाक क्षेत्र महसूस होने लगा है। उधर उसी दौरान राष्ट्रपति बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की अपनी घोषणा की आड़ में एक और जबरदस्त गलती यह कर डाली थी कि उन्होंने एक बड़े और संफेद झूठे का सहारा लेकर इराक में अमेरिकी सेना भेज दी। अमेरिकी सेना ने इरांक में इस बहाने से प्रवेश किया कि सद्दाम हुसैन ने इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों का बड़ा जखीरा इकट्ठा कर रखा है। इस बहाने इराक में जा घुसी अमेरिकी सेना ने न केवल इराक को मलवे के ढेर में बदल डाला बल्कि सद्दाम हुसैन को भी दुजैल नरसंहार के नाम से प्रसिद्ध एक स्थानीय मामले में इरांकी अदालत में ही मुकद्दमा चलवाकर उसे फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। सर्वशक्तिमान अमेरिका की इन चालबाजियों को पूरी दुनिया मात्र एक मूकदर्शक बनकर सहमी खड़ी देखती रही। उधर अमेरिकी शह पर इजराईल द्वारा भी अमेरिका का ही अनुसरण किया जाता रहा है। आतंकवाद के नाम पर इंजराईल जब चाहता है, फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर बमबारी करने लग जाता है। अमेरिका की तरह इजराईल भी इन हमलों का कारण आतंकवाद का संफाया ही बताता है। अभी कुछ समय पूर्व इजराईल ने लेबनान में भी हिजबुल्लाह नामक संगठन को आतंकवादी संगठन बताकर उसके विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया था।

उपरोक्त सभी हिंसापूर्ण घटनाओं के बाद जो नतीजा सामने आया उसके अनुसार राष्ट्रपति बुश की आतंकवाद विरोधी युद्ध की नीति का परिणाम यही देखा जा रहा है कि न तो लादेन अब तक पकड़ा जा सका न ही मुल्ला मोह मद उमर तथा अैमन अल जवाहिरी जैसे मोस्ट वांटेड आतंकवादी अमेरिकी सेना की गिरं त में आ सके। बजाए इसके अलंकायदा के नेटवर्क से जुड़े संगठन पहले से अधिक मंजबूत हुए हैं। इन संगठनों में आतंकियों की भर्ती में इंजांफा हुआ है। कई नए आतंकी संगठनों ने अपने सिर उठा लिए हैं। यहां तक कि अमेरिकी सेना से अपनी हार मान लेने वाला तालिबानी संगठन भी अब एक बार फिर पहले से अधिक मजबूत स्थिति में पहुंचता दिखाई पड़ रहा है। अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान पर आतंकवादियों का शिकंजा इतना मंजबूत हो गया है कि स्वयं पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को यह स्वीकार करना पड़ा है कि पाकिस्तान में आतंकवादी हावी हैं तथा स्वयं पाकिस्तान आतंकियों से जूझते हुए अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पिछले दिनों तो पाक-अफगान सीमावर्ती स्वात घाटी क्षेत्र में तालिबानों ने आतंकवाद का ऐसा खेल खेला कि पाकिस्तान व नाटो सेना ने भी उनकी तांकत के आगे घुटने टेक दिए। तालिबानों ने अपनी तांकत के बल पर पाकिस्तानी सरकार से अपनी बात मनवाते हुए इस पूरे कबायली क्षेत्र में शरिया कानून लागू करवा लिया। इस घटना को तालिबानों की बड़ी जीत तथा सैन्य शक्ति की हार के रूप में देखा जा रहा है।

आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के भयावह परिणाम इसके नाम पर विभिन्न देशों में लाखों लोगों की होने वाली मौतें, आतकवाद के नाम पर होने वाले अरबों डॉलर के खर्च, लाखों बेगुनाहों साथ-साथ हजारों अमेरिकी व उसके सहयोगी देशों के सैनिकों की मौतों तथा इन सबके बीच विश्व में छाई भारी आर्थिक मंदी, बेरोंजगारी एवं मानवाधिकारों के हनन के परिणामस्वरूप उपजने वाले विश्वव्यापी असंतोष के बीच अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव गत् वर्ष नव बर में सम्‍पन्न हुए। इन चुनावों में जहां एक ओर राष्ट्रपति बुश की नीतियों का अनुसरण करने वाले जॉन मैकेन चुनाव मैदान में आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में अपनाई जाने वाली आक्रामक नीतियों का समर्थन कर रहे थे, वहीं एक अन्य अश्वेत प्रत्याशी बराक हुसैन ओबामा, महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सत्य, शांति एवं अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए दुनिया में शांति स्थापित करने की बात कर रहे थे। आंखिरकार अमेरिका में नव बर 2008 में सम्‍पन्न हुए राष्ट्रपति चुनावों में बराक ओबामा भारी अन्तर से विजयी घोषित हुए तथा 20 जनवरी को सत्य, अहिंसा तथा शांति की बात करने वाले पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ओबामा ने राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की। अमेरिकी राजनीति में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन के पीछे आंखिर क्या रहस्य था। महाबली, सर्वशक्तिमान तथा ऐसी और न जाने कितनी उपाधियों से पुकारे जाने वाले अमेरिका की जनता आंखिर जॉर्ज बुश के तथाकथित ‘आतंकवाद विरोधी युद्ध’ से ऊब कर क्योंकर शांति कीबात करने वाले ओबामा के समर्थन में एकमत हो गई? इसी ऐतिहासिक परिवर्तन ने एक बार फिर यह प्रश् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया है कि कहीं आज के हिंसापूर्ण वातावरण में महात्मा गांधी के आदर्शों की पुन: प्रासंगकिता तो महसूस नहीं की जा रही है? जहां तक ओबामा का प्रश्न है तो ओबामा का जीवन महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित रहा है। राष्ट्रपति चुनाव के समय ओबामा ने अपने सीनेट कार्यालय में महात्मा गांधी की वह तस्वीर लगा रखी थी जिसमें गांधी शांति का संदेश देते हुए नजर आ रहे हैं। ओबामा महात्मा गांधी के उस महान दर्शन के कायल हैं जिसके तहत गांधीजी ने विश्व समाज को किसी की दमनकारी नीतियों का विरोध शांतिपूर्ण तरींके से करने हेतु प्रेरित किया था। ओबामा यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सदैव गांधीजी को अपने आदर्श एवं प्रेरणा के रूप में देखा व समझा है। अपने कार्यालय में गांधी के चित्र लगाने के विषय में ओबामा फरमाते हैं कि मेरे सीनेट दं तर में गांधीजी की तस्वीर इसलिए लगी हुई है ताकि मैं यह याद रख सकूंकि वास्तविक परिणाम सिर्फ वाशिंगटन से नहीं बल्कि जनता के बीच से आएंगे। ओबामा कहते हैं कि भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने हेतु रणनीति तैयार करते वक्त गांधीजी को एक विकल्प का चुनाव करना था तथा गांधीजी ने इस विकल्प के रूप में भय के स्थान पर साहस का चुनाव किया। प्रश् यह है कि वैश्विक परिवर्तन की बात करने वाले तथा अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए बातचीत के माध्यम से समस्याओं का समाधान तलाशने वाले ओबामा तो हिंसा व आतंकवाद के इस विश्वव्यापी दौर में गांधीजी के आदर्शों पर चलते हुए आज के दौर में गांधी के आदर्शों को प्रासंगिक महसूस कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी जरूरी है कि आंखिर महात्मा गांधी ने स्वयं यह प्रेरणा कहां से हासिल की? निर्बल होने के बावजूद अन्याय के विरुद्ध साहस के साथ निर्भय होकर डटे रहना तथा असत्य के समक्ष नतमस्तक न होने जैसे बेशंकीमती गुण गांधीजी ने कहां से सीखे। उन्हें स्वयं यह प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई।

दरअसल सर्वधर्म समभाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले इस महान आदर्शवादी व्यक्ति ने अनेक धर्मों व स प्रदायों के इतिहास तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनमें जहां गीता का अध्ययन कर गांधीजी ने कर्म आधारित धर्म के सिद्धान्त पर चलने की जबरदस्त प्रेरणा हासिल की, वहीं इस्लामी इतिहास के करबला हादसे ने भी महात्मा गांधी के जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह थी इरांक के करबला शहर में फुरात नदी के किनारे पर घटित 680 ई0 की वह घटना जिसमें तत्कालीन सीरियाई शासक यजीद ने अपनी विशाल सेना के द्वारा हजरत मोहम्‍मद के नाती हजरत इमाम हुसैन व उनके परिवार के 72 सदस्यों को बेरहमी से कत्ल कर दिया था। दरअसल यदि हुसैन मदीना छोड़कर करबला न आते तो दुस्साहसी यंजीद मदीने में जाकर हंजरत हुसैन व उनके परिजनों व साथियों का कत्ल कर सकता था। परन्तु मदीने की पवित्रता को बचाए रखने के लिए हुसैन ने स्वयं मदीना छोड़ दिया तथा यह जानते हुए भी कि अब हुसैन अपने सभी साथियों के साथ यंजीद की सेना के हाथों कत्ल कर दिए जाएंगे फिर भी उन्होंने करबला की ओर रुंख किया। क्रूर, शक्तिशाली, दुष्‍कर्मी, अहंकारी, भ्रष्ट तथा चरित्रहीन शासक यजीद के आगे घुटने टेकने, समझौता करने अथवा उसकी कोई भी बात मानने के बजाए हंजरत हुसैन ने अपने परिजनों के साथ सुर्खुरु होकर शहादत हासिल की। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्लाम में आज जो कुछ भी सकारात्मक पहलू नंजर आते हैं उसका विस्तार विश्वव्यापी दिखाई देता है, उसमें सबसे बड़ा किरदार करबला में दी गई हुसैन की शहादत का ही है। जिस प्रकार हुसैन इस्लाम की रक्ष हेतु 72 व्यक्तियों का काफिला लेकर मदीने से करबला के लिए रवाना हुए थे, उसी घटना से प्रेरणा लेते हुए अपने पहले नमक सत्याग्रह में गांधीजी ने भी अपने साथ विभिन्न वर्ग व समाज के 72 लोगों को ही चुना। गांधीजी का मानना था कि विश्व में इस्लाम के विस्तार का कारण मुस्लिम शासकों की तलवारें नहीं बल्कि हुसैन जैसे महान संतों की कुर्बानी है। गांधीजी हजरत हुसैन की कुर्बानी से इस हद तक प्रेरित थे कि उनका मानना था कि यदि उनके पास भी हंजरत इमाम हुसैन जैसे मात्र 72 सिपाहियों की सेना होती तो वे भी भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई मात्र 24 घंटों में जीत सकते थे। उनका यहां तक कहना था कि यदि भारत एक सफल राष्ट्र बनना चाहता है तो इस देश को इमाम हुसैन के पद्चिन्हों पर चलना चाहिए।

गांधीजी अहिंसा के पुजारी होने के नाते भली-भांति समझ चुके थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का स पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजीभी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी। उदाहरण के तौर पर 1914 से लेकर 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गांधीजी ने अहिंसा की आवांज बुलंद की। इसी प्रकार 1939 से 1944 तक चलने वाले द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण हिंसा के समय भी गांधीजी अहिंसा परमो: धर्म: जैसे शांति सूत्र का प्रचार व प्रसार करते दिखाई दिए। गांधीजी हथियारों के विरुद्ध हथियार प्रयोग करने के बजाए हथियारों के विरुद्ध विचारों का प्रयोग करने की बात कहते थे। उन्होंने अन्याय व असमानता के विरुद्ध युद्ध करने का एक ऐसा इन्सानी तरींका समाज को दिया था जिसमें किसी को अपना दुश्मन बनाने की जरूरत नहीं पड़ती थी और न ही हथियार उठाने की आवश्यकता थी। वे समाज को अपने विचारों से सहमत करने तथा उसका हृदय परिवर्तन करने में विश्वास रखते थे। द्वितिय विश्व युद्ध में हुई भयंकर जान व माल की तबाही के बाद भी जब युद्ध से कोई नतीजा हासिल नहीं हुआ तब आंखिरकार संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 में गांधीजी के ही सिद्धान्तों के अनुरूप यह घोषणा की कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। अत: बातचीत के माध्यम से ही सभी मामले सुलझाए जाने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के इसी शांति प्रस्ताव पर संघ के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए थे।

अमेरिका सहित लगभग सारी दुनिया इस समय आर्थिक मंदी की भारी चपेट में है। ऐसे विषयों को लेकर भी गांधीजी पूरी तरह सचेत व बाखबर रहा करते थे। बड़े उद्योगों के प्रबल विरोधी गांधीजी बढ़ते हुए उद्योगवाद से बहुत चिंतित थे। उद्योगवाद की इस व्यवस्था को वे शैतानी व्यवस्था का नाम देते थे। गांधीजी का मानना था उद्योगवाद की व्यवस्था मनुष्य द्वारा मनुष्य का ही शोषण किए जाने पर आधारित व्यवस्था का नाम है। उद्योगवाद की व्यवस्था में विषमता तो बढ़ेगी परन्तु इस व्यवस्था में न्याय नहीं हो सकेगा। आज भारत जैसे देश में बढ़ती हुई बेरोंजगारी तथा बड़े एवं आधुनिक उद्योगों की भरमार ने यहां भी गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता की याद दिला दी है। देश में जहां कहीं भी लघु उद्योग, हस्त शिल्प, करघा उद्योग तथा कामगारों से जुड़े ऐसे अन्य तमाम उद्योग बंद पड़े हैं, वहां इससे जुड़े लोग बुरी तरह प्रभावित हैं तथा जहां कहीं भी ऐसे लघु उद्योग फल फूल रहे हैं, वहां का गरीब मजदूर, आम आदमी तथा कामगार वर्ग अपनी दो वक्त क़ी रोटी का प्रबंध कर पाने में सक्षम है।

दरअसल लघु उद्योग के पक्ष में गांधीजी की सोच के पीछे मु य कारण यही था कि गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों की बात ही सोचा करते थे। वे यह भली भांति जानते थे कि समाज में परिवर्तन, विकास या प्रगति के लिए यहां तक कि सामाजिक क्रांति लाने तक के लिए गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान का मिलना बहुत जरूरी है। वे यह भली भांति समझते थे कि एक नंगा, भूखा तथा बिना झोपड़ी का व्यक्ति देश की स्वतंत्रता अथवा स्वतंत्रता संग्राम के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकता। अत: देश की स्वतंत्रता की पूरी लड़ाई के केंद्र में गांधीजी हमेशा गरीबों के हितों के विषय में ही सोचा करते थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि गरीबों के हितों को लेकर क यूनिस्टों के विचार कांफी हद तक गांधीजी के विचारों से भी मेल खाते थे। यहां तक कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना र्स्वस्व झोंक चुके क्रांतिकारी लोग भी ंगरीबों के हितों की रक्षा की ही बातें करते थे। यही वजह थी कि स्वतंत्रता की लड़ाई के समय सबसे प्रमुख नारा यही बुलंद हुआ कि धन और धरती का बंटवारा होकर रहेगा। गरीबों के उत्थान के विषय को गांधीजी ने अपने दिल से किस हद तक लगा लिया था, यह बात उनके त्याग से आंकी जा सकती है। गांधीजी ने बैरिस्टर की पढ़ाई पास करने के बाद जब दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत शुरु की, उस समय कुछ ही समय में उनकी गिनती दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध वकीलों में होने लगी। कहा जा सकता है कि यह शोहरत भारत के उस युवा प्रतिभाशाली, ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्ति को मिल रही थी जोकि कुछ ही वर्षों के बाद भारत का भाग्यविधाता होने वाला था। गांधीजी 1905 के आसपास के दौर में अफ्रीकी अदालत में अपने अदालती जौहर दिखाकर लगभग 5 हंजार पाऊंड वार्षिक की आमदनी कर लिया करते थे। निश्चित रूप से यह आज के समय के हिसाब से बहुत बड़ी रंकम कही जा सकती है। क्योंकि उस समय मात्र एक पाऊंड में सात तोला सोना खरीदा जा सकता था। कहा जा सकता है कि आमदनी के लिहांज से गांधीजी न केवल एक सफल बल्कि एक स पन्न वकील भी थे। जाहिर है उस समय उनके पास ठाठ-बाट, ऐशो-आराम, किसी चींज की कोई कमी नहीं थी। परन्तु हकीकत तो यह थी कि सब कुछ होने के बावजूद इस महान आत्मा के भीतर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की एक ज्वाला धधक रही थी। और यह ज्वाला असमानता व अन्याय के विरुद्ध आवांज उठाने की थी। अफ्रीका में उस समयव्याप्त रंगभेद को समाप्त करने की तथा भारत की गुलामी की जजीरों से मुक्त कराने की ज्वाला थी। गांधीजी की इसी सोच ने उन्हें अपने कोट पैंट, टाई सूट त्यागने तथा गरीबों के बीच रहकर गरीब लोगों की तरह तन पर एक धोती लपेटने की प्रेरणा दी। और तभी गांधीजी ने कहा था कि जब तक देश के ंगरीबों को सब कुछ नहीं मिल जाता, तब तक मैं कुछ भी नहीं ग्रहण करूंगा।

गांधीजी भली भांति यह जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा देश के गांवों में बसती है। अत: जब तक गांव विकसित नहीं हो जाते, तब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद गांधीजी ने पंडित नेहरु से यह कहा भी था कि अब देश के गांवों की ओर देखिए। देश के आर्थिक आधार के लिए गांवों को ही तैयार करना चाहिए। गांधीजी का विचार था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ दूसरा स्तर भी बचाए रखना जरूरी है और यह दूसरा स्तर है ग्रामीण अर्थव्यवस्था का। स्वतंत्रता के पश्चात तत्कालीन सत्ताधीशों ने गांधीजी की इस बात को कितना महत्व दिया और कितना नहीं, यह एक अलग विषय है। परन्तु मनमोहन सिंह के रूप में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री कहीं न कहीं गांधीजी की भाषा बोलते जरूर दिखाई दे रहे हैं। मनमोहन सिंह कई बार यह दोहरा चुके हैं तथा राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कई योजनाएं भी घोषित कर चुके हैं जिनका संबंध गांव की ओर ध्यान दिए जाने से है। भारत सरकार द्वारा ऐसी नीतियों के कार्यान्वन से यह पता चलता है कि यहां भी एक बार फिर गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता ही सिर चढ़कर बोलती हुई दिखाई दे रही है।

गांधीजी देश के छोटे बच्चों को भी आत्म निर्भर बनाने की शिक्षा देना चाहते थे। इसीलिए वे श्रमदान करने व कराने के पक्षधर थे। मुझे याद है जब मैं छठी व सातवीं कक्षा में पढ़ा करता था, उस समय बांगबानी का एक विशेष ‘पीरियड’ हुआ करता था। इस दौरान कक्षा के सभी बच्चे स्कूल के बंगीचे में जाते तथा गांव के किसानों की ही तरह बंगीचे में खेती का पूरा काम करते। यहां तक कि रहट चलाने जैसा मेहनत करने वाला काम भी बच्चों को सामूहिक रूप से करना पड़ता था। यह शिक्षा प्रत्येक स्कूलों मेंमहात्मा गांधी द्वारा दी गई सीख तथा उनस प्राप्त प्रेरणा के अनुरूप ही दी जाती थी। इसका मकसद यह था कि बच्चे आत्म निर्भर रहें, श्रमदान सीखें और मेहनत करने से घबराएं या हिचकिचाएं नहीं तथा आवश्यकता पड़ने पर स्वयं खेती कर सकें, पुलों, बांधों, तालाबों, सड़कों व गलियों आदि का श्रमदान के द्वारा निर्माण कर सकें। परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अब श्रमदान की परिकल्पना ही लगभग समाप्त हो चुकी है। बांगबानी की जगह कंप्‍यूटर शिक्षा ने ले ली है। आधुनिक शिक्षा के नाम पर मनुष्य भले ही विकास की वर्तमान राह पर अग्रसर क्यों न हो परन्तु शारीरिक रूप से आज का छात्र निश्चित रूप से आलसी होता जा रहा है। क पयूटर शिक्षा एवं वर्तमान आधुनिक विज्ञान प्रौद्योगिकी ने भले ही एक ‘माऊस’ के माध्यम से पूरी दुनिया को उसकी मुट्ठी में ही क्यों न कर दिया हो परन्तु दुनिया को मुट्ठी में करने की बातें करने वाला यही बच्चा निश्चित रूप से अपने आस-पास की बुनियादी जरूरतों से अनजान तथा बेपरवाह प्रतीत होता है। अर्थात् श्रमदान करने की मानसिकता का अभाव आज के दौर में समाज को पूरी तरह से सरकारी व्यवस्थाओं पर आधारित बनाता जा रहा है। और यहां यह कहने की जरूरत ही नहीं कि सरकारी मशीनरी का अपना क्या हाल है।

गांधीजी के बताए हुए श्रमदान पर जब बात चली है तो एक बात यह बतानी भी जरूरी है कि भारत में गैर सरकारी तौर पर कई ऐसे संगठन काम कर रहे हैं जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुल, सड़कें तथा बांध आदि बनाने में महारत हासिल है। लेकिन भारत जैसे देश की विशालता के लिहांज से देश के आम लोगों को श्रमदान के प्रति जितना आकर्षित होना चाहिए था, उतना नहीं है। मंजे की बात तो यह है कि देश की सरकारी मशीनरी भी गांधीजी के इस फार्मूले की पूर्णतय: अवहेलना नहीं कर पाती। यही वजह है कि अक्सर मीडिया के माध्यम से श्रमदान में भाग लेते हुए विशिष्ट लोगों के चित्र कभी कभार प्रकाशित व प्रसारित होते दिखाई देते हैं, जिसमें कोई विशिष्ट नेता या अधिकारी प्रतीकात्मक रूप से श्रमदान कर अपनी फोटो खिंचवाता दिखाई देता है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश की एक गैर कांग्रेसी सरकार ने गांधीजी के श्रमदान के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए एक बहुत बड़ी राज्यव्यापी योजना की शुरुआत की है। राज्य में बढ़ते जा रहे जल संकट के परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने महात्मा गांधी के श्रमदान सिद्धान्त पर अमल करते हुए भोपाल की एक प्रसिद्ध झील की खुदाई शुरु की। बड़े पैमाने पर चले इस श्रमदान कार्यक्रम में राज्य के मुख्‍यमंत्री सहित वरिष्ठ अधिकारी, कलाकार, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, अनेकों सामाजिक संगठन तथा सभी धर्मों व स प्रदायोंके आम लोग शामिल हुए। राज्य सरकार ने इस योजना के अन्तर्गत प्रदेश की कई ऐसी झीलों व तालाबों को चिन्हित किया है जिन्हें श्रमदान के द्वारा पुन: उपयोग में लाने योग्य बनाया जाना है। बेशक इस योजना में सरकारी मशीनरी भी पूरा साथ दे रही है। परन्तु श्रमदान किए जाने की धारणा ही इस बात की स्वयं साक्षी है कि हो न हो गांधीजी की याद न सिंर्फ हमारे देश के लोगों को बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सारी दुनिया को सदैव आती रहेगी तथा गांधीजी के विचारों की प्रासंगिकता हमेशा ही हम सभी को महसूस होती रहेगी।

अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्धान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्य—‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की व्या या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्या या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। गीता से अत्यधिक प्रभावित गांधीजी ने निश्चित रूप से गीता से ज्ञान व भक्ति की प्रेरणा हासिल की होगी। परन्तु इस ग्रन्थ के माध्यम से उन्हें निष्काम कर्म की महिमा का जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। गीता के ‘कर्म करो और परिणाम की चिंता मत करो’ की सीख देकर गांधीजी दुनिया को यह समझाना चाहते थे कि वास्तव में किसी भी मनुष्य को यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि कर्म करने वाला व्यक्ति किस लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना कर्म कर रहा है। परन्तु मात्र लक्ष्य को ही केंद्र बिंदु मानकर यदि कर्म किया जाए तो कर्ता की स्थिति विषयान्ध जैसी हो जाती है। ऐसी स्थिति में वही कर्ता, कर्म करने की क्रिया को नजर अंदाज कर केवल और केवल लक्ष्य को साधने अथवा फल की प्राप्ति मात्र की ही दिशा में अंधा होकर चल पड़ता है। इसके लिए कोई भी रास्ता अपनान से नहीं हिचकिचाता इस सोच का परिणाम क्या होता है, यह आज दुनिया के किसी भी क्षेत्र में विशेषकर राजसत्ता से जुड़े क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशत: सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं। बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़े मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोंजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस ‘शार्टकट’ अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में सा प्रदायिकता फल फूल रही है। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय सा प्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्य भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं सा प्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। अब तो भारत के एक राज्य विशेष के कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग पूरे उत्तर भारतीयों के विरुद्ध नफरत के बीज बो रहे हैं। दरअसल यह इनके द्वारा किया जाने वाला कर्म नहीं है। बल्कि राज सत्ता रूपी फल फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विषयान्ध जैसी हो चुकी है। और एक विषयान्ध व्यक्ति नीतियों, सिद्धान्तों यहां तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य कोअर्जित करने के लिए निम् से निम्न स्तर तक के फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।

बड़े दु:ख के साथ यह भी कहना पड़ता है कि गांधीजी के सिद्धांतों, उनके दर्शन तथा उनके मानवतापूर्ण विचारों की सबसे अधिक धज्जियां स्‍वयं उनके गृह राज्‍य गुजरात में भारत में सक्रिय गांधीदर्शन की विरोधी विचारधारा रखनेवाली साम्‍प्रदायिक ताक़तों द्वारा उड़ाई जा रही है। चिराग़ तले अंधेरा की कहावत दरअसल गुजरात में ही चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। स्‍वतंत्र भारत में सबसे पहले व सबसे महत्‍वपूर्ण राजनैतिक व्‍यक्ति की हत्‍या भी सर्वप्रथम गांधीजी के ही रूप में हुई थी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि सभी समुदायों के लोगों को समान नज़रों से देखनेवाले गांधीजी दरअसल सत्ता अथवा बहुमत को केन्‍द्र में रखकर कोई निर्णय क़तई नहीं लेते थे। शांति, प्रेम, सद्भाव, सत्‍य एवं अहिंसा मानव प्रेम एवं सर्वधर्म समभाव उनके दर्शन एवं विचारों की बहुमूल्‍य पूंजी थी। परन्‍तु साम्‍प्रदायिकता की राजनीति करने वाले तत्‍वों को शायद गांधी के सर्वधर्म समभाव की नीति अच्‍छी नहीं लगी। आखिरकार साम्‍प्रदायिक के जह़र में डूबे एक धर्मान्‍ध व्‍यक्ति ने जोकि स्‍वयं हिंदू समुदाय से ही था तथा स्‍वयं को हिंदू समुदाय का शुभचिंतक समझता था, ने उस महान आत्‍मा के गोली मारकर शहीद कर दिया। परन्‍तु अपनी शहादत के बाद गांधी के विचार दरअसल और भी सिर चढ़कर बोलने लगे। भले ही उस महान आत्‍मा के आलोचक आज दुर्भाग्‍यवश भारतवर्ष में ही सबसे अधिक क्‍यों न हो परन्‍तु दुनिया के किसी भी देश से भारत की यात्रा पर आनेवाला कोइ भी राष्‍ट्र प्रमुख अथवा राष्‍ट्राध्‍यक्ष ऐसा नहीं है जो महात्‍मा गांधी जैसे महान व्‍यक्ति के समक्ष नतमस्‍तक होने, उनकी दिल्‍ली स्थित समाधि राजघाट पर न जाता हो। आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्‍याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधीजी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी। अत: यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि गांधीजी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्धांत कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं तथा रहती दुनिया तक सदैव प्रासंगिक रहेंगे।