कविता साहित्‍य

खिलौना

खिलौना

देख के नए खिलौने खुश हो जाता था बचपन में।
बना खिलौना आज देखिये अपने ही जीवन में।।

चाभी से गुड़िया चलती थी बिन चाभी अब मैं चलता।
भाव खुशी के न हो फिर भी मुस्काकर सबको छलता।।
सभी काम का समय बँटा है अपने खातिर समय कहाँ।
रिश्ते नाते संबंधों के बुनते हैं नित जाल यहाँ।।
खोज रहा हूँ चेहरा अपना जा जाकर दर्पण में।
alone manबना खिलौना आज देखिये अपने ही जीवन में।।

अलग थे रंग खिलौने के पर ढंग तो निश्चित था उनका।
रंग ढंग बदला यूँ अपना लगता है जीवन तिनका।।
मेरे होने का मतलब क्या अबतक समझ न पाया हूँ।
रोटी से ज्यादा दुनियाँ में ठोकर ही तो खाया हूँ।।
बिन चाहत की खड़ी हो रहीं दीवारें आँगन में।
बना खिलौना आज देखिये अपने ही जीवन में।।

फेंक दिया करता था बाहर टूटे हुए खिलौने।
सक्षम हूँ पर बाहर बैठा बिखरे स्वप्न सलोने।।
अपनापन बाँटा था जैसा वैसा ना मिल पाता है।
अब बगिया से नहीं सुमन का बाजारों से नाता है ।।
खुशबू से ज्यादा बदबू अब फैल रही मधुबन में।
बना खिलौना आज देखिये अपने ही जीवन में।।

 

 

आखिरी में सुमन तुझको रोना ही है

 

तेरी पलकों के नीचे ही घर हो मेरा

घूमना तेरे दिल में नगर हो मेरा

बन लटें खेलना तेरे रुखसार पे

तेरी जुल्फों के साये में सर हो मेरा
मौत से प्यार करना मुझे बाद में

अभी जीना है मुझको तेरी याद में

तेरे दिल में ही शायद है जन्नत मेरी

दे जगह मै खड़ा तेरी फरियाद में
मानता तुझको मेरी जरूरत नहीं

तुमसे ज्यादा कोई खूबसूरत नहीं

जहाँ तुमसे मिलन वैसे पल को नमन

उससे अच्छा जहां में मुहूरत नहीं
जिन्दगी जब तलक प्यार होना ही है

यहाँ पाने से ज्यादा तो खोना ही है

राह जितना कठिन उतने राही बढे

आखिरी में सुमन तुझको रोना ही है