राजनीति

बहुत विश्वसनीय नहीं ट्रंप की दोस्ती

जेलेंस्की-ट्रंप बहस के बहाने से

भुलावे में न रहे भारतीय नेतृत्व

डॉ घनश्याम बादल

अमेरिका राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पूरी तरह फॉर्म में हैं । चाहे वह ,’अमेरिका फर्स्ट’ का मुद्दा हो या यूक्रेन का अथवा कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो को धमकाना हो अथवा भारत के साथ टैरिफ के मुद्दे को लेकर उलझना हो, ट्रंप हर जगह अपनी उपस्थिति ही दर्ज नहीं कर रहे हैं अपितु एक दबंग अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह का व्यवहार कर रहे हैं ।  भले ही दुनिया भर के देश एवं उनके नेता इस बात से परेशान हो लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति पद की दौड़ में रहते हुए उम्मीदवार के रूप में उन्होंने जो वादा किया था कि इस बार उनके कार्यकाल में उनका एकमात्र मुद्दा अमेरिका फर्स्ट होगा, उस पर भी खरे उतर रहे हैं।  अब इसके लिए चाहे उन्हें अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक एवं राजनीतिक शिष्टाचार की मर्यादाएं लांघनी पड़ें या फिर अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सद्भाव की सीमाओं को पार करना पड़े ट्रंप ज़रा भी हिचक नहीं रहे हैं ।  इस क्रम में उन्होंने अपने गहरे दोस्त कहे जाने वाले  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को भी आईना   दिखा दिया है ।

   इतना ही नहीं, यह जानते हुए भी कि यूक्रेन ने अमेरिकी शह एवं मदद के दम पर ही रूस से टक्कर ली थी, अब अपने हितों को साधने के लिए ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को जिस तरह से अपमानित किया, वह भी एक देखने वाली बात है। अभी पिछले दिनों यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की  के बीच जिस तरह से मीडिया के सामने तीखी बहस हुई, वह कूटनीतिक दृष्टि से हैरतअंगेज़  है । प्रायः देखने में आता है कि चाहे दो देशों के बीच में कितने भी कटु संबंध क्यों न हों लेकिन दोनों देशों के प्रमुख आमने-सामने बैठकर और वह भी मीडिया की उपस्थिति में कभी इस तरह से बहस नहीं करते , और खास तौर से एक मेजबान देश होने के नाते तो मेहमान राष्ट्राध्यक्ष को ‘स्टुपिड’ कहना या खुले आम धमकाना किसी भी तरह से जायज़ नहीं कहा जा सकता है।

     ‌‌दरअसल डोनाल्ड ट्रंप दूसरी पारी में ‘अमेरिका फर्स्ट’ के ध्येय  वाक्य से बनी छवि को बरकरार रखना चाहते हैं । सच तो यह है कि अमेरिका ने जेलेंस्की को अपने देश में बुलाया ही  धमकाने के लिए था क्योंकि अमेरिका यूक्रेन पर जिस तरह से हथियार देने में खर्च कर रहा था, उसके बदले में उसे बहुत कुछ चाहिए था मगर जेलेंस्की ने वह देने से मना कर दिया और देने की बात आने पर वह भी बराबर का  सौदा करना चाहते थे।  ट्रंप ने अपने मंतव्य को जेलेंस्की को समझाने के लिए अपने उपराष्ट्रपति को लगाया लेकिन मीडिया के सामने उन्होंने जो कहा, वह  जेलेंस्की को गवारा नहीं हुआ और उन्होंने भी पलट कर तीखे जवाब ही नहीं दिए अपितु साफ कर दिया कि वे बिना सुरक्षा की गारंटी मिले कतई दबाव में नहीं आने वाले हैं। हद तो तब हो गई जब ट्रंप ने  मीडिया के सामने ही खुलकर कहा ‘या तो आप डील कीजिए नहीं तो फिर भुगतने के लिए तैयार रहिए।’

   वैसे तो अमेरिका का तो इतिहास रहा है कि स्वार्थों को पूरा करने के लिए न केवल दूसरे देशों पर आक्रमण किया अपितु वहां के स्थापित नेताओं को हटाकर अपनी पसंद के कठपुतले  बैठा दिए । इराक में सद्दाम हुसैन, लीबिया में कर्नल गद्दाफी की तरह ही अमेरिका की मनमानी अफगानिस्तान, पाकिस्तान बांग्लादेश कनाडा, दक्षिण कोरिया, और दूसरे कई देशों में चली।  इतना ही नहीं संयुक्त सोवियत गणराज्य के टुकड़े करवाने के लिए भी उसने बहुत कुछ किया और अपने तरीके से उन्होंने अपना उद्देश्य पूरा करके अपने बहुत बड़े कट्टर प्रतिद्वंद्वी को काफी कमजोर कर दिया।

       फिर रूस के दबदबे को कम करने के लिए उसने एवं यूरोप के देशों ने यूक्रेन को नाटो से जोड़ने के लिए सारे घोड़े खोल दिए। कहने के लिए एक छोटा सा मुद्दा था और हर देश की पसंद या नापसंद की स्वतंत्रता को इंगित करता था लेकिन यह भी सच है कि यदि यूक्रेन आसानी से नाटो से जुड़ जाता तो फिर रूस विरोधी यूरोपीय देश एवं अमेरिकी ताकतें रूस के क्षेत्र में आसानी से हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ जाती।

     अब यूक्रेन में राष्ट्रपति जेलेंस्की हों या कोई और, इससे अमेरिका को फर्क नहीं पड़ता । उन्हें तो बस अपने हितों को साधने वाला एक ‘पपेट’ चाहिए और जब तक जेलेंस्की एक कठपुतली के रूप में काम करते रहेंगे, तब तक अमेरिका उनके पीछे खड़ा रहेगा और जब वें अमेरिका के खिलाफ बोलेंगे या अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करेंगे तो फिर उन्हें भी उठकर डस्टबिन में डाल दिया जाएगा और उनकी जगह कोई दूसरा विकल्प यूक्रेन में बैठा दिया जाएगा जो अमेरिका के स्वार्थ की आसानी से पूर्ति कर सके।

     कुल मिलाकर अमेरिका का एक ही लक्ष्य है और वह है दुनिया भर में अपनी दादागिरी स्थापित करना और जो भी इस बीच में आता है ,अमेरिका ने कभी उस पर रहम नहीं दिखाया है ।

    यह सोचना कि यदि डोनाल्ड ट्रंप की जगह कोई और राष्ट्रपति होता तो ऐसा नहीं होता ग़लत है । हां, यह सच है कि डोनाल्ड ट्रंप कुछ अलग ही किस्म के व्यक्ति हैं और एक उद्योगपति के रूप में उन्हें न केवल अमेरिका अपितु अपना भी स्वार्थ साधना है ।

     बहुत लंबे समय से अमेरिका दूसरे देशों के प्राकृतिक संसाधनों को अपने हितों के लिए उपयोग करता रहा है। अरब क्षेत्र में पेट्रोलियम एवं खनिज पदार्थ को कौड़ियों के दाम में लेने के लिए वह कूटनीतिक षड्यंत्र रचता रहा है।  पाकिस्तान को भी उसने इसीलिए लंबे समय तक गोद में बैठाए रखा ताकि वहां के प्राकृतिक खनिजों का उपयोग कर सके और एशिया क्षेत्र में भारत व चीन पर निगाह रख सके । वियतनाम में वह  20 साल तक जूझता है तो केवल अपने स्वार्थ के लिए। मौका पड़ने पर तो वह उत्तर कोरिया को भी अपने पाले में खींचने के लिए सारे आदर्श एक तरफ रख देता है। यानी उसे न लोगों की चिंता होती है न दुनिया भर में युद्ध के उन्माद में मरने वालों की।  उसका एक ही लक्ष्य है कि उसका सिक्का चलता रहे। 

     जहां तक यूरोपीय देशों की बात है तो वे अमेरिका के साथ ही रहने वाले देशों के रूप में जाने जाते रहे हैं। 

पर, एक बात जान लीजिए कि यूक्रेन से निकट भविष्य में रूस  हटने वाला नहीं है और न ही पुतिन इस भुलावे में आने वाले नेता हैं कि डोनाल्ड ट्रंप पर आंख मुड़कर विश्वास कर लें क्योंकि वे जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जिसका मौका लगता है, वहीं दूसरे को पटखनी दे देता है।‌ इस संदर्भों में भारतीय कूटनीतिज्ञों एवं राजनेताओं को भी बहुत सजग, सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप जैसे अस्थिर मन वाले व्यक्ति पर आंख मूंद कर विश्वास करना या यह मान लेना कि वह दोस्ती निभाने के लिए अपने या अपने देश के हितों से पीछे हट जाएंगे, सही नहीं होगा।