ट्रंप की वापसी और व्यापार युद्ध की वैश्विक आग: दुनिया के लिए चेतावनी की घंटी

डोनाल्ड ट्रंप की संभावित वापसी के साथ वैश्विक व्यापार युद्ध का खतरा फिर गहराने लगा है। उन्होंने विभिन्न देशों को शुल्क बढ़ोतरी की चेतावनी देते हुए पत्र भेजे हैं। इससे भारत सहित दुनिया भर में आर्थिक अस्थिरता बढ़ सकती है। भारत को आत्मनिर्भर बनते हुए, नए साझेदारियों पर ध्यान देना चाहिए और विश्व मंचों पर व्यापार नीति में संतुलन की वकालत करनी चाहिए। व्यापार को सहयोग का माध्यम बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, युद्ध और महंगाई जैसे संकटों से जूझ रही है, ऐसे में एक बार फिर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वापसी की संभावनाओं के साथ वैश्विक व्यापार युद्ध की आहट सुनाई देने लगी है। हाल ही में ट्रंप द्वारा कई देशों को भेजे गए पत्रों और उनकी सख्त व्यापार नीति के बयान इस बात का संकेत हैं कि यदि वे फिर से सत्ता में आते हैं, तो ‘अमेरिका सर्वप्रथम’ की नीति के तहत विश्व व्यापार व्यवस्था को झकझोर देने में वे पीछे नहीं हटेंगे।

यह केवल अमेरिकी चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं, बल्कि एक ऐसी सोच है जो पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिरता, व्यापारिक समझौतों और राजनयिक संतुलन को प्रभावित कर सकती है। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वे व्यापार को कोई कूटनीतिक माध्यम नहीं, बल्कि दबाव बनाने का साधन मानते हैं। चीन, मैक्सिको, यूरोपीय संघ, भारत—किसी को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने आयात शुल्क को हथियार बनाकर अपने हित साधे और जबरदस्ती शर्तें मनवाईं। अब एक बार फिर, ट्रंप ने अपने बयानों में यह चेताया है कि यदि अन्य देश अमेरिका के साथ ‘उचित’ व्यापार समझौते नहीं करते, तो उन्हें भारी शुल्क देना होगा। उनके हालिया पत्रों में स्पष्ट रूप से 10 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक शुल्क लगाने की चेतावनी दी गई है। यह सिर्फ धमकी नहीं, बल्कि एक रणनीति है जो वैश्विक व्यापार सहयोग को प्रतिस्पर्धा और भय में बदल देती है।

भारत को ट्रंप की इन नीतियों से दोहरे परिणाम मिल सकते हैं। एक ओर, अमेरिका चीन से दूरी बनाकर भारत जैसे देशों की ओर रुख कर सकता है, जिससे भारत को व्यापारिक अवसर मिल सकते हैं। दूसरी ओर, ट्रंप की ‘कड़ी शर्तों वाली’ व्यापार नीति भारत को अमेरिकी दबाव में ला सकती है। भारत पहले भी ट्रंप प्रशासन के दौरान कुछ उत्पादों पर शुल्क बढ़ोतरी का शिकार बन चुका है — जैसे इस्पात और एल्यूमिनियम। यदि ट्रंप फिर सत्ता में लौटते हैं, तो यह दबाव और अधिक हो सकता है। विशेष रूप से औषधि उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं, और वस्त्र उद्योग जैसे क्षेत्रों में भारत को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

व्यापार युद्ध किसी एक देश की समस्या नहीं होती — यह पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। जब अमेरिका शुल्क बढ़ाता है, तो बदले में अन्य देश भी प्रत्युत्तर में शुल्क लगाते हैं। इससे वैश्विक आपूर्ति तंत्र टूटता है, महंगाई बढ़ती है, और आर्थिक मंदी का खतरा मंडराता है। 2018-19 के दौरान ट्रंप और चीन के बीच चले व्यापार युद्ध से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अस्थिरता आई थी। विश्व व्यापार संगठन को भी झटका लगा था, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि दर में गिरावट देखी गई थी। वही स्थिति अब फिर से उत्पन्न हो सकती है।

ट्रंप के पत्रों में स्पष्ट रूप से लिखा है — “या तो आप व्यापार समझौता करें, या 60 प्रतिशत शुल्क भरें।” यह भाषा किसी सभ्य कूटनीतिक वार्ता की नहीं, बल्कि व्यापारिक दबाव की है। वे अमेरिका को ‘व्यापार का सर्वश्रेष्ठ केंद्र’ समझते हैं और अन्य देशों को केवल ग्राहक। उनकी यह शैली ‘राजनयिक आतंकवाद’ जैसी प्रतीत होती है — जहां व्यापार एक हथियार है, और विरोध का अर्थ है दंड। यह नीति न केवल व्यापारिक संतुलन को प्रभावित करती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी तनावपूर्ण बना सकती है। उनके दृष्टिकोण में दीर्घकालिक सहयोग के लिए कोई स्थान नहीं है, केवल तात्कालिक लाभ सर्वोपरि है।

ट्रंप ने उच्च तकनीक उद्योगों और सेमीचालक निर्माण क्षेत्र को भी निशाना बनाया है। वे चाहते हैं कि अमेरिका के बाहर बनने वाले उन्नत तकनीकी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाया जाए, ताकि कंपनियाँ अमेरिका में उत्पादन करें। इससे भारत की सूचना प्रौद्योगिकी आधारित कंपनियों को भी झटका लग सकता है, जो अमेरिकी तकनीकी कंपनियों को सेवाएं देती हैं। यदि ट्रंप ने कामकाजी वीज़ा नीति को फिर से कठोर किया, तो भारतीय तकनीकी विशेषज्ञों को अमेरिका में नौकरी पाने में कठिनाइयाँ होंगी।

ट्रंप का ‘अमेरिका सर्वप्रथम’ नारा वैश्वीकरण की भावना के विपरीत है। यह राष्ट्रवाद को व्यापार के केंद्र में रखता है और सहयोग की बजाय प्रतियोगिता को महत्व देता है। लेकिन आज की अंतरसंबंधित विश्व अर्थव्यवस्था में कोई देश अकेले आगे नहीं बढ़ सकता। आज की दुनिया साझेदारी आधारित विकास की मांग करती है — जहां तकनीक, व्यापार और नवाचार एक साथ चलते हैं। ट्रंप की नीति इस ताने-बाने को तोड़ सकती है।

ट्रंप की इस नीति से अमेरिका और अन्य देशों के बीच अविश्वास बढ़ सकता है। चीन और रूस पहले से अमेरिका से दूरी बनाए हुए हैं। अब यदि ट्रंप दक्षिण एशियाई और यूरोपीय देशों पर भी इसी प्रकार दबाव डालते हैं, तो एक नया राजनयिक विभाजन देखने को मिल सकता है। यह व्यापार युद्ध धीरे-धीरे एक नया वैश्विक ध्रुवीकरण बन सकता है — जहां देश अलग-अलग समूहों में बंट जाएंगे।

भारत को चाहिए कि वह इस व्यापार युद्ध की स्थिति में न तो अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर हो, और न ही चीन या रूस की ओर झुके। उसे ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को सशक्त बनाते हुए यूरोप, अफ्रीका, और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ वैकल्पिक व्यापारिक संबंध मजबूत करने चाहिए। साथ ही, भारत को विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ट्रंप की व्यापार नीति का तर्कसंगत विरोध भी करना चाहिए।

अमेरिका द्वारा लगाए गए शुल्कों का सीधा असर भारत के निर्यात पर पड़ता है। इससे भारत के उत्पाद महंगे हो जाते हैं और उनकी प्रतिस्पर्धा घटती है। भारतीय कंपनियों का मुनाफा कम होता है, जिससे उत्पादन घटता है और नौकरियाँ जाती हैं। वहीं अमेरिका में भी उपभोक्ताओं को वही वस्तुएं अधिक मूल्य पर खरीदनी पड़ती हैं। इस प्रकार यह स्थिति दोनों देशों की आम जनता के लिए घातक होती है। व्यापार युद्ध से केवल उद्योगपति नहीं, बल्कि श्रमिक, किसान, लघु उद्यमी और उपभोक्ता सभी प्रभावित होते हैं।

ट्रंप की वापसी और व्यापार युद्ध की धमकी को भारत और विश्व को हल्के में नहीं लेना चाहिए। यह केवल एक व्यक्ति की नीति नहीं, बल्कि एक ऐसी विचारधारा है जो पूरी वैश्विक व्यापारिक संरचना को चुनौती देती है। भारत को दूरदर्शिता से काम लेते हुए, वैकल्पिक साझेदारियाँ, आत्मनिर्भर आर्थिक ढांचा और वैश्विक मंचों पर सक्रिय भागीदारी के द्वारा इस संकट का समाधान खोजना होगा।

यदि व्यापार को युद्ध में बदल दिया गया, तो कोई भी राष्ट्र विजेता नहीं बनेगा — केवल दुनिया हारेगी।

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