चुनाव राजनीति

मोदीमय भाजपा की सच्चाई

-देवेन्द्र कुमार- bjp

कभी अपने चाल ,चलन और चरित्र पर इठलाती – इतराती रही भाजपा का नरेन्द मोदी का राजनीतिक विस्तार के साथ ही व्यक्तित्व केन्द्रित हो जाना एक तल्ख सच्चाई बन चुकी है। यद्धपि पहले भी भाजपा अपने नेतृत्व चयन में जिस प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का ढि़ंढोंरा पिटती रहती थी, वह एक छलावा ही था, क्योंकि तब भी भाजपा का नेतृत्व प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से इतर बन्द कमरे में आर एस एस प्रमुख के द्वारा चयनित होता था और आज भी हो रहा है पर पहले कम से कम एक शर्म की चादर खिंची रहती थी पर इस बार यह चादर भी तार -तार हो गया।

भाजपा अपने इतिहास में इस कदर व्यक्तित्व केन्द्रित हो कर चुनाव नहीं लड़ा था, अटल विहारी वाजपेयी चाह कर भी आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का अमूल्यन नहीं कर पाये थे। यद्यपि उपप्रधानमंत्री जैसे असंवैधानिक पद के लिए तब भी आडवाणी को चिरौरी जरुर करनी पड़ी थी, मान-मनौबल का खेल खेलना पड़ा था, पर आडवाणी की अपनी राजनीतिक आभा थी, चमक था। वाजपेयी के समानान्तर आडवाणी का व्यक्तिव फैलता-फूलता रहता था। वाजपेयी चाह कर भी निरकुंश राजनीति का दामन थाम नहीं सकते थे। और आडवाणी अपने स्वर्णीम काल में भी वाजपेयी को राजनीतिक रूप से दरकिनार नहीं कर सके। दो सांसद वाली भाजपा का, राजनीतिक वियावान से निकल कर सत्ता के शीर्ष तक का सफर आडवाणी की रथयात्रा पर सवार होकर ही की गई थी और तब आडवाणी की लोकप्रियता अपने चरम पर थी पर आडवाणी के हिस्से प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं आई। खुद आडवाणी ने आगे आकर रथयात्रा से बार-बार अपनी असहमति दिखला चुके वाजपेयी के नाम को आगे किया। किसी को भी लग सकता है कि यह चाल, चलन और चरित्र के स्तर पर एक अलग पार्टी है, जहां मर्यादा है, संयम है और शालीनता है, सत्ता का खींच-तान नहीं है, एक दूसरे का पैर खींचने की होड़ नहीं है, पर यह भी साफ है कि यह पूरा प्रजातांत्रिक ताना-बाना महज इस लिए फलता-फूलता दिखता है कि संघ परिवार का सीधा राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण कोई चाह कर भी अपनी निरकुंशता स्थापित नहीं कर पाता। भाजपा का पूरा राजनीतिक नियंत्रण संघ परिवार के हाथों में रहा।

सवाल यह है कि तब आज संघ परिवार को एैसी क्या जरूरत पड़ गई कि वह वह कड़ी मशकक्त से गढ़ी गई भाजपा के चाल, चलन और चरित्र में बदलाव कर, अपने मानस पुत्र भाजपा का कद छोटा कर नरेन्द्र मोदी का विराट व्यक्तित्व गढ़ने पर आमादा है। वह संघ परिवार जो सवर्ण राजनीति का झंडाबरदार रही है, आज अचानक पिछड़ा-अतिपिछड़ा की पहचान क्यों उछालने लगी, इस देश के बहुजनों की याद उसे क्यों आने लगी, पंडित दीनदयाल उपाघ्याय, पंडित हेडगवार, पंडित अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पीछे छोड़ वह सरदार पटेल का प्रतिमा गढ़ने का उपक्रम क्यों कर करने लगी । कहा जा सकता है कि इसमें संघ परिवार कहां से आया ,पर क्या बगैर संघ परिवार की इजाजत के ही नरेन्द्र मोदी भाजपा को पिछड़वाद के नये कलेवर में ढालने को आमादा है।

तब क्या यह भाजपा में नरेन्द्र मोदी का पिछड़ावाद है, पर नरेन्द मोदी का पिछड़ावाद तब कहां सो रहा था, जब संघ परिवार के इशारे पर मंडल की काट में कमंडल की यात्रा निकाली जा रही थी, सवर्ण जाति के युवकों को आत्मदाह करने के लिए उकसाया जा रहा था। दरअसल, हिन्दुत्व की राजनीति से पिछड़ावाद की ओर दिखता हुआ यह पलायन संघ परिवार की ही वृहत राजनीति का हिस्सा भर है और खुद मोदी इसके एक उपकरण मात्र। मंडल आन्दोलन के बाद से ही हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों में भाजपा की उपस्थिति कमजोर हुई है, वह अपनी खोई जमीन वापस नहीं पा सकी। दलित-पिछड़ी जातियों ने अपने क्षेत्रीय- पिछड़े नेतृत्व में ही अपनी आस्था व्यक्त किया और इसकी काट भाजपा अब तक खोज नहीं पाई थी। अब संघ परिवार ने मोदी को सामने कर हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों के पिछड़ा नेतृत्व को विस्थापित करने की दूरगाामी चाल चला है और यही कारण है कि मोदी को हर वह चाल चलने की इजाजत है, जिससे कि हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों के पिछड़े नेतृत्व को पदच्युत किया जा सके, उनकी साख को कमजोर किया जा सके।

यही कारण है कि एक ओर मोदी की ओर से काग्रेंस के वंशवाद पर शहजादे का जुमला उठा तंच कसी जाती है, पर साथ ही रामविलास पासवान का वंशवाद – कुनबावाद की पालकी भी ढोई जाती हैं, लालू -कांग्रेस का भ्रष्टाचार दिखलाई तो पड़ता है पर येदुरप्पा का भ्रष्टाचार महज विरोधियों की  साजिश नजर आती है। आपातकाल की चर्चा कर कांग्रेस को घेरा तो जाता है, पर उसी आपातकाल का महत्वपूर्ण किरदार स्व. संजय गांघी के शहजादे वरुण गांघी के पक्ष में कसीदे पढ़ने में कोई नैतिक संकोच नहीं होता और तो और खुद भाजपा में स्थापित राजनेताओं के शहजादों को चुनावी टिकट की सौगात जनतंत्र की जड़ों को मजबूती प्रदान करता माना जाता है। सच तो यह है कि आज पूरी भाजपा मोदी से त्राहिमाम है, भाजपा में भाजपा की फिक्र किसी को नहीं है। कभी भाजपा में कद्दावर रहे नेताओं को भी आज की चिन्ता महज अपनी कुर्सी की सलामती की ही है । एक तरफ कॉरपोरेट घरानों की उगाही से देश को मोदी की जरूरत बतायी जा रही है, वहीं दूसरी ओर कभी भाजपा के खेवनहार रहे बुजुर्ग राजनेताओं में एक अदद सुरक्षित सिट के लिए मारा-मारी है।

पर इस तमाम मोदी विरोघ के बावजूद मोदी पर सहमति का कारण सिर्फ और सिर्फ संघ परिवार का हस्तक्षेप ही है, संघ को अपनी दूरगामी राजनीति चलनी है, इसीलिए चुनाव तक मोदी को छूट है पर चुनाव परिणामों के बाद संघ परिवार अपनी सामाजिक जरुरतों के हिसाब से फिर से भाजपा की राजनीति को दिशा-निर्देशित और रुपातंरित करेगा और तब मोदी के खिलाफ कड़े फैसले लेने में उसे कोई परहेज भी नहीं होगा क्योंकि तब तक संघ परिवार के लिए मोदी की उपादेयता सीमित हो चुकी होगी। संघ परिवार को एक एैसे नेतृत्व की तलाश होगी जो एनडीए के कुनबे को फिर से विस्तार दे सके और तब शायद भाजपा अघ्यक्ष राजनाथ सिंह संघ परिवार की सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरतों को ज्यादा बेहतर ढंग से पूरा कर सकें।
साफ है, भाजपा का प्रजातांत्रिक ताना-बाना महज  दिखावा था, उसी प्रकार इसका मोदीमय हो जाना भी महज संघ परिवार की राजनीतिक मजबूरी या चाल है, असली ताकत संघ में ही नीहित है और उसके हाथ मे ही सत्ता की असली बागडोर है। असली मदाड़ी संघ परिवार है भाजपा तो उसके हाथ की एक अनुशासित बन्दरीया भर है और मोदी का किरदार ज्महुरे के सिवा कुछ नहीं है।