उधम सिंह: लंदन की अदालत में भारत की गरिमा का नाम

उधम सिंह केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक विचार थे—संयम, संकल्प और सत्य का प्रतीक। जलियांवाला बाग़ के नरसंहार का प्रत्यक्षदर्शी यह वीर 21 वर्षों तक चुपचाप अपने मिशन की तैयारी करता रहा और लंदन जाकर ओ’डायर को गोली मारकर भारत का प्रतिशोध पूरा किया। उनकी चुप्पी न्याय की गर्जना थी, जो आज भी हमें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है। आज उनकी याद केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि आत्ममंथन की पुकार है—क्या हम उधम सिंह के उत्तराधिकारी बन पाए हैं?

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई केवल तलवारों की टंकार या जुलूसों की गूंज नहीं थी, वह उन आंखों में पलते संकल्पों की लड़ाई थी, जो वर्षों तक प्रतिशोध को अपनी आत्मा में पाले रही। वह उन लोगों की कहानी थी, जो नारे नहीं लगाते थे, लेकिन भीतर ही भीतर एक ज्वालामुखी की तरह उबलते रहते थे। उन ज्वालाओं में से एक नाम था — उधम सिंह।

उधम सिंह, जिन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी में अपने साथियों का खून देखा। जिन्होंने अपने जीवन को एक ही लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया — न्याय। यह कहानी है एक ऐसे वीर की, जो किसी अखबार की सुर्ख़ी नहीं बना, लेकिन इतिहास की सबसे करारी चोट साबित हुआ।

13 अप्रैल 1919, अमृतसर। बैसाखी का त्यौहार था। जलियाँवाला बाग में हज़ारों लोग शांतिपूर्वक एकत्र थे। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि यह दिन इतिहास के सबसे रक्तरंजित दिनों में तब्दील हो जाएगा। जनरल डायर की क्रूरता ने मासूमों पर गोलियों की बौछार कर दी। न कोई चेतावनी, न कोई चेतावक विचार। निहत्थे लोगों पर मशीनगनों से फायरिंग हुई। लाशों की चादर बिछ गई। सैकड़ों लोग मारे गए, और हज़ारों ज़ख़्मी। पूरा बाग खून से लाल हो गया।

उसी नरसंहार में एक 20 वर्षीय युवा घायल, लेकिन जीवित बचा—उधम सिंह। उन्होंने न केवल उस घटना को देखा, बल्कि उसे अपने सीने में पत्थर की तरह गड़ा लिया। उन्होंने न शोर मचाया, न कोई शिकायत की। पर उनके अंदर एक ज्वाला धधक रही थी, जो शांति से नहीं बुझने वाली थी।

उधम सिंह ने अपने जीवन को एक ही दिशा दी—इस क्रूरता का बदला लेना। उन्होंने प्रतिशोध नहीं, न्याय की भाषा चुनी। वे वर्षों तक खामोशी से तैयारी करते रहे। अपने देश से दूर जाकर दुश्मन की धरती पर खड़े होकर भारत का परचम लहराने का उन्होंने प्रण लिया। यह कोई आवेश में किया गया कार्य नहीं था, यह एक सुनियोजित नैतिक युद्ध था।

1934 में वे लंदन पहुँचे। वहाँ वे गुमनाम ज़िंदगी जीते रहे। उनका मकसद केवल ओ’डायर तक पहुँचना था—वह व्यक्ति जिसने जनरल डायर के कत्लेआम को समर्थन और सम्मान प्रदान किया था। 13 मार्च 1940 को वह दिन आया, जब उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के एक सभागार में जाकर, कैक्सटन हॉल में ओ’डायर को गोली मारी। वह गोली केवल एक शरीर को नहीं भेदती थी, वह एक साम्राज्य की आत्मा को झकझोर देती थी।

उधम सिंह वहीं गिरफ्तार हुए। उन्होंने भागने की कोई कोशिश नहीं की। अदालत में खड़े होकर उन्होंने गर्व से कहा, “मैंने मारा है। यह प्रतिशोध नहीं, न्याय है। मैं अपने देश के लिए मरने जा रहा हूँ, और मुझे इस पर गर्व है।” उनके चेहरे पर न पछतावा था, न भय। वह एक आत्मा थी, जो न्याय के सिद्धांत पर अडिग थी।

ब्रिटिश शासन की नींव को यह घटना अंदर तक हिला गई। एक भारतीय, साम्राज्य की राजधानी में आकर, खुलेआम न्याय कर गया। यह केवल एक हत्या नहीं थी, यह अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ एक नैतिक घोषणापत्र था। उधम सिंह ने यह दिखा दिया कि भारतवासी केवल लड़ाई के मैदान में ही नहीं, विवेक और साहस के साथ भी लड़ सकते हैं।

आजादी के बाद भारत ने उधम सिंह को “शहीद-ए-आज़म” की उपाधि दी। लेकिन क्या हम सच में उनके विचारों और बलिदान के योग्य उत्तराधिकारी बन पाए हैं?

आज भी हमारे देश में अन्याय मौजूद है। बलात्कारियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है, पत्रकार जेलों में बंद हैं, गरीब किसान आत्महत्या कर रहा है और सत्ता मौन है। क्या यही वह भारत है, जिसकी कल्पना उधम सिंह ने की थी? क्या हममें से किसी के भीतर वैसी आग बची है?

उधम सिंह ने बंदूक चलाई थी, लेकिन वह गोली भारत की चेतना को जगा गई थी। वह गोली एक उदाहरण थी, कि अगर अन्याय को सहा गया, तो वह बार-बार दोहराया जाएगा। उन्होंने यह दिखाया कि सच्चा राष्ट्रभक्त वह नहीं जो तिरंगा लहराकर भाषण देता है, बल्कि वह है जो अन्याय के सामने कभी न झुके।

आज जब हम राष्ट्रवाद के नाम पर नफ़रत का बाज़ार सजते देख रहे हैं, तो उधम सिंह का नाम हमें आइना दिखाता है। उन्होंने कभी किसी धर्म, जाति या पार्टी के नाम पर संघर्ष नहीं किया। उनका उद्देश्य केवल एक था—न्याय और स्वतंत्रता।

उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर हम मोमबत्तियाँ जलाते हैं, प्रतिमाओं पर फूल चढ़ाते हैं। लेकिन यह श्रद्धांजलि तब तक अधूरी है जब तक हम उनके विचारों को अपने जीवन में न उतारें। देशभक्ति केवल एक दिवस की भावना नहीं हो सकती। वह एक निरंतर जागरूकता है, जो हर अन्याय के खिलाफ आवाज़ बनकर उठती है।

आज के युवाओं के लिए उधम सिंह एक आदर्श हैं। एक ऐसा आदर्श जो कहता है — “धैर्य रखो, पर चुप मत रहो। तैयारी करो, पर डर मत खाओ। न्याय माँगो नहीं, उसे प्राप्त करो।”

अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सच्चे नागरिक बनें, तो हमें उन्हें उधम सिंह की कहानी केवल पाठ्यपुस्तकों से नहीं, बल्कि जीवन के उदाहरणों से सिखानी होगी। उनकी तस्वीर केवल दीवार पर न टांगे, बल्कि उनके सिद्धांतों को अपने आचरण में उतारें।

भारत को आज भी उधम सिंह जैसे लोगों की ज़रूरत है। जो सत्ता से नहीं डरते, जो सत्य के लिए खड़े होते हैं, और जिनकी दृष्टि केवल अपने स्वार्थ तक सीमित नहीं होती। हमें उधम सिंह को केवल ‘अतीत’ नहीं, ‘वर्तमान’ बनाना होगा।

जिस दिन हम अपने चारों ओर अन्याय देखकर चुप नहीं रहेंगे, उसी दिन उधम सिंह का बलिदान सच्चे अर्थों में सार्थक होगा। वह दिन जब हर नागरिक अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ बन जाएगा—वही दिन उधम सिंह के भारत की शुरुआत होगी।

उधम सिंह की एक गोली ब्रिटेन की संसद में चली थी, लेकिन उसकी गूंज आज भी भारत की आत्मा में है। वह गूंज हमें हर रोज़ पूछती है—क्या तुम तैयार हो अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए? क्या तुम केवल श्रद्धांजलि देने आए हो या उनके जैसे कुछ करने का साहस भी रखते हो?

उधम सिंह सरदार केवल एक नाम नहीं, एक विचार हैं। वह विचार जो कहता है कि आज़ादी केवल राजनीतिक नहीं, नैतिक साहस से मिलती है। वह विचार जो हमें बार-बार याद दिलाता है कि क्रांति केवल तलवार से नहीं, आत्मा के विश्वास से होती है।

उधम सिंह, तुम्हें नमन!
तुम्हारी वह एक गोली आज भी हमें जगाने के लिए काफ़ी है।

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