अमेरिका के रेमिटेंस टैक्स से भारतीय प्रवासियों पर पड़ेगा बड़ा असर

संजय सिन्हा

अमेरिका ने  रेमिटेंस टैक्स लागू कर दिया है। दरअसल अमेरिका में भारतीयों सहित अमेरिकी गैर नागरिकों के धन विदेश भेजे जाने पर राशि पर प्रस्तावित शुल्क 5 प्रतिशत से घटाकर 3.5 प्रतिशत करने की योजना पेश की गई है। इससे अमेरिका में रह रहे भारतीयों को आंशिक राहत मिल सकती है। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा ने  ‘वन बिग ब्यूटीफुल बिल’ को संशोधित कर पारित किया है। अमेरिका के गैर भारतीय नागरिकों में एच-1बी, एल-1 और एफ-1 वीजा धारक के साथ-साथ ग्रीन कार्ड धारक हैं। हालांकि इस विधेयक में शुल्क से अमेरिकी नागरिकों और नैशनल्स को छूट दी गई है। आपको बता दूं कि  अमेरिका से अब घर पर पैसे भेजना भारतीयों को महंगा पड़ेगा। ट्रंप प्रशासन ने विदेश में भेजे जाने वाले धन पर पांच फीसदी टैक्स लगा दिया है। एक अनुमान के मुताबिक इस टैक्स के कारण अमेरिका में रहने वाले भारतीयों पर सालाना 1.6 अरब डॉलर से अधिक का बोझ पड़ सकता है। यह अनुमानित राशि आरबीआई के हालिया लेख में प्रकाशित 2023-24 के आंकड़ों पर आधारित है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘बिग प्रयोरिटी बिल’ में रेमिटेंस (धन प्रेषण) पर पांच फीसदी उत्पाद शुल्क लगाने का प्रस्ताव किया है। यह ग्रीन कार्ड और एच1बी वीजा रखने वालों सहित चार करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करेगा। प्रस्तावित शुल्क अमेरिकी नागरिकों पर लागू नहीं होगा। आरबीआई के मार्च बुलेटिन के प्रकाशित लेख के मुताबिक, विदेश में रहने वाले भारतीयों ने 2023-24 में 118.7 अरब डॉलर की राशि भारत भेजी है। यह आंकड़ा 2010-11 में भेजे गए 55.6 अरब डॉलर से दोगुना है। भारत भेजी गई कुल राशि में अमेरिका की हिस्सेदारी 2023-24 में बढ़कर 27.7 फीसदी पहुंच गई जबकि 2020-21 में यह 23.4 फीसदी रही थी। इस आधार पर अमेरिका में रहने वाले भारतीयों ने कुल 32.9 अरब डॉलर का राशि घर भेजी है। इसका पांच फीसदी 1.64 अरब डॉलर होगा।

लेख के मुताबिक, रेमिटेंस से मिली राशि का इस्तेमाल मुख्य रूप से परिवार के भरण-पोषण के लिए होता है। इसलिए, इसकी लागत बढ़ने का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होता है। इस लागत को कम करना वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण नीतिगत एजेंडा रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत 2008 से ही रेमिटेंस प्राप्त करने वाला शीर्ष देश बना हुआ है। वैश्विक स्तर पर धन प्रेषण में भारत की हिस्सेदारी 2001 के 11 फीसदी से बढ़कर 2024 में करीब 14 फीसदी पहुंच गई है। 2024 में जिन पांच देशों में विदेश से सबसे ज्यादा धन आया, उनमें 129 अरब डॉलर के साथ भारत शीर्ष पर रहा। अन्य देशों में मेक्सिको (68 अरब डॉलर), चीन (48 अरब डॉलर), फिलिपीन (40 अरब डॉलर) और पाकिस्तान (33 अरब डॉलर) शामिल हैं। ऐसा अनुमान है कि इस टैक्स से अमेरिका में रहने वाले भारतीयों पर हर साल 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा का बोझ पड़ेगा। आरबीआई के अनुसार, रेमिटेंस के तौर पर भारत में आने वाला पैसा 2010-11 में 55.6 अरब डॉलर था जो 2023-24 में बढ़कर 118.7 अरब डॉलर हो गया। भारत को मिलने वाले कुल पैसे में अमेरिका का हिस्सा 2020-21 में 23.4% था, जो 2023-24 में बढ़कर 27.7% हो गया। रेमिटेंस को भारत की ताकत माना जाता है। यह विदेशी मुद्रा का अहम जरिया है।

बिल में कहा गया है, ‘यह टैक्स रेमिटेंस सर्विस देने वाली कंपनियों को लेना होगा। फिर, इन कंपनियों को यह टैक्स हर तीन महीने में ट्रेजरी के सेक्रेटरी को जमा करना होगा।’ इसका मतलब है कि जो कंपनियां विदेश में पैसे भेजने की सुविधा देती हैं, उन्हें यह टैक्स वसूलना होगा और सरकार को देना होगा। इस बिल में कोई कम से कम सीमा नहीं तय की गई है। इसका मतलब है कि छोटे से छोटे लेनदेन पर भी टैक्स लगेगा। अगर भेजने वाला ‘वेरीफाइड यूएस सेंडर’ नहीं है तो उसे टैक्स देना होगा। ‘वेरीफाइड यूएस सेंडर’ का मतलब अमेरिका के नागरिक से है।

आप्रवासन को हतोत्साहित करने के अलावा यह समझ पाना मुश्किल है कि अमेरिका को इस कर से क्या लाभ होगा। सिलिकन वैली में पहले ही यह भय पैदा होने लगा है कि प्रशासन के प्रवासी विरोधी एजेंडे के कारण उसके पास प्रतिभाओं की कमी हो सकती है। अगर विदेशी छात्र-छात्राएं, जो विश्वविद्यालयों के राजस्व का मुख्य जरिया हैं, उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वैकल्पिक देशों का रुख करते हैं तो प्रतिभाओं तक पहुंच और भी कम हो जाएगी। जहां तक भारत का संबंध है, रेमिटेंस कर दुर्भावना भी दर्शाता है क्योंकि भारत ने व्यापार समझौते के पहले सहृदयता के संकेत के रूप में ऑनलाइन विज्ञापन पर लगने वाला 6 फीसदी का ‘गूगल कर’ एक अप्रैल से समाप्त कर दिया था। यह भारत-अमेरिका दोहरे कराधन निवारण संधि के गैर भेदभावकारी प्रावधान का उल्लंघन भी हो सकता है हालांकि अभी इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है।

यह विडंबना ही है कि प्रवासियों को अपना पैसा अमेरिका में रखने के लिए प्रेरित करने के बजाय यह कर उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित कर सकता है कि वे तय सीमा से नीचे रहने की कोशिश करें। इससे हवाला कारोबार दोबारा सिर उठा सकता है। व्यक्तिगत स्तर पर विनिमय नियंत्रण उदार होने के साथ ही हवाला का तंत्र कमोबेश खत्म हो चुका था। यह कुछ ऐसा होगा जो वास्तव में कोई नहीं चाहेगा। इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा प्रवाह पर निगरानी रखने की व्यवस्था कमजोर पड़ेगी। इसमें चाहे जितनी बुराई हो लेकिन संभावना यही है कि जून में सीनेट इसे पारित कर देगी क्योंकि वहां रिपब्लिकंस के पास सहज बहुमत है। ऐसा लगता  है कि 2026 के आरंभ में उस पर हस्ताक्षर हो जाएंगे। भारत को इसके प्रभाव के लिए तैयार रहना चाहिए।

संजय सिन्हा

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