राजनीति

बिना पानी के मिला उत्तराखण्ड वासियों का नया राज्य

 जयसिंह रावत

दशकों के लंबे संघर्ष, तीन दर्जन से अधिक शहादतों और व्यापक जनदबाव के बाद उत्तराखण्डवासियों को 9 नवम्बर 2000 को अपना अलग राज्य तो मिला मगर इस राज्य को इसके सबसे महत्वपूर्ण जल संसाधन से वंचित कर दिया गया। राज्य के तीन प्रमुख संसाधनों, जल, जंगल और जमीन, में से जंगल अब समवर्ती सूची में आने के कारण मुख्यतः केंद्र सरकार के अधीन हैं जबकि जमीन का केवल लगभग 13 प्रतिशत भाग ही राज्य सरकार के अधिकार में है। बाकी भूमि वन विभाग, हिमालयी पहाड़ों, नदी नालों और रक्षा प्रतिष्ठानों के अधीन है।

जलसंसाधन पर नियंत्रण का संकट

अगर आप राज्य गठन के लिये संसद द्वारा पारित उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन  अधिनियम की धारा 79 और 80 पर गौर करें तो एशिया के जलस्तंभ कहे जाने वाले हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश के विपुल जल संसाधन कानूनन राज्य के नियंत्रण में नहीं हैं। गंगा और यमुना जैसी नदियों के उद्गमस्थल होने के बावजूद राज्य का अधिकार प्रस्तावित गंगा प्रबंधन बोर्ड के पास चला गया है। राज्य गठन के बाद के लगभग ढाई दशक में उत्तराखण्ड ने राजनीतिक अस्थिरता और प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए भी उल्लेखनीय विकास किया है, लेकिन यदि उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम की धारा 79 और 80 को पूरी तरह लागू कर दिया गया, तो इस राज्य के सपनों पर पानी फिर जायेगा।

अधूरा परिसंपत्ति बंटवारा और विवाद

उत्तराखण्ड राज्य और उत्तर प्रदेश के बीच परिसंपत्तियों का बंटवारा आज तक पूरा नहीं हो सका है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इस विलंब का सबसे बड़ा कारण यही धाराएँ हैं। यदि ये लागू हो गईं तो न केवल ऊर्जा राज्य बनने का सपना टूट जाएगा बल्कि राज्य को अपनी ही नदियों में नौचालन या जलोत्सारण तक का अधिकार नहीं रहेगा। यही नहीं, उत्तराखण्ड के कई तालाबों और जलाशयों पर आज भी उत्तर प्रदेश का कब्जा बरकरार है। हरिद्वार में गंगा का नियंत्रण भी उत्तर प्रदेश के अधीन है। दुर्भाग्य यह है कि प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व इस सच्चाई को वर्षों से छिपाता रहा है। टिहरी बांध और टीएचडीसी की वास्तविक मिल्कियत को लेकर तो रहस्य बना ही हुआ है।

राजनीतिक चुप्पी और मूल ड्राफ्ट का हेरफेर

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राज्य गठन के बाद से अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने इस गंभीर मसले को प्राथमिकता नहीं दी। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारों ने इस विषय को दबाए रखा और मीडिया ने भी जाने अनजाने में इस पर चुप्पी साधे रखी। जबकि तत्कालीन गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त के मूल ड्राफ्ट में स्पष्ट रूप से जल संसाधन नए राज्य को देने का प्रावधान था, जिसे बाद में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा तैयार अधिनियम के ड्राफ्ट को संशोधित कर दिया गया।

धारा 79-80में विकास पर रोक लगाने वाली शर्तें

आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के बीच परिसंपत्ति बंटवारे का कार्य अधूरा पड़ा है। जिस कारण नया राज्य अपने ही संसाधनों से वंचित है। 2016 में गठित केंद्रीय समिति की रिपोर्ट में भी यह माना गया कि धारा 79-80 के कारण ही अधिकांश बंटवारा अटका हुआ है। 2024 में उत्तराखण्ड सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर गंगा प्रबंधन बोर्ड में राज्य का प्रतिनिधित्व बढ़ाने और धारा 80 में संशोधन की मांग की, मगर कोई जवाब नहीं मिला। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि ये धाराएँ पूर्ण रूप से लागू की गईं, तो राज्य का राजस्व 40 प्रतिशत तक घट सकता है, क्योंकि जलविद्युत परियोजनाओं से होने वाली आय का बड़ा हिस्सा केंद्र के पास चला जाएगा।

गंगा प्रबंधन बोर्ड अधिकारों का केंद्रीकरण

उत्तराखण्ड की जमीनें पहले ही भूस्खलन, भ्रष्टाचार और भूमि माफियाओं के कारण संकट में रही हैं। जंगलों को समवर्ती सूची में डालकर केंद्र ने उन पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अब जब हिमालय से निकलने वाली गंगा और यमुना जैसी नदियों को भी अधिनियम की धाराओं 79 और 80 के तहत प्रस्तावित बोर्ड के अधीन कर दिया गया, तो राज्य के पास केवल देखने का अधिकार भर रह गया है। खेद का विषय यह है कि न तो राजनीति में इस पर गंभीर विमर्श होता है और न ही मीडिया इसे उठाने की जरूरत समझता है।

अधिनियम की धारा 80 के अंतर्गत गंगा प्रबंधन बोर्ड का गठन किया गया है, जो सिंचाई, ग्रामीण और शहरी जल प्रदाय, जलविद्युत उत्पादन, नौचालन, उद्योगों के उपयोग तथा अन्य निर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में जल के उपयोग और वितरण का नियंत्रण करता है। इस बोर्ड में केंद्र सरकार का नियंत्रण प्रमुख है,उसका अध्यक्ष और दो प्रतिनिधि केंद्र द्वारा नियुक्त किए जाते हैं, जबकि उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश से केवल एक-एक सदस्य नामांकित किए जा सकते हैं। इस बोर्ड का दायित्व गंगा और उसकी सहायक नदियों से संबंधित सभी परियोजनाओं का प्रशासन, नियमन और विकास है। इसके पास जल आपूर्ति, बिजली वितरण और नई परियोजनाओं को स्वीकृति देने का अधिकार भी है। यहाँ तक कि बोर्ड के कर्मचारी भी केंद्र के अधीन नियुक्त होने हैं और राज्यों को केवल परामर्श का अधिकार दिया गया है। इस तरह देखा जाये तो उत्तराखण्ड प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपने संसाधन को स्वामी न रह कर मात्र एक हिस्सेदार बन जायेगा। यही नहीं सारे बिजली प्रोजेक्ट भी बोर्ड के अधीन चले जायेंगे।

ऊर्जा राज्य बनने के सपने पर संकट

स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड, जिसे प्रकृति ने जल, जंगल और भूमि का अनमोल खजाना दिया था, आज अपने ही संसाधनों से बेदखल हो जायेगा। हिमालय की गोद में बसी यह देवभूमि 10 प्रमुख नदियों (गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी, टोंस, रामगंगा, कोसी, गौला, धौलीगंगा, पिंडर) का उद्गम है और 40,000 मेगावाट जलविद्युत क्षमता का स्वामी मानी जाती है। लेकिन उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन अधिनियम-2000 की धारा 79 और 80 ने इस अपार जल-संपदा को बोर्ड के हवाले कर रखा है। देखा जाय तो आज 25 वर्ष बाद भी उत्तराखण्ड के पास अपनी नदियों पर पूर्ण अधिकार नहीं है।

धारा 79 और 80 को भंग करने की मांग

गंगा प्रबंधन बोर्ड, जो पुनर्गठन अधिनियम की धारा अस्सी (क) के अंतर्गत गठित होना है लेकिन उससे पहले ही केंद्र सरकार ने टिहरी जल विद्युत निगम, राष्ट्रीय जल विद्युत निगम और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के माध्यम से चौदह हजार मेगावाट क्षमता की परियोजनाओं पर अपना नियंत्रण बनाए रखा हुआ है।  पुनर्गठन अधिनियम में बंटवारे के जो जहां है और जैसा है के सिद्धान्त के बावजूद टिहरी बाँध में उत्तराखण्ड का हिस्सा नहीं है। उत्तराखण्ड को मात्र बारह प्रतिशत रॉयल्टी ही प्राप्त होती है। हरिद्वार जिले में गंगा के बयालीस किलोमीटर लंबे घाट आज भी उत्तर प्रदेश जल निगम के अधीन हैं। उत्तराखण्ड के तेरह में से ग्यारह जिलों में स्थित चार सौ अड़सठ प्राकृतिक तालाब, जैसे नैनीताल, भीमताल, सातताल और नौकुचिया ताल अब भी उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अभिलेखों में दर्ज हैं। 

वर्ष दो हजार तेईस में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने इन तालाबों को राज्य के अधिकार में वापस लेने का आदेश दिया था, किंतु केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से उस पर स्थगनादेश ले लिया। इसी वर्ष केंद्र ने उत्तराखण्ड को जलविद्युत परियोजनाओं से मिलने वाली सात हजार दो सौ करोड़ रुपये की रॉयल्टी रोक दी और कारण बताया गया कि धारा 79 उपधारा दो के अंतर्गत पुराने करार अभी भी लागू हैं। इसके परिणामस्वरूप राज्य का बजट घाटा बढ़कर बाईस हजार करोड़ रुपये तक पहुँच गया। पंद्रह जनवरी 2025 को उत्तराखण्ड सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक नई याचिका दाखिल की है, जिसमें धारा 79 और 80 को असंवैधानिक बताते हुए गंगा प्रबंधन बोर्ड को भंग करने तथा सभी जलविद्युत परियोजनाओं को राज्य को सौंपने की माँग की गई है। इस मामले की सुनवाई अट्ठाइस फरवरी 2026 को निर्धारित की गई है।

विशेषज्ञों का मत है कि इस समस्या के समाधान के लिए दोनों राज्यों और केंद्र के बीच त्रिपक्षीय समझौते के तहत इन धाराओं को समाप्त किया जाना चाहिए, भाखड़ा-ब्यास मॉडल की तर्ज पर ‘हिमालयी नदी बोर्ड’ का गठन होना चाहिए जिसमें उत्तराखण्ड को 51 प्रतिशत वोट की शक्ति मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, उत्तराखण्ड का राज्य होना केवल नक्शे पर ही रह जाएगा। प्रकृति ने इसे जल का अमूल्य खजाना दिया था, किंतु कानून ने वह छीन लिया।

 जयसिंह रावत