राजनीति

वंदे मातरम्- देशगीत से राष्ट्रगीत के 150 वर्ष

डा.वेदप्रकाश

वंदे मातरम् कोटि-कोटि देशवासियों के अन्तर्मन की अनुभूति का व्यक्त रूप है। इसके एक-एक शब्द में ऐसा जागरण एवं जीवनी शक्ति है जो नित्य नूतन ऊर्जा का संचार करती है। वंदे मातरम् के संबंध में अपने प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा है- यह अपूर्व देशगीत गाते-गाते आंखों में जल आने लगता है। सर्वविदित है कि 1875 में अपनी रचना के बाद से ही वंदे मातरम् भारतवर्ष की स्वतंत्रता के लिए खड़े होने वाले प्रत्येक क्रांतिकारी का जीवन गीत बन गया। चाहे वे कारागार में रहे, चाहे सड़क पर, चाहे यातनाएं सही, चाहे फांसी के फंदे चूमें लेकिन वे गाते ही रहे- वंदे मातरम्। वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा द्वारा वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी गई।


      राष्ट्रगीत के 150 वर्ष पूरे होने आज यह आवश्यक है कि यह जनगीत बने। देश का प्रत्येक नागरिक इसके महत्व को समझकर गौरवान्वित हो। आज यह भी आवश्यक है कि पूरा देश अपनी अपनी भक्ति और संकीर्णताओं को छोड़कर भारत माता की भक्ति करे। वंदे मातरम् एक शब्द युग्म मात्र नहीं है, यह माँ भारती की आराधना है।


      तुमी धर्म, तुमी कर्म, तुमी शक्ति और तुमी भक्ति आदि भावों के माध्यम से वंदे मातरम् गीत भारत माता को ही सर्वस्व मानकर समर्पण-वंदन का उद्घोष है। यह जन-जन के लिए प्रभात का स्वर है। यह एक ऐसी चेतन शक्ति है जो जन मन में मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम,निष्ठा, त्याग एवं समर्पण को अंकुरित और स्थापित करता है। सर्वविदित है कि 1875 में कार्तिक शुक्ल नवमी अथवा अक्षय नवमी के दिन बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने इसकी रचना की। तदुपरांत उन्होंने 1882 में इसे अपने महत्वपूर्ण उपन्यास आनंदमठ में सम्मिलित किया। वहीं से यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का विचार अथवा बीज बना।उपन्यास के आरंभ में बंगाब्द सन् 1174 यानी ईस्वी सन् 1768 के आसपास बंगाल में भीषण अकाल, गरीबी, भुखमरी एवं बदहाली और उसके बाद की स्थितियों का उद्घाटन है। बंकिम इन बदहाल क्षेत्रों में कलेक्टर रहे। इसलिए उन्होंने आनंदमठ में साक्षी भाव से लिखा है- जनता रोगाक्रांत होने लगी। गो, बैल, हल बेचे गये, घर-बार बेचा, खेती-बारी बेची। इसके बाद लोगों ने लड़कियां बेचना शुरू किया, फिर लड़के बेचे जाने लगे… घर-घर लोग महामारी से मरने लगे। ऐसी त्रासद स्थिति में भी मालगुजारी जारी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी के युद्ध में नवाब सिराजुद्दौला को हराकर मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया लेकिन  दीवानी अपने पास ही रखी। बंगाल में बदहाली और अंग्रेजों के दमन से त्रस्त होकर जन आक्रोश और संन्यासी विद्रोह पनप रहा था। ये विद्रोही भारत के युवा थे, भारत माता की संतान ही थे। स्वयं बंकिमचंद्र ने इन्हें संतान कहकर संबोधित किया है, जो मां की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पित करते हुए वंदे मातरम् के माध्यम से राष्ट्र की सुषुप्त शिराओं में नव जागरण का मंत्र फूंक रहे थे।


       वेद भारतीय ज्ञान परंपरा के आदि ग्रंथ हैं। अथर्ववेद में- माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: अर्थात् यह भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं , यह उद्घोष मिलता है। वंदे मातरम् इसी भाव का विस्तार है। यह गीत हमें भारतवर्ष के प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक वैभव से जोड़ता है। यह भारत की समृद्ध विरासत का भी दर्शन करवाता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद समाज सुधारक, साहित्यकार एवं क्रांतिकारी अपने-अपने तरीके से भारतबोध और नवजागरण की चेतना के प्रसार का प्रयास कर रहे थे। भारतेंदु द्वारा भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी देश की दशा बता चुके थे, तो आर्य समाज के माध्यम से स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज में फैली विकृतियों से मुक्ति का अभियान छेड़ा था। यह औपनिवेशिक भारत का सर्वाधिक अंधकारमय कालखंड था। ऐसे में जाति, मत, पंथ, अमीर-गरीब और क्षेत्रीयता आदि में बटे देश को एक ऐसे गीत की आवश्यकता थी जो सभी को एकता के सूत्र में बांध सके। वंदे मातरम् उसी का साकार रूप है। इसका अर्थ ही स्पष्टता से आह्वान करता है- हे मातृभूमि मैं तुम्हारी वंदना करता हूं। तदुपरांत प्राकृतिक सौंदर्य और भौगोलिक भव्यता का उद्घाटन किया है। गीत के पहले दो पद संस्कृत में हैं और बाकी हिस्सा बांग्ला में है। संस्कृत और बांग्ला का यह अद्भुत सामंजस्य जन जन में सांस्कृतिक गौरव का भाव जगाता है। हाल ही में मन की बात नामक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- वंदेमातरम् इस एक शब्द में कितने ही भाव हैं, कितनी ऊर्जाएं हैं। सहज भाव में ये हमें माँ भारती के वात्सल्य का अनुभव कराता है। यही हमें माँ भारती की संतानों के रूप में अपने दायित्वों का बोध कराता है। स्पष्टत: वे विकसित भारत के जिस बड़े लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं उसके लिए युवाओं और जन-जन की भागीदारी महत्वपूर्ण है। राष्ट्रगीत का महत्व समझते हुए वह भागीदारी मजबूत होगी।


       ध्यान रहे आत्मविश्वास से रहित और निहित स्वार्थों में लिप्त लोग विकास अथवा नव निर्माण के पथिक नहीं बन सकते। आत्मविश्वास के जागरण हेतु गौरवशाली अतीत का बोध आवश्यक है। आज जब देश विकसित भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहा है, तब यह आवश्यक है कि देश का जन-जन इस भू सांस्कृतिक राष्ट्र की गौरवशाली विरासत से परिचित हो। सभी शिक्षण संस्थानों में, गांवों एवं नगरों में वंदे मातरम् के भाव को समझने एवं जन-जन को उससे जोड़ने के लिए व्यापक स्तर पर कार्यक्रम चलें। पाठ्य पुस्तकों के आरंभ में वंदे मातरम् गीत केवल लिखा न जाए अपितु प्रतिदिन शिक्षण संस्थानों में उसका गायन अनिवार्य हो। जाति, मत, संप्रदाय, भाषा एवं क्षेत्रीयता की संकीर्णताओं से परे सभी राष्ट्रगीत के महत्व को आत्मसात करें। ध्यान रहे देशभक्ति एवं मातृभूमि के वंदन से बढ़कर न कोई पंथ हो सकता है और न ही कोई पूजा पद्धति। इसलिए राष्ट्रगीत के रूप में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूर्ण होने पर यह भी आवश्यक है कि यह देशगीत और राष्ट्रगीत अब जनगीत बने।


डा.वेदप्रकाश