विवेक रंजन श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश की हवा में अब सिर्फ धूल नहीं, प्रदूषण प्रमाणपत्र भी तैर रहे हैं। ये डिजिटल कागज़, प्रदूषण नियंत्रण के वे पवित्र सर्टिफिकेट हैं जिनके दम पर राज्य की सड़कों पर चल रही हर खटारा गाड़ी खुद को “स्वच्छ” घोषित कर चुकी है।
भोपाल की गलियों से लेकर इंदौर की बाईपास तक सड़क किनारे खड़ी ये पुरानी मारुति वैंस, उम्र दराज इंजन के साथ स्वयं प्रदूषण फैलाने का जो पुण्य अर्जित कर रही हैं और अब पॉल्यूशन सर्टिफिकेट बेचकर वही पुण्य जनता में बाँट रही हैं। यदि आप को लगता है यह गाड़ी प्रदूषण प्रमाणपत्र देने से पहले कोई जांच कर रही है, तो आप भ्रम में हैं। असल में यह नैतिकता का ईंधन जला रही होती है।
पॉल्यूशन प्रमाण पत्र एक आर टी ओ के चालान से बचने का औपचारिक उपकरण मात्र बनकर रह गया है । प्रमाण पत्र चाहने वाला गाड़ी मालिक मुस्कराता है, पुरानी प्रदूषण फैलाती मारुति वैंस जांच केंद्र वाला मुस्कराता है और गाड़ी की नम्बर प्लेट मात्र से मतलब रखने वाला प्रमाणपत्र भी मुस्कराता है — बस हवा रोती है।
प्रदूषण जांच के नाम पर जो मशीनें इन वैंस में रखी हैं, वे पिछली बार कब उपयोग की गई हैं, शायद वहां बैठा डिजिटल पॉल्यूशन सर्टिफिकेट बांट रहा,किराए का लड़का भी नहीं बता सकता ।
पर्ची निकलती है, उस पर लिखा होता है — “वाहन प्रदूषण सीमा के भीतर है।” यह सीमा कहाँ है, यह पूछने का सवाल कोई नहीं उठाता क्योंकि खुद हवा को गवाही देने का अधिकार नहीं मिला।
कहते हैं मध्यप्रदेश में अब हर वाहन के पास प्रदूषण प्रमाणपत्र है। यह सुनकर प्रदूषण देवता भी खुश होंगे कि अब कोई भी उनकी मौजूदगी पर सवाल नहीं उठाएगा। शहर की हवा गंदी हो सकती है, पर फाइलें साफ हैं। आँकड़े चमक रहे हैं, बस आसमान धुँधला गया है।
पेट्रोल पंपों पर पॉल्यूशन टेस्टिंग सेंटर खुले हैं। नाम बड़ा प्यारा है “सुविधा केन्द्र।” सच ही तो है. यहाँ सुविधा मिलती है बिना परीक्षण के सर्टिफिकेट प्राप्त करने की। यह ठीक वैसा ही है जैसे बिना पढ़ाई के डिग्री या बिना इलाज के रिपोर्ट ‘नॉर्मल’। जनता खुश, अफसर खुश, मशीन खामोश , हवा बेहोश।
सरकार ने स्क्रैपिंग नीति बनाई, पुराने वाहनों को हटाने की घोषणा की पर पुराने वाहन हटे नहीं, बस अपनी फिटनेस रिपोर्ट नई बनवा ली। कुछ सौ रुपये में गाड़ी जवान हो गई और फिर वही धुआँ चारों ओर फैलाने निकल पड़ी। यह वही जादू है जिसे मध्यप्रदेश की प्रदूषण व्यवस्था “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” कहती है।
इंदौर की हवा अगर दिल्ली से कम जहरीली है तो इसका श्रेय सर्टिफिकेटों को नहीं, हवा की मासूमियत को है जो अभी भी भरोसा कर लेती है कि इंसान सुधर जाएगा। भोपाल की वैनें, जबलपुर के पंप और ग्वालियर के केंद्र , सब मिलकर एक नाट्य-मंच बना चुके हैं जिसका नाम है “स्वच्छ वायु मिशन” और जिसकी पटकथा में हवा का किरदार ही काट दिया गया है।
यह पूरा तंत्र इतना व्यंग्यपूर्ण है कि यदि सत्य खुद रिपोर्ट देने आ जाए तो उसे “फेल” करार दे दिया जाए क्योंकि यहाँ सच से ज़्यादा मूल्यवान वह कागज़ है जो कहता है “सब कुछ ठीक है, प्रदूषण नियंत्रण मानक में है।” सर्टिफिकेट ही व्यवस्था का ऑक्सीजन है।
आप कहीं भी हों , आपकी गाड़ी कहीं भी हो , प्रदूषण जांच करने वाली वैन कहीं भी हो , कोई फर्क नहीं पड़ता, बस आपके संबंध होने चाहिए , यू पी आई से दो ढाई सौ रूपये अदा कीजिए , प्रदूषण जांच केंद्र को अपनी गाड़ी का और नम्बर प्लेट का फोटो व्हाट्स अप कीजिए , वहां से निकला पॉल्यूशन सर्टिफिकेट आपके मोबाइल में प्रगट हो जाएगा । फिर आप उसे अपने ड्राइवर को व्हाट्स अप कर दीजिए क्योंकि अगले चौक पर ट्रैफिक वाले अपनी औपचारिकता पूरे जोश से निभा रहे हैं. बिना इस पॉल्यूशन प्रमाण पत्र के वे गाड़ी का चालान बना देंगे , यूं गाड़ी तो फिर भी चलती रहेगी , बिना पर्यावरण की परवाह किए बस फाइन की पर्ची के साथ ।
अब सवाल यह नहीं कि वाहन प्रदूषण फैला रहे हैं या नहीं. सवाल यह है कि प्रमाणपत्रों का धंधा किस स्तर तक हवा खा गया है। हर झूठा सर्टिफिकेट एक सच्ची साँस का गला घोंट देता है और इस हत्या में दोषी वही हैं जो पर्ची लेकर निश्चिंत हो जाते हैं कि वे पर्यावरण के प्रति उत्तरदायी नागरिक हैं।
कहने को यह सब विकास की कहानी है पर असल में यह व्यवस्था का धुआँ है जो आँखों में जा रहा है। यदि किसी दिन हवा गवाही देने खड़ी हो जाए तो शायद सबसे पहले यही कहेगी “मुझे नहीं, मेरे प्रमाणपत्रों को शुद्ध करो।”
तो जब अगली बार सड़क किनारे खड़ी कोई मारुति वैन दिखे जिस पर लिखा हो “पॉल्यूशन टेस्ट सेंटर” तो सिर झुकाकर गुजरिए. वह कोई वाहन नहीं, व्यवस्था की चलती फिरती विडंबना है। हवा में सर्टिफिकेट उड़ रहे हैं और हम सब उन्हें सांसों में भर रहे हैं , बहुत संतोष के साथ, बहुत शांति से, बहुत प्रदूषित होकर।
विवेक रंजन श्रीवास्तव