व्यंग्य – घोषणा ही तो है…

राजकुमार साहू

मैं बचपन से ही ‘घोषणा’ के बारे में सुनते आ रहा हूं, परंतु यह पूरे होते हैं, पता नहीं। इतना समझ में आता है कि ‘घोषणा’ इसलिए किए जाते हैं कि उसे पूरे करने का झंझट ही नहीं रहता। चुनावी घोषणा की बिसात ही अलग है। चुनाव के समय जो मन में आए, घोषणा कर दो। ये अलग बात है कि उसे कुछ ही दिनों में भूल जाओ। जो याद कराने पहुंचे, उसे भी गरियाने लगो। यही तो है, ‘घोषणा’ की अमर कहानी। नेताओं की जुबान पर घोषणा खूब शोभा देती है और उन्हें खूब रास आती है। यही कारण है कि वे जहां भी जाते हैं, वहां ‘घोषणा की फूलझड़ी’ फोड़ने से बाज नहीं आते। लोगों को भी घोषणा की दरकार रहती है और नेताओं से वे आस लगाए बैठे रहते हैं कि आखिर उनके चहेते नेता, कितने की घोषणा फरमाएंगे।

बिना घोषणा के कुछ होता भी नहीं है। जैसे किसी शुभ कार्य के पहले पूजा-अर्चना जरूरी मानी जाती है, वैसे ही हर कार्यक्रम तथा चुनावी मौसम में ‘घोषणा’ अहम मानी जाती है। तभी तो हमारे नेता चुनावी ‘घोषणा पत्र’ में दावे करते हैं कि उन्हें पांच साल के लिए जिताओ, वे गरीबों की ‘गरीबी’ दूर कर देंगे। न जाने, और क्या-क्या। लुभावने वादे की चिंता नेताओं को नहीं रहती, बल्कि गरीब लोगों की चिंता बढ़ जाती है। वे गरीबी में पैदा होते हैं और गरीबी में मर जाते हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक केवल घोषणा का शंखनाद सुनाई देते हैं। चुनाव के दौरान घोषणा का दमखम देखने लायक रहता है। नेता से लेकर हर कोई घोषणा की लहर में हिलारें मारने लगता है, क्योंकि ‘घोषणा’ ऐसी है भी।

मन में जो न सोचा हो, वह घोषणा से पूरी हो जाती है। घोषणा की बातों का लाभ न भी मिले, तो सुनकर मन को तसल्ली मिल जाती है। गरीबों की गरीबी दूर करने की घोषणा चुनाव के समय होती है, लेकिन यह सभी जानते हैं कि गरीब, सत्ता व सरकार से हमेशा दूर रहे और गरीबी के आगे नतमस्तक होकर गरीब ही घोषणा के पीछे गुम होते जा रहे हैं।

अभी उत्तरप्रदेश समेत अन्य राज्यों में चुनावी सरगर्मी तेज है। हर दल के नेता ‘घोषणा’ पर घोषणा किए जा रहे हैं। सब के अपने दावे हैं। घोषणा में कोई छात्रों की सुध ले रहा है, किसी में गरीबों की धुन सवार है। कुछ आरक्षण के जादू की छड़ी घुमाने में लगा है। जो भी हो, घोषणा ऐसी-ऐसी है, जिसे नेता कैसे पूरी करेंगे, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी से समझ में आता है कि घोषणा का मर्ज जनता के पास नहीं है। लैपटॉप के बारे में छात्रों को पता न हो, मगर नेताओं ने जैसे ठान रखे हैं, चाहे तो फेंक दो, घर में धूल खाते पड़े रहे, कुछ दिनों बाद काम न आ सके, किन्तु वे लैपटॉप देकर रहेंगे। शहर में रहने वाले ‘गाय’ न पाल सकें, लेकिन वे घोषणा के तहत गाय देंगे ही। ये अलग बात है कि उसकी दूध देने की गारंटी न हो और उसके स्वास्थ्य का भी। नेताओं की घोषणा भी ‘गाय’ की तरह होती है, एकदम सीधी व सरल। सुनने में घोषणा, किसी मधुर संगीत से कम नहीं होती, लेकिन पांच साल के बीतते-बीतते, यह ध्वनि करकस हो जाती है।

नेताओं को भी घोषणा याद नहीं रहती। वैसे भी नेताओं की याददास्त इस मामले में कमजोर ही मानी जाती है। जब खुद के हक तथा फंड में बढ़ोतरी की बात हो, वे इतिहास गिनाने से नहीं चूकते। घोषणा की यही खासियत है कि जितना चाहो, करते जाओ, क्योंकि घोषणा, पूरे करने के लिए नहीं होते, वह केवल दिखावे के लिए होती है कि जनता की नेताओं की कितनी चिंता है। घोषणा के बाद यदि नेता चिंता करने लगे तो जनता की तरह वे भी ‘चिता’ की बलिवेदी पर होंगे। घोषणा की परवाह नहीं करते, तभी तो पद मिलते ही कुछ बरसों में दुबरा जाते हैं।

जनता को भी पांच साल होते-होते समझ में आती है कि आखिर ये सब जुबानी, घोषणा ही तो है… ?

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