कविता

नींबू की चाह


चाह नहीं मेरी,मिर्ची की साथ मै गूंथा जाऊं।
चाह नहीं मेरी,दरवाजे पर लटकाया जाऊं।।

चाह नहीं मेरी,नमक चीनी के साथ में घुल जाऊं।
चाह नहीं मेरी,मटर की चाट का स्वाद बन जाऊं।।

चाह नहीं मेरी,भूत प्रेत से मै पीछा छुड़वाऊं।
चाह नहीं मेरी,सबको बुरी नजरों से बचाऊं।।

चाह नहीं मेरी,सब्जी वालो को मैं अमीर बनाऊं।
चाह नहीं मेरी,नींबू के वृक्षों पर ही मैं लद जाऊं।।

चाह मेरी बस एक,उस रास्ते देना मुझको फेक।
जिस रास्ते जाते है,मेरे देश के सपूत वीर अनेक।।

बना सके मेरी शिकंजी,गर्मी व लू से वे बच पाए।
सीमा पर जाकर,शत्रु के दांत खट्टे करने वे जाए।।

आर के रस्तोगी