शम्भू शरण सत्यार्थी
मनुष्य ने जब पहली बार धरती का सीना चीरकर खेती शुरू की, जब उसने बीज बोकर जीवन को सम्भालना सीखा. उसने पेड़ों की छाया और नदियों के किनारे सभ्यताएँ बसाईं. तब से लेकर आज के आधुनिक, तकनीक-प्रधान दौर तक एक सत्य कभी नहीं बदला—मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता जन्म से लेकर मृत्यु तक का अनिवार्य संबंध है, ऐसा रिश्ता जिसे न सभ्यताओं की प्रगति तोड़ सकी, न तकनीक का उन्माद, न ही पूंजीवाद की लोलुप महत्वाकांक्षा। इसीलिए आज जब हम जल-जंगल-जमीन की बात करते हैं, तो यह सिर्फ तीन शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि यह तीन आधारस्तंभ हैं जिन पर पूरी मानवता टिकी हुई है और जब इन स्तंभों पर खतरा आता है तो सबसे पहले टूटता है किसान, आदिवासी, मजदूर और अंततः पूरा समाज।
आज जिस तेजी से जमीनें छीनी जा रही हैं, जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है और गाँवों को विस्थापित किया जा रहा है, वह सिर्फ पर्यावरणीय संकट की कहानी नहीं है—यह राजनीतिक लालच, पूंजी का दबदबा, और गरीबों की पुकार को अनसुना कर देने वाली नीति-व्यवस्था की वह भयावह कथा है जो मानव सभ्यता को एक ऐसे मोड़ पर पहुँचा रही है जहाँ से वापसी कठिन होती जा रही है। जिस प्रकार आपने कहा कि “जमीन किसान की माँ होती है,” यह सिर्फ एक रूपक नहीं, बल्कि वास्तविकता है। जमीन खोने का दर्द वही समझ सकता है जिसका जीवन इसी पर निर्भर हो, और जिसका भविष्य इसी से जुड़ा हो। जमीन सिर्फ मिट्टी नहीं, किसान की पहचान है, उसकी आजीविका है, उसका परिवार है, उसकी पीढ़ियों की सुरक्षा है। इसलिए जब कोई किसान जमीन खो देता है, तो वह सचमुच अनाथ हो जाता है—भूख, बेघरपन, असुरक्षा और शोषण का शिकार हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई मासूम बच्चा अपनी माँ के बिना असहाय हो जाता है।
वास्तव में यह पूरा संकट अचानक पैदा नहीं हुआ। यह वर्षों से चली आ रही नीतिगत विफलताओं, राजनीतिक व्यापार, निजी कंपनियों को खुली छूट, और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का परिणाम है। आज जल-जंगल-जमीन पर जो आक्रमण हो रहा है, वह व्यवस्थित, योजनाबद्ध और गहरे आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है। बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, खनन कंपनियों, हाईवे विस्तार, स्मार्ट सिटी योजनाओं और औद्योगिक गलियारों के नाम पर लाखों हेक्टेयर जमीनें छीनी गईं। कहने को इसे विकास कहा गया, पर असल में यह विकास की आड़ में विनाश की प्रक्रिया थी। यह विडंबना ही है कि जिसे विकास कहा गया, उसमें सबसे अधिक “अविकसित” वही हुआ जिसके बलिदान पर ये योजनाएँ खड़ी हुईं—किसान, आदिवासी और बुनियादी जीविका पर निर्भर समाज।
कोरोना काल के दौरान जब पूरा देश ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए तड़प रहा था, जब लोग अस्पतालों के बाहर जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे, तब पहली बार आधुनिक मनुष्य ने समझा कि प्रकृति का मूल्य कोई आर्थिक गणना नहीं है। जिस जंगल को हम कटवा देते हैं, वह जंगल भविष्य की ऑक्सीजन लेकर खड़ा रहता है। जिन पेड़ों को हम मुनाफे की आंख से देखते हैं, वही पेड़ हमारी साँसों में प्राण भरते हैं। कोरोना काल ने हमें यह सिखाया कि पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता—पर्यावरण, जीवन और स्वास्थ्य, पैसा देकर वापस नहीं मिलता। ऑक्सीजन की एक साँस का मूल्य तब समझ में आया, जब पैसेवाले से लेकर साधारण आदमी तक हर कोई एक सिलेंडर के लिए लाइन में खड़ा था। यह वह दौर था जिसने दुनिया को चेताया कि प्रकृति के संसाधन सीमित हैं, और उनका संरक्षण हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि चेतावनियाँ बहुत जल्दी भुला दी जाती हैं। कोरोना की त्रासदी बीते अभी दो-तीन साल ही हुए होंगे पर सरकारें फिर वही गलतियाँ दोहरा रही हैं। जंगल काटे जा रहे हैं, नदियों पर बांध बनाए जा रहे हैं, खनन कंपनियों को खुले पट्टे दिए जा रहे हैं, और जमीनों का अधिग्रहण तेज़ी से बढ़ रहा है। आदिवासी समुदाय जो सदियों से जंगलों के रक्षक रहे हैं, उनकी आवाज़ को दबाया जा रहा है। कई जगहों पर वे गोली खाकर भी जंगल की रक्षा करते दिखते हैं। मध्यप्रदेश से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक, ऐसी अनगिनत कहानियाँ हैं जहाँ आदिवासी अपनी जान देकर भी पेड़ों को बचाने की कोशिश करते हुए दिखे।
लेकिन यह सवाल उठना जरूरी है कि आदिवासी ही क्यों लड़ें? यह लड़ाई सिर्फ आदिवासियों की नहीं है, न सिर्फ किसानों की, न सिर्फ पर्यावरणविदों की—यह लड़ाई पूरे समाज की है, पूरी मानवता की है। यह समझने की जरूरत है कि जब जंगल कटेंगे तो सिर्फ आदिवासी नहीं मरेंगे, आम आदमी भी मरेगा क्योंकि ऑक्सीजन खत्म होगी। जब नदियाँ सूखेंगी तो सिर्फ गाँव नहीं प्यासे होंगे, शहर भी प्यासे होंगे। जब जमीन खत्म होगी तो सिर्फ किसान भूख से नहीं मरेगा, पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी क्योंकि किसान ही अन्नदाता है, वही देश का पेट भरता है।
आज के दौर में पूंजीपतियों और सरकारों की सांठगांठ ने जल-जंगल-जमीन को सुरक्षित संसाधन नहीं, बल्कि मुनाफे का साधन बना दिया है। खनन कंपनियों के लिए जंगल सिर्फ कोयला और खनिज निकालने का क्षेत्र है। रियल एस्टेट के लिए जमीन सिर्फ कमाई का ज़रिया है। बड़ी फैक्ट्रियों के लिए नदियाँ सिर्फ बहता हुआ कचरा डालने का माध्यम बन गई हैं। जब प्राकृतिक संसाधनों को बाजार की भाषा में तोला जाएगा, तो उनकी सुरक्षा को लेकर गंभीरता कैसे आएगी? यही कारण है कि आज जल, जंगल और जमीन को बचाना दुनिया के सबसे बड़े युद्धों में से एक युद्ध बन गया है—और यह युद्ध बंदूक और बम का नहीं, बल्कि विचार, चेतना, समाज और राजनीति का युद्ध है।
इस पूरे संकट का सबसे दुखद पक्ष यह है कि राजनीति ने भी इस मुद्दे को कभी ईमानदारी से नहीं उठाया। चुनाव आते हैं तो जल-जंगल-जमीन पर भाषण दिए जाते हैं, पर चुनाव जीतने के बाद इस विषय पर कोई नीति नहीं बनती। पर्यावरण सुरक्षा की बातें सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मंचों तक सीमित रहती हैं। जमीन अधिग्रहण कानूनों में संशोधन कर उन्हें और कंपनियों के पक्ष में बना दिया जाता है। आदिवासियों के वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकारें जानबूझकर ढिलाई बरतती हैं ताकि कंपनियों को जमीन मिलने में आसानी हो। किसान आंदोलन हों या वनाधिकार आंदोलन—सरकार का रवैया ज्यादातर कठोर रहता है, जैसे किसान और पर्यावरण कार्यकर्ता विकास के दुश्मन हों।
लेकिन सच्चाई यह है कि जल-जंगल-जमीन को बचाना विकास का विरोध नहीं, बल्कि असली विकास की रक्षा है क्योंकि सच्चा विकास वही है जो आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित पर्यावरण दे सके। आज अगर हम जंगल काटकर, नदियाँ सुखाकर, और किसानों को उजाड़कर हाईवे और फैक्ट्री खड़ी कर देंगे तो कल की पीढ़ी इन फैक्ट्रियों में काम करने वाली मजदूर नहीं होगी—यह फैक्ट्रियाँ ही डूब जाएँगी क्योंकि पानी नहीं बचेगा, खेती नहीं बचेगी, जलवायु अनियंत्रित हो जाएगी।
इसीलिए यह जागरण बहुत जरूरी है कि हम जल-जंगल-जमीन की लड़ाई को किसी एक समुदाय, एक राज्य, या एक वर्ग की लड़ाई न समझें बल्कि इसे अपने अस्तित्व की लड़ाई मानें। किसान, आदिवासी, मजदूर, पर्यावरणविद, विद्यार्थी, महिलाएँ और शहरों के पढ़े-लिखे लोग—सब इस लड़ाई के हिस्सेदार हैं क्योंकि यह पृथ्वी किसी कंपनी की प्राइवेट प्रॉपर्टी नहीं है, यह 7 अरब लोगों का साझा घर है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने स्तर से भी इन संसाधनों की रक्षा करें। एक पेड़ लगाना छोटा काम लगेगा, पर यही छोटे कदम बड़े परिणामों की नींव रखते हैं। अनावश्यक पेड़ कटाई रोकना, पानी का संरक्षण करना, अपनी जमीन पर जैविक खेती को बढ़ावा देना, और पर्यावरण-विनाशकारी परियोजनाओं के खिलाफ आवाज उठाना—ये सब हर नागरिक की जिम्मेदारी है।
और सबसे अधिक जरूरत है राजनीतिक दबाव बनाने की—क्योंकि जब तक जनता संगठित होकर सरकारों से जवाब नहीं मांगेगी, तब तक पूंजीवादी कंपनियों के सामने झुकी हुई नीतियाँ बदलने वाली नहीं हैं। आज अगर जल-जंगल-जमीन को बचाना है तो राजनीति को बदलना होगा। ऐसी राजनीति लानी होगी जो विकास के नाम पर विनाश की परियोजनाएँ न बेचे, बल्कि पर्यावरण को सुरक्षा की गारंटी दे।
नोटों की गड्डियाँ ऑक्सीजन नहीं दे पाएँगी, और न पानी खरीदकर बनाया जा सकता है। इसलिए जल-जंगल-जमीन की रक्षा करना सिर्फ नैतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का अंतिम आधार है। और अगर यह लड़ाई हम आज नहीं लड़े, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।
शम्भू शरण सत्यार्थी