विवेक रंजन श्रीवास्तव
अफसर के सामने दुम हिलाओ, पत्नी के सामने आँखें झुकाओ, बच्चे पुचकारें तो चाट लो, कमजोर को देखकर गुर्राओ और सरकार को देखकर सड़क पर भौंको।यही श्वान धर्म हमारा राष्ट्रीय चरित्र बना हुआ है। इसमें शर्म क्यों? श्वान केंद्रित लेखन की साहित्यिक परंपरा समृद्ध है। रामचरितमानस से लेकर गालिब और इक़बाल तक सब में श्वानों का ज़िक्र किया गया है। यानी हम जब कहते हैं कि हम किसी कुत्ते से कम नहीं, तो यह कोई अपमान नहीं, यह तो परंपरा का सम्मान है। हालात कैसे भी हो, पर आदतें नहीं बदलती , हमारी आदतें श्वान-परंपरा से ऐसी जुड़ी हुई हैं कि लगता है, हमें आदमी कहना भूल है। हम किसी श्वान से कम नहीं।
सरकार आवारा कुत्तों को पकड़ने के अभियान में लगी है। मोहल्ले-मोहल्ले से कुत्तों की धरपकड़ हो रही है। गाड़ियों में ठूसकर उन्हें ले जाया जा रहा है, और उधर पेटा की ओर से अदालत में याचिका दाख़िल हो रही है कि यह जनहितकारी कदम अमानवीय है। सवाल ये है कि अमानवीय कौन है? कुत्तों को पकड़ना या उन्हें मोहल्ले में आवारा खुले छोड़ देना? अदालत उलझी है, मोहल्ले वाले परेशान हैं, और कुत्ते अपनी दुम हिलाते हुए उसी आज़ादी का आनंद ले रहे हैं जिसकी हमें सदा से चाहत होती है। हम तो खुद को कुत्तों से बेहतर कुत्ता साबित करने में जुटे रहते हैं। ऑफिस में बॉस के सामने देख लीजिए, दुम इतनी तेजी से हिलाते हैं कि अगर पंखा बंद हो जाए तो भी हवा जारी रहे। चमचों से घिरे मंत्री जी के सम्मुख इतनी भीड़ होती है कि दम हिलाने को जगह नहीं मिलती तो वफादार दोनों टांगों के बीच सीधे ही दुम हिला कर कुँ कूं करने लगते हैं। पत्नी के सामने अच्छे अच्छे दुम हिलाते हैं , कि मैडम जैसा आदेश दें वैसा करेंगे। बच्चों के सामने उतनी ही मासूमियत , कि बच्चे प्यार से वैसे ही पुचकारते हैं, जैसे किसी पैमेरियन पिल्ले को प्यार कर रहे हों । कहीं कोई कमजोर सामने पड़ जाए तो हम अपनी धाक जमाने , गुर्राने में तनिक भी गुरेज नहीं करते ।
पड़ोसी देश से कितनी भी सदाशयता बरतो पर उसकी खूंखार जंगली कुत्ते वाली प्रवृत्ति नहीं छूटती । तुलसीदास ने लिखा था —
“श्वान जस दुम नहिं सीधी होइ।”
यानी श्वान की दुम कभी सीधी नहीं होती। हमारी भी यही हालत है। लाख सुधार अभियानों के बाद भी हम सुधरते नहीं।
कबीर ने कहा था—
“कुत्ता राम का, भौंके जुग चार।”
कुत्ता अगर राम का हो तो भक्ति में युगों तक भौंकता है । हम तो सरकार, व्हाट्सएप ग्रुप और ट्विटर के कुत्ते हैं। दो मिनट में ही ट्रेंड पकड़कर भौंकने लगते हैं और दो मिनट बाद भूल भी जाते हैं। हमको भी मालूम है कि सड़क पर भौंकने, टीवी पर चिल्लाने या सोशल मीडिया पर गुर्राने से कुछ नहीं बदलना, लेकिन दिल के बहलाने को भौंकना भी कोई बुरी आदत नहीं। व्हाट्स अप फॉरवर्ड कुछ वैसा ही लगता है मानो एक कुत्ते को भोंकता देख गली में सोते हुए सारे कुत्ते भी तुरन्त भौंकने लगते हैं।
इक़बाल ने श्वान की वफ़ादारी पर तंज़ कसा था—
“वफ़ा में श्वान हमसे बढ़ गए,
हम इंसानों से शिकवा न करो।”
सच ही है, कुत्ता मालिक के लिए जान तक दे देता है।
इंसान बॉस और सत्ता के लिए इतना ही करते हैं कि तनख़्वाह और पदोन्नति की थाली चाटते रहते हैं।
हम किसी कुत्ते से कम नहीं, रोहिंग्या बनकर इंसान बाड़ों के कंटीले तारों से बचते हुए घुस आते हैं, बुलडॉग बनकर दुनिया भर में धौंस जमाने के मौके तलाशते हैं।
हम किसी भी तरह कुत्तों से कम नहीं हैं।
विवेक रंजन श्रीवास्तव